भारत ने स्वतंत्रता १५ अगस्त १९४७ को पाई और २६ जनवरी१९५० गणराज्य की स्थापना हुई। हमने गुलामी से मुक्ति पाकर कुछ नया करने का संकल्प लिया और वर्तमान में बहुत कुछ पाना हैं। अविकसित से विकासशील बनने की दौड़ में हैं और विकसित बनना हैं जो कठिन नहीं हैं परन्तु प्रजातंत्र में भाई- भतीजावाद ,भ्रष्टाचार ,भुखमरी ,बेरोजगारी ,मंहगाई ने भारत की लोकतंत्र की कमर तोड़ दी। जो चिंतनीय पहलु हैं
अगली पीढ़ी को सशक्त बनाना अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस के लिए इस वर्ष २००३ की थीम, “अगली पीढ़ी को सशक्त बनाना” लोकतंत्र को आगे बढ़ाने में युवाओं की आवश्यक भूमिका पर केंद्रित है और यह सुनिश्चित करना है कि उनकी आवाज़ उन निर्णयों में शामिल हो जिनका उन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने लोकतंत्र के सिद्धांतों को बढ़ावा देने और बनाए रखने के उद्देश्य से 15 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस के रूप में मनाने का संकल्प लिया और सभी सदस्य राज्यों और संगठनों को इस दिन को उचित तरीके से मनाने के लिए आमंत्रित किया, जो लोकतंत्र को बढ़ावा देने में योगदान देता है। जन जागरूकता .
.जबकि लोकतंत्र में सामान्य विशेषताएं साझा होती हैं, लोकतंत्र का कोई एक मॉडल नहीं है और लोकतंत्र किसी देश या क्षेत्र से संबंधित नहीं है… …लोकतंत्र एक सार्वभौमिक मूल्य है जो लोगों की अपनी राजनीतिक, आर्थिक स्थिति निर्धारित करने की स्वतंत्र रूप से व्यक्त इच्छा पर आधारित है , सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाएँ, और जीवन के सभी पहलुओं में उनकी पूर्ण भागीदारी ।
सितंबर 1997 में अंतर-संसदीय संघ (आईपीयू) ने लोकतंत्र पर एक सार्वभौमिक घोषणा को अपनाया। यह घोषणा लोकतंत्र के सिद्धांतों, लोकतांत्रिक सरकार के तत्वों और अभ्यास और लोकतंत्र के अंतर्राष्ट्रीय दायरे की पुष्टि करती है।
नए और बहाल लोकतंत्रों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (आईसीएनआरडी प्रक्रिया) 1988 में फिलीपींस के राष्ट्रपति कोराज़ोन सी. एक्विनो की पहल के तहत शुरू हुआ, जब तथाकथित शांतिपूर्ण ” पीपुल्स पावर रिवोल्यूशन ” ने फर्डिनेंड मार्कोस की 20 साल की तानाशाही को उखाड़ फेंका। . प्रारंभ में एक अंतर-सरकारी मंच, ICNRD प्रक्रिया सरकारों, संसदों और नागरिक समाज की भागीदारी के साथ एक त्रिपक्षीय संरचना में विकसित हुई। 2006 में दोहा , कतर में हुए छठे सम्मेलन (ICNRD-6) ने प्रक्रिया की त्रिपक्षीय प्रकृति को मजबूत किया और एक घोषणा और कार्य योजना के साथ संपन्न हुआ जिसने लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों और मूल्यों की पुष्टि की।
ICNRD-6 के परिणाम के बाद, प्रक्रिया के अध्यक्ष कतर द्वारा स्थापित एक सलाहकार बोर्ड ने अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस को बढ़ावा देने का निर्णय लिया। कतर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव का मसौदा तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभाई और संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के साथ परामर्श आयोजित किया। आईपीयू के सुझाव पर, 15 सितंबर (लोकतंत्र पर सार्वभौम घोषणा की तारीख) को उस दिन के रूप में चुना गया जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय हर साल अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाएगा। “नए या बहाल लोकतंत्रों को बढ़ावा देने और समेकित करने के लिए सरकारों के प्रयासों की संयुक्त राष्ट्र प्रणाली द्वारा समर्थन” शीर्षक वाला संकल्प, [4] 8 नवंबर 2007 को सर्वसम्मति से अपनाया गया था।
आईपीयू ने संसदों से किसी प्रकार की विशेष गतिविधि के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाने का आग्रह किया है, जिसे परिस्थितियों के आधार पर यथासंभव 15 सितंबर या उसके आसपास आयोजित किया जाना चाहिए। यह दिन संसदों के लिए एक अवसर होगा:
लोकतंत्र के महत्व, इसमें क्या शामिल है, इसके सामने आने वाली चुनौतियों के साथ-साथ इसके द्वारा प्रदान किए जाने वाले अवसरों और लोकतंत्र की प्रमुख संस्था के रूप में सभी संसदों की केंद्रीय जिम्मेदारी पर जोर दें;
जांच करें और चर्चा करें कि संसद अपने लोकतांत्रिक कार्यों को कितनी अच्छी तरह से करती है, संभवतः स्व-मूल्यांकन के आधार पर , और पहचानें कि वह अपनी प्रभावशीलता को मजबूत करने के लिए क्या कदम उठा सकती है।
भारत दुनिया का पहला (जनसंख्या में) और सातवाँ (क्षेत्र में) सबसे बड़ा देश है। भारत दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है, फिर भी यह एक युवा राष्ट्र है। १९४७ की स्वतन्त्रता के बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को इसके राष्ट्रवादी के आंदोलन कांग्रेस के नेतृत्व के तहत बनाया गया था।
लोकसभा के सदस्यों का चुनाव हर ५ वर्ष में एक बार आयोजित किया जाता है।
देश में दो मुख्य गठबंधन:राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और सत्ताधारी पार्टियाँ १६ ; छह मुख्य राष्ट्रीय पार्टियाँ हैं: भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी. राज्य स्तर पर, कई क्षेत्रीय दल विधानसभाओं के लिय हर पांच साल पर खड़े होते हैं। राज्य सभा चुनाव हर ६ वर्ष में आयोजित की जाती है।
लोकतंत्र, सरकार की एक प्रणाली है जो नागरिकों को वोट देने और मतदाताओं को अपनी पसंद की विधायिका का चुनाव करने की अनुमति देती है। इसके तीन मुख्य अंग हैं: कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका।
लोकतंत्र के उपयोग का इतिहास लंबा और ऊंचनीच से भरा हुआ है। भारत के प्राचीन गणतंत्रों अथवा यूरोप के एथेन्सी लोकतंत्र का इतिहास ही दो हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है और हम देखते हैं कि उस काल के मानव समाज में भी लोकतंत्रीय संस्थाएं किसी-न-किसी रूप में विद्यमान थीं।
मानवीय गतिविधि जैसे-जैसे व्यापक रूप लेती गई, मानव दृष्टि में भी व्यापकता आती गई। नागरिक समाज निर्माण करने की आकांक्षा ने मनुष्य को लोकतंत्र की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया क्योंकि यही ऐसी व्यवस्था है जिसमें सर्वसाधारण को अधिकतम भागीदारी का अवसर मिलता है। इससे केवल निर्णय करने की प्रक्रिया ही में नहीं अपितु कार्यकारी क्षेत्र में भी भागीदारी उपलब्ध होती है। अपने विकास क्रम के विभिन्न चरणों में लोकतंत्र ने भिन्न-भिन्न परिस्थितियों को अन्यान्य मात्रा में सुनिश्चित करने का प्रयास किया है।
किसी भी प्रजातंत्र के लिए चुनाव उसका अभिन्न अंग होते हैं। लेकिन यही अंतिम सत्य नहीं है। इस संस्था का अंतिम सत्य तो जनता और उसके जीवन की अंतर्वस्तु होती है। दुर्भाग्यवश भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में राजनैतिक दल, चुनाव के पहले की अपनी कथनी को सत्ता में आने के बाद बदल देते हैं, और इस प्रकार से प्रजातंत्र की अनदेखी की जाती रहती है।
राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता
पिछले पाँच वर्षों में, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता, दो ऐसे जुमले रहे हैं, जो देश की राजनीति पर छाए रहे हैं। ये दोनों ही तत्व भाजपा और कांग्रेस से जुड़े रहे हैं। भारतीय प्रजातंत्र के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता एक प्रकार का आदर्श नारा है। परन्तु राजनैतिक दलों ने इसे भिन्न स्वरूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। वास्तव में यह चिंतनीय है।
दरअसल, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे तत्वों के लिए प्रजातंत्र का होना अनिवार्य नहीं है। ईरान के अंतिम शाह और ईराक में सद्दाम हुसैन के अधीन भी धर्मनिरपेक्षता थी; जबकि ये दोनों ही शासक तानाशाह थे। चीनी गणतंत्र भी इतना राष्ट्रवादी है कि उसके समाजवाद को चीनी विशेषताओं वाला समाजवाद माना जाता है। बहरहाल, वह एक प्रजातंत्र नहीं है। भारत के लिए प्रजातंत्र, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता से बढ़कर होना चाहिए। लेकिन यह दांव पर लगा हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रजातंत्र में इन दोनों आदर्शों का स्थान नगण्य है। वास्तव में तो ये तत्व प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण भाग हैं।
अगर राष्ट्रवाद पर नजर डालें, तो प्रजातांत्रिक समुदाय बनने के साथ ही अपने राष्ट्र के हितों की रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य बन जाता है। भारत में खतरे दो स्रोतों से आते हैं। भारत से शत्रुता रखने वाले क्षेत्रों में चीन जैसे सत्तावादी शासन हैं। दूसरा, पश्चिमी शक्तियों ने अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों को बढ़ावा देने के लिए वैश्विक निकायों पर कब्जा कर लिया है, और इन बहुपक्षीय एजेंसियों के माध्यम से वे भारत के बाजार को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।
दूसरा तत्व धर्मनिरपेक्षता है। सैद्धांतिक रूप से तो किसी प्रजातांत्रिक सरकार के कार्यकलापों में धार्मिक प्रभाव दिखाई नहीं देना चाहिए। वर्तमान भारत में इस तथ्य की प्रासंगिकता को समझना आवश्यक है। इसके लिए अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों की रक्षा की जानी चाहिए।
सही साधनों से न्यायसंगत समाज की स्थापना
पिछले 70 वर्षों में, भारतीय लोकतंत्र का लक्ष्य समृद्धि रहा होगा, परंतु यह बहुमत में कहीं दिखाई नहीं देता। समाज का एक छोटा-सा वर्ग ही समृद्धशाली होता गया है। न केवल धनी वर्ग, बल्कि मध्य वर्ग भी पहले की अपेक्षा समृद्ध हो गया है। बाकी की जनता अभी भी जीविका के लिए संघर्ष कर रही है। इन निर्धनों के लिए न्यायसंगत समाज की परिकल्पना भी दूर की बात है। वास्तव में सही साधनों से न्यायसंगत समाज की स्थापना की जा सकती है। इसके लिए सही नीतियों की आवश्यकता है। इन्हें बनाना राजनतिक दलों का काम है।
अधिकांश भारतीयों के जीवन के संघर्ष को समाप्त करने के लिए हमें अपनी नीतियों की दिशा को नीचे जाते मानव विकास सूचकांक को ऊपर उठाने की ओर मोड़नी होगी। शिक्षा की गुणवत्ता की कमी के कारण लाखों युवा बेरोजगार हैं। एक सम्मानयुक्त जीविका कमाने के लिए उनका कौशल पर्याप्त नहीं है। इसके लिए दो प्रकार से तैयारी करनी होगी।
(1) शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए समस्त संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग। चुनाव में हम इसी उद्देश्य के लिए तो मतदान करते हैं। लेकिन नेताओं की राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता पर भाषणबाजी खत्म ही नहीं होती। ऐसा लगता है कि सुशासन की पूरी जिम्मेदारी नौकरशाहों पर ही है। ऐसा होने से नौकरशाहों को अलग प्रकार की शक्ति मिल जाती है। वे किसी के प्रति जवाबदेह नहीं रह जाते हैं।
(2) सार्वजनिक नीति का दूसरा उद्देश्य आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाना होना चाहिए। हमारे युवाओं को रोजगार चाहिए। सरकार स्वयं प्रत्यक्ष रूप से रोजगारों का सृजन नहीं कर सकती। परन्तु वह उसके अनुकूल स्थितियां तैयार कर सकती है। ऐसा सार्वजनिक निवेश और मैक्रो इकॉनॉमिक नीति से किया जा सकता है। अपरिपक्व आर्थिक नीतियों ने बेराजगारी को बहुत बढ़ा दिया है। भारतीय राजनीतिक दल इस बात का आरोप नहीं लगा सकते कि उन्हें प्रजातंत्र की मंजिल तक पहुँचने का रास्ता नहीं दिखाया गया था। अगर वे देश को वहाँ ले जाने में असफल रहते हैं, तो इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार होंगे।
गणतंत्र में जब एक पार्टी का बहुमत होने से और विपक्ष को निरीह कर देना एक तानाशाह का उदय समझा जा सकता हैं ,प्रजातंत्र कभी भी एक पक्षीय पक्षी नहीं हो सकता। पक्षी के दोनों पक्ष होने से ही पक्षी उड़ने में सक्षम होगा। प्रजातंत्र में भी पक्ष विपक्ष होना अनिवार्य हैं।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् भोपाल A2/104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट ,होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल 09425006753
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