पुरातत्त्व नष्ट हो ही जाना चाहिए : सुरेन्द्र भारती ( शरारती दिमाक की विध्वंसकारी सोच )

0
33

कोपरगाँव । सम्पूर्ण जैन पुरातत्त्व को नष्ट कर देना चाहिए, केवल जिनकी पूजा हो सकती है उन्हें ही बचा कर रखना चाहिए। ये विचार प्रस्तुत किये एक विद्वत् सम्मेलन में डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन ‘भारती’, बुरहानपुर ने।
आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ससंघ के सान्निध्य और शास्त्रिपरिषद् के तत्त्वावधान में सकल दिगम्बर जैन साधर्मी समाज सहयोग प्रतिष्ठान कोपरगांव (महाराष्ट्र) द्वारा दिनांक 1 एवं 2 अप्रैल 2024 को आयोजित जैन राष्ट्रीय विद्वत्सम्मेलन में 2 अप्रैल को प्रातःकालीन सत्र में बोलते हुए डॉ. ‘भारती’ ने कहा- ‘‘बहुत कहा जाता है- पुरातत्त्व नष्ट हो रहा है! पुरातत्त्व नष्ट हो रहा है!! पुरातत्त्व नष्ट हो रहा है!!! पुरातत्त्व नष्ट हो ही जाना चाहिए, क्या होता है पुरातत्त्व से? पुरातत्त्व के लिए कहा यदि जीवन्त प्रतिमा है तो उसे पुरातत्त्व विभाग नहीं ले सकता.. पुरातत्त्व वह है जिसे पूजें आप..।’’ इनका कहना है जो यदाकदा पुरातत्त्व पर लिखते रहते हैं वह सब फालतू है। उनके इस विध्वंसकारी वक्तव्य पर जब प्रश्न किया गया कि किसी भी समाज के उपलब्ध साक्ष्य ही उसकी संस्कृति की प्राचीनता और पूर्व में अस्तित्व होने के प्रमाण होते हैं। तब उत्तर में डॉ. भारती द्वारा कहा गया कि ‘जो पूज्य प्रतिमाएं हों केवल उन्हीं को बचाना चाहिए, शेष पुरातत्त्व नष्ट कर देना चाहिए।’
उक्त विध्वंसकारी वक्तव्य सम्मेलन के तृतीय सत्र में दिया गया। इस कार्यक्रम के सर्वाध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन-बड़ौत थे और संचालन प्रोफेसर नरेन्द्रकुमार जैन टीकमगढ़ कर रहे थे। ज्ञातव्य है कि इसी तरह के वक्तव्यों से प्रेरणा लेकर जैनों के द्वारा जीर्णोद्धार के नाम पर अपनी ही अनेक मूर्तियां नष्ट की जा रहीं हैं। 4-5 वर्ष पूर्व  खंदारगिरि की एक हजार वर्ष प्राचीन, और 46 फीट उत्तुंग आईकान प्रतिमा को तोड़ दिया गया। आज तक उसका कुछ नहीं किया गया। जिन्होंने उसके स्वरूप को देखा है वे दंग हैं। कई लोगों को तो अभी ज्ञात ही नहीं है कि खंदारगिरि की वह प्राचीन प्रतिमा ध्वस्त कर दी गई है।
उपरोक्त कार्यक्रम के अध्यक्षीय वक्तव्य के उपरांत आचार्य श्री विशुद्धसागर जी के प्रवचन हुए। उन्होंने प्रवचनों में कहा कि आज विदेशों में हमारी पुरातन प्रतिमाओं, हमारे पुरातत्त्व के कारण ही दुनियां उन्हें नमन करती है और जैन संस्कृति के इतिहास को जानती है। साक्ष्यों के लिए भी केवल साहित्य पर्याप्त नहीं, उपलब्ध प्रतिमा चाहे वह किसी रूप में हो बहुत बड़ा साक्ष्य होती है, पुरातत्त्व हमारी संस्कृति की विरासत है, हमारी पहचान है। उसमें प्रशस्ति हो न हो उसके पाषाण आदि से ज्ञात हो जाता है कि वह कितना पुरातन है। जब तक आप वहां तक नहीं पहुँच पाते तब अन्य लोग भी उन्हें नमन करते हैं, किसी रूप में हो, लोग उसे नष्ट तो नहीं कर रहे। आचार्यश्री ने तो यहाँ तक कहा कि जैसे पुराने भूमिगत बंकर (तलघर) हमें मिल रहे हैं, वैसे आज भी बनवाकर उनमें अपना इतिहास सुरक्षित रखवाना चाहिए।

-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर
मो. 9826091247

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here