सोनल जैन की रिपोर्ट
एटा नगर के मुख्य चौराहे “आचार्य विमर्श सागर चौक” पर हुआ जिनागम पंथ का ध्वजारोहण जैन एकता का शंखनाद है “जिनागम पंथ जयवते हो” – भावलिंगी संत
एटा- जिन्होंने स्वयं के मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, संसार में अब जिन्हें कुछ भी जीतना शेष नहीं रहा है अर्थात संसार की सभी महा विभूतियाँ व महर्दिक देव भी जिनके चरणों में नमस्कार करते हैं वे जिन कहलाते हैं। ऐसे जिनेन्द्र भगवान के उपासक जैन कहलाते हैं। जैन धर्म के आध धर्मतीर्थ प्रवर्तक देवाधिदेव भगवान आदिनाथ स्वामी हुए। उनके ही प्रथम पुत्र चक्रवर्ती भरत जी के नाम पर ही इस भूमि का नाम ‘भारत देश के नाम से विख्यात हुआ। प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ स्वामी के पाँच कल्याणक सौधर्म इन्द्र ने समस्त देवगणों के साथ महाविभूति के साथ मनाए । ‘आज फाल्गुन भावलिंगी संत जिनागम पंथ प्रवर्तक आचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज के ससध सानिध्य में एटा नगर में “जिनागम पंच स्थापना दिवस ” के रूप में मनाया गया। इस पावन अवसर पर जिनालय में प्रातःकाल में प्रथम तीर्थकर की महापूजा सम्पन्न की गई पश्चात श्री पार्श्वनाथ जिनालय, पुरानी बस्ती से एक विशाल शोभायात्रा परम पूज्य आचार्य श्री के संघ को लेकर नगर का प्रमुख चौराहा – “आचार्य विमर्श सागर चौक तक जिनागम पंथ के गगनभेदी जयकारों के साथ पहुँचे । चतुर्विध संघ सहित विशाल जन सैलाब के बीच आचार्य विमर्शसागर चौक” के बीचोंबीच आसमान को चीरता हुआ “जिनागम पंथ का ध्वजारोहण किया गया। इस ध्वजारोहण के महाआयोजन में एटा नगर पालिका अध्यक्ष श्रीमती सुधा- पंकज गुप्ता ने मुख्य ध्वजारोहण कर अपने हाथों को पवित्र किया। जिनागम पंथी भक्त समुदाय द्वारा सभी को “जिनागम पंथ दिवस “की बधाईयाँ दी गई। पुनः विशाल शोभा यात्रा मुख्य मार्गों में उद्घोष करते हुए वापस श्री पार्श्वनाथ जिनालय में झाकर सम्पन्न हुई। आचार्य संघ के वरिष्ठ मुनिराज ने इस ‘जिनागम पंच दिवस ” पर प्रकाश डालते हुए कहा – जैन धर्म अर्थात् जिनागम पंथ अनादिकाल से इस धरा पर रहा है तथा इसीतरह अनंतकाल तक प्रवर्तता रहेगा। कालदोष के कारण इस पवित्र जैनधर्म में ही अनेक मत-मतान्तर पैदा हो गए हैं, जिसके कारण अखण्ड जैनधर्म के अनुयायियों में भी आपस में मतभेद हो गए हैं इस तरह अखण्डित जैन समाज में ही अनेक विभाग दिखाई देते हैं।
सोनल जैन पत्रकार ने बताया की परम पूज्य आचार्य श्री विमर्शसागर जी गुरुदेव को बिखरती समाज को देखकर आंतरिक पीड़ा उत्पन्न हुई अतः पूज्य आचार्य श्री ने सभी जैन श्रद्धालुओं को एकता के अटूट सूत्र में पिरोने का आग्रह किया बांधने के लिए “जिनागम पंय जयवंत हो” का पावन पवित्र सूत्र प्रदान किया जिसका सीधा-सरल अर्थ है- “भगवान जिनेन्द्र देव की वाणी में आया हुआ मार्ग ही सदा जयवंत हो।”
बन्धुओं । स्वयं को जिनागम पंथी कहने से हम सीधे जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताए सच्चे मार्ग से जुड़ जाते हैं। वर्तमान में समय-समय पर उत्पन्न हुए मत-मतान्तर सच्चे नहीं हो सकते, क्योंकि जिसका उदय होता है उसका नियम से अन्त भी निश्चित है। अतः हम सीधे, जिनेन्द्र देव की वाणी से जुड़े और गर्व से कहें हम जिनागम पंथी
इस भरत क्षेत्र में प्रथम बार प्रथम तीर्थकर की दिव्यध्वनि आज के दिन भव्य जीवों को प्राप्त हुई थी। भगवान की वाणी में जो मार्ग आया, बस वहीं जिनागम पंथ है। हम सभी अन्य पंयों-मतों के कम्घरों से बाहर निकलकर जिनागम पंथी बनकर जैन एकता को अखण्डता प्रदान करें। यही हमारा मूल उद्देश्य है। शाश्वत-अमर जिनागम सम्प्रदाय विजयी हो