परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज न केवल श्रमण संस्कृति के दैदीप्यमान नक्षत्र थे बल्कि पूरी भारतीय संस्कृति को उन्होंने अपनी साधना के बल गौरवान्वित किया । अध्यात्म सरोवर के राजहंस, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के महानद, साधना के सुमेरू, भारतीय संस्कृति के अवतार, संत शिरोमणि महाकवि आचार्य श्रेष्ठ विद्यासागर जी महाराज दिगम्बर जैन परंपरा के ऐसे महान संत थे, जो सही मायने में साधना, ज्ञान, ध्यान व तपस्यारत होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर सतत अग्रसर रहे।
दिगम्बर जैन परम्परा के सर्वमान्य संत शिरोमणि आचार्य भगवन् विद्यासागर महाराज ने 77 वर्ष की आयु में छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में श्री दिगंबर जैन तीर्थ चंद्रगिरि में तीन दिन के उपवास पूर्वक 17 और 18 फरवरी की मध्यरात्रि में 2:30 पर समाधि पूर्वक नश्वरदेह को त्याग दिया है । उनकी साधना अद्वितीय थी ।
पीएम मोदी ने बताया अपूरणीय क्षति, हुए भावुक :
आचार्य विद्यासागर महाराज के ब्रह्मलीन होने की खबर मिलते ही पीएम नरेंद्र मोदी ने दुख व्यक्त करते हुए इसे अपूरणीय क्षति बताया है। पीएम ने लिखा कि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज जी का ब्रह्मलीन होना देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। लोगों में आध्यात्मिक जागृति के लिए उनके बहुमूल्य प्रयास सदैव स्मरण किए जाएंगे। वे जीवनपर्यंत गरीबी उन्मूलन के साथ-साथ समाज में स्वास्थ्य और शिक्षा को बढ़ावा देने में जुटे रहे। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे निरंतर उनका आशीर्वाद मिलता रहा।
आचार्य श्री विद्यासागर जी 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा में शरद पूर्णिमा को जन्मे थे. उनके बचपन का नाम विद्याधर था. उन्होंने 30 जून 1968 को अजमेर में मुनि दीक्षा ली. 22 नवंबर 1972 को उन्हें आचार्य पद मिला था. उन्हें आचार्य ज्ञान सागर जी ने दीक्षा दी थी।
महापुरूष के विशाल कृतित्व से भारतीय साहित्य हुआ समृद्ध : आज तक के इतिहास में किसी भी संस्कृत के विद्वान ने पांच शतक से ज्यादा संस्कृत भाषा में नहीं लिखे हैं किंतु आचार्यश्री ने अपनी लेखनी से संस्कृत भाषा में छह शतक लिख एक नूतन इतिहास की संरचना की है। आपने ज्ञान, ध्यान, तप के यक्ष में अपने आपको ऐसा आहूत किया कि अल्पकाल में ही प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, कन्नड भाषा के मर्मज्ञ साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये। आपने प्राचीन जैनाचार्यों के 25 प्राकृत-संस्कृत ग्रंथों का हिंदी भाषा में पद्यानुवाद कर पाठकों को समरसता प्रदान की है। आपके द्वारा रचित हिन्दी भाषा में लघु कविताओं के चार संग्रह गं्रथ- नर्मदा का नरम कंकर, तोता क्यों रोता , डूबोमत लगाओ डुबकी, चेतना के गहरा में, ये कृतियां साहित्य जगत् में काव्य सुषमा को विस्तारित कर रही हैं।
पंचमकाल का आश्चर्य थी उनकी कठोर- चर्या :
वर्तमान समय में आचार्यश्री का संघ सम्पूर्ण देश का सबसे बड़ा दिगम्बर जैन साधु संघ है, संघ में संघ के नाम का कोई वाहन आदि नजर नहीं आता। टीवी, मोबाइल, लैपटॉप आदि आधुनिक सुविधा साधु के कमरे में नहीं दिखती। संघ में सभी संत, साधु शिक्षित, संस्कारी, बाल ब्रह्राचारी हैं।
विहार के समय भक्तगण बड़ी संख्या में मार्ग में चौका लगाकर आहारदान देते थे और पुण्य लाभ लेकर साथ-साथ हजारों का जनसैलाव चलता था। महत्वपूर्ण बात यह है कि इनके संघ में संघपति की तो बात दूर है, कोई भी निजी चौका लेकर साथ नहीं चलता, चौका कितना आसान मात्र दाल-फुलका, न सब्जी, न फल, न घी, क्या लिखें, क्या न लिखें? जहां-जहां संघ का प्रवास होता था, वहां-वहां सैकड़ों की संख्या में लोग चौका लगाने उमड़ पड़ते थे। चाहे कितनी ही तेज गर्मी हो या कितनी ही कड़कड़ाती ठंड, संघ के किसी साधु के कमरे में कूलर, एसी, हीटर देखने को नहीं मिलते। न पंखे का उपयोग करते, न ही मच्छर भगाने वाले किसी ऑयल या कायल का उपयोग करते, धन्य है ऐसी साधना। किसी तरह के तंत्र, मंत्र , ताबीज आदि की क्रियाओं से आचार्यश्री का संघ अछूता है।
जब तक सृष्टि के अधरों पर , करूणा का पैगाम रहेगा।
तब तक युग की हर धड़कन में, विद्यासागर का नाम रहेगा।।
नारी शिक्षा और संस्कारों के लिए आपकी प्रेरणा से वर्तमान में संचालित “प्रतिभास्थली” शिक्षण संस्थायें परम्परा और आधुनिक शिक्षण संस्थाओं की समन्विति का एक आदर्श प्रतिरूप हैं । नई शिक्षा नीति 2020 का निर्धारण करने वाली समिति के अध्यक्ष डॉ. कस्तूरीरंगन ने आपके निकट जाकर शिक्षा नीति निर्धारण हेतु विशेष मार्गदर्शन प्राप्त किया था । महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद , प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी एवं प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी आदि अनेक गणमान्य राजनेता उनके चरणों में पहुँचकर राष्ट्र के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करते थे । आचार्यश्री का मूलमंत्र था – “इंडिया छोड़ो भारत बोलो ” । उनका संदेश था कि भारत की प्रचीन संस्कृति,शिक्षा और परम्पराओं पर हमें गौरव करना चाहिए और उनका अनुकरण करना चाहिए ।
आचार्यश्री चलते फिरते तीर्थ थे। उनके तेज दमकते हुए आभामंडल और मुस्कान को देखकर हजारों लोगों के दुख दूर हो जाते थे। आचार्यश्री के दर्शन जो भी करता था व धन्य हो जाता था। उनकी दिव्य देशना में जो अमृतवाणी झरती थी उसे पान कर हजारों लोगों की प्यास बुझती थी। आचार्यश्री की हर चर्या अतिशय-सी दिखती थी। उनकी दिव्य देशना में जो अमृतवाणी झरती थी उसे पान कर हजारों लोगों की प्यास बुझती थी।
श्रमण संस्कृति का सूर्य ! ऐसे युगदृष्टा शताब्दियों सहस्राब्दियों में कभी कभार जन्म लेते हैं
परम पूज्य जैन दिगम्बर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के विचार प्रकाश स्तंभ बनकर सदैव हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। समाधी नमन !