-डॉ. सुनील जैन ‘संचय’, ललितपुर
Suneel sanchay@gmail.com
आधुनिक युग को यदि हम “प्रतिस्पर्धा का युग” कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। तकनीकी विकास, सामाजिक परिवर्तन और भौतिक सुविधाओं की प्रचुरता के बीच आज का युवा मानसिक रूप से पहले से अधिक संवेदनशील और अस्थिर होता जा रहा है। परिणामस्वरूप, आत्महत्या जैसी भयावह प्रवृत्ति युवाओं में तेजी से बढ़ रही है। यह केवल व्यक्तिगत दुर्बलता का नहीं, बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक असंतुलन का भी संकेत है।
आत्महत्या : एक सामाजिक एवं मानसिक रोग :आत्महत्या (Suicide) किसी व्यक्ति की मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक परिस्थितियों के चरम असंतुलन का परिणाम होती है। यह एक क्षणिक आवेग में किया गया स्थायी निर्णय है जो व्यक्ति ही नहीं, पूरे परिवार और समाज को झकझोर देता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट के अनुसार, प्रत्येक 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है, जिनमें सबसे बड़ी संख्या 15 से 30 वर्ष की आयु वर्ग की है। भारत में भी युवाओं के आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, विशेषकर विद्यार्थियों, प्रेम-संबंधों में असफल युवाओं और बेरोजगारी से जूझते वर्ग में।
प्रमुख कारण
1. शैक्षिक एवं प्रतिस्पर्धात्मक दबाव :
आज का शिक्षण तंत्र अंकों और रैंक की दौड़ में बच्चों से मानवीय संवेदना और आत्मविश्वास छीन रहा है। असफलता का भय युवाओं को मानसिक रूप से तोड़ देता है। यद्यपि सतत व्यापक मूल्यांकन, समावेशी शिक्षा, नई शिक्षा नीति आदि के माध्यम से अंक आधारित मूल्यांकन की दिशा में सुधार करने के प्रयास हुए हैं।
2. बेरोजगारी और भविष्य की अनिश्चितता :
शिक्षित युवा जब अपनी योग्यता के अनुरूप रोजगार नहीं पाते, तो उनमें हीनभावना और हताशा जन्म लेती है। यह आर्थिक और आत्मसम्मान दोनों की हानि का कारण बनती है।
3. पारिवारिक कलह और संवादहीनता :
परिवार में संवाद की कमी, अभिभावकों की अत्यधिक अपेक्षाएँ और भावनात्मक दूरी युवाओं को अकेलापन महसूस कराती है। यह अकेलापन आत्मघात का बीज बनता है।
4. प्रेम-संबंधों में असफलता : युवावस्था की भावनाएँ अत्यधिक तीव्र होती हैं। असफल प्रेम या टूटे संबंध को जीवन का अंत समझ लेना परिपक्वता की कमी का परिणाम है। आजकल युवाओं में प्रेम संबंधों में असफलता के कारण आत्महत्या की घटनाएं बड़ी संख्या में देखी जा रही हैं, जो चिंताजनक हैं।
5. सोशल मीडिया का दुष्प्रभाव :
‘परफेक्ट लाइफ’ की झूठी छवि सोशल मीडिया पर देखकर युवा स्वयं को अपूर्ण महसूस करने लगते हैं। तुलना, ट्रोलिंग, और डिजिटल असुरक्षा मानसिक तनाव को बढ़ाती है।
6. नशे और अवसाद की बढ़ती प्रवृत्ति :
ड्रग्स, शराब या अन्य व्यसनों का सेवन मस्तिष्क को अवसादग्रस्त और असंतुलित बना देता है। शराब का सेवन युवाओं में बड़ी संख्या में बड़ रहा है। शराब को एक फैसन, लाइफ स्टाइल बना लिया है जिससे बहुत ही भयानक परिणाम देखने को मिल रहे हैं।
निवारण के उपाय
संवाद और सहानुभूति का वातावरण : परिवार, शिक्षक और मित्र—सभी को युवाओं के मनोभावों को समझने का प्रयास करना चाहिए। सुनना भी एक बड़ा उपचार है। “तुम अकेले नहीं हो” — यह संदेश बार-बार देना आवश्यक है।
मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा :विद्यालयों और महाविद्यालयों में mental health awareness को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। परामर्शदाता (counsellor) की नियुक्ति प्रत्येक शिक्षण संस्थान में अनिवार्य होनी चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास : जैन दर्शन सहित भारतीय अध्यात्म सिखाता है कि आत्मा अमर है और दुःख क्षणिक। जीवन का उद्देश्य केवल सफलता नहीं, आत्मोन्नति है। “पराभवो दुःखहेतुः, परिषह सहनं सुखस्य मूलम्” — यह भावना यदि युवा के भीतर जागृत हो, तो वह कभी भी जीवन से पलायन नहीं करेगा।
मूल्य आधारित शिक्षा :अभिभावक और शिक्षक मिलकर बच्चों में सत्य, संयम, अहिंसा, और आत्मविश्वास जैसे नैतिक मूल्यों का बीजारोपण करें। यह मानसिक स्थिरता की नींव है।
मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म का उत्तरदायित्व :
मीडिया को आत्महत्या से संबंधित समाचारों को सनसनीखेज ढंग से प्रस्तुत करने से बचना चाहिए। इसके स्थान पर प्रेरणादायक जीवन कथाएँ, संघर्ष से सफलता तक की यात्राएँ, और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सकारात्मक सामग्री को प्रसारित करना चाहिए। समाचार माध्यमों को आत्महत्या के समाचारों को glorify करने के बजाय, उनके निवारण और जीवन की प्रेरणादायक कहानियों पर ध्यान देना चाहिए।
सामाजिक सहयोग तंत्र का निर्माण : एन.जी.ओ., धार्मिक संस्थाएँ और सामाजिक संगठन आत्महत्या रोकथाम हेल्पलाइन, काउंसलिंग शिविर, और सामूहिक संवाद सत्र आयोजित करें।
जैन दृष्टिकोण से जीवन की महत्ता : जैन दर्शन में आत्महत्या को अत्यंत घोर पाप माना गया है, क्योंकि यह अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध है। आत्मघात केवल शरीर की नहीं, आत्मा की साधना में व्यवधान उत्पन्न करता है । “जीवो न हन्तव्यः, स्वयमपि न हन्तव्यः” अर्थात् – न तो किसी जीव की हत्या करनी चाहिए, न स्वयं की। जीवन ईश्वर की अमूल्य देन है, जिसे संघर्ष और संयम के साथ आगे बढ़ाना ही सच्चा पुरुषार्थ है।
समाज की जिम्मेदारी :आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति केवल व्यक्ति या परिवार की समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज की सामूहिक विफलता का द्योतक है। समाज का प्रत्येक सदस्य, प्रत्येक संस्था और प्रत्येक संगठन इस दिशा में अपनी भूमिका निभा सकता है।समाज को ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जहाँ असफलता या दुःख को कलंक नहीं, बल्कि एक सामान्य मानवीय स्थिति के रूप में देखा जाए। किसी भी व्यक्ति की भावनात्मक पीड़ा को उपहास या आलोचना का विषय न बनाया जाए।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की भूमिका :
मंदिरों, मठों, गुरुकुलों और सांस्कृतिक संस्थानों को युवाओं में आध्यात्मिक शिक्षा और जीवन मूल्यों की भावना जगाने का कार्य करना चाहिए। जीवन के प्रति श्रद्धा और आत्मा की पवित्रता का बोध ही आत्महत्या की प्रवृत्ति का स्थायी समाधान है।
समानुभूति और सहयोग की संस्कृति : समाज तभी स्वस्थ होगा जब वह स्पर्धा नहीं, सहानुभूति की संस्कृति अपनाएगा। जरूरतमंदों को सहयोग देना, उनकी भावनाओं को सम्मान देना और कठिन समय में उनके साथ खड़े रहना समाज की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
उपसंहार : आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि सभी संभावनाओं का अंत है।
युवाओं को यह समझना होगा कि असफलता, हानि या निराशा – जीवन के केवल अध्याय हैं, न कि समापन पृष्ठ। संघर्ष ही सफलता का जनक है।
अतः जीवन के प्रत्येक क्षण को सकारात्मक सोच, आत्मविश्वास और अध्यात्मिक दृष्टि से जीना ही सच्चा निवारण है।
समाज यदि अपनी जिम्मेदारी को समझे और निभाए तो कोई भी युवा निराशा की अंधेरी सुरंग में नहीं गिरेगा। जब परिवार, शिक्षक, मित्र और समाज एक साथ मिलकर “जीवन का सम्मान” करने का संदेश देंगे, तब आत्महत्या की प्रवृत्ति अपने आप कम हो जाएगी। “जीवन की राह कठिन हो सकती है, परंतु जीवन स्वयं सबसे सुंदर उपहार है। उसे सहेजिए, सजाइए और समर्पित कीजिए – आत्मोन्नति की दिशा में।”
डॉ. सुनील जैन ‘संचय’, ललितपुर












