औरंगाबाद संवाददाता 21वीं शताब्दी में जैन धर्म के दिगंबरत्व साधना व चर्या की जब भी चर्चा होगी तो आचार्य श्रीप्रसन्न सागर का नाम आस्था और श्रद्धा के साथ लोगों की जुबां पर सबसे पहले होगा। आचार्यश्री ने पंचम काल में कठोर तपस्या और उपवास करके बता दिया कि साधु-संत चाहे किसी भी काल के हों, वो शरीर
वैराग्य पथ पर बढ़ते हुए आग उगलती दोपहरी हो या कड़कड़ाती ठंड मुनि श्री रत्नत्रय की बखूबी साधना कर रहे हैं। दीक्षा लेने से अब तक सिर्फ 35 साल में 3500 से ज्यादा उपवास कर चुके हैं। शाश्वत तीर्थराज सम्मेद शिखर की पावन धरा पर 557 दिनों के कालखंड में 496 दिन के निर्जल उपवास किये हैं जो चमत्कार से कम नहीं है। गुरुदेव की साधना को देखते हुए 29 नवंबर, को इन्हें संघ के आचार्य पद से सुशोभित किया गया। गुरुदेव के नाम अनगिनत रिकॉर्ड हैं। गिनीज बुक से लेकर इंडिया बुक, एशिया बुक हर जगह उनकी उपलब्धियों की गाथा है। इन सबसे विरत गुरूदेव अन्तर्मन की मौन साधना में तल्लीन हैं और इसलिए गुरुदेव उनके शिष्यों के लिए अन्तर्मना हैं।
गुरुदेव द्वारा रचित साहित्य भी अनुपम है। मेरी बिटिया, आचरण, भीतर का सच, सच है मित्र, पुष्प गिरी अर्घ, अन्तर्मना जैसी कृतियां
धार्मिक साहित्य के खजाने में नायाब रत्न हैं।
निस्पृह होकर मात्र आत्मा और परमात्मा के चिंतन में तल्लीन रहते हैं।
तपस्वी साधक, मनस्वी चिंतक, व्रत उपवासों के सम्मेद शिखर, इंद्रिय विजयी जैसी उपमाओं से सुशोभित आचार्यश्री वो विभूति हैं जिन्होंने भगवान महावीर और भगवान नेमिनाथ की विशुद्धचर्या, तप और मौन साधना को इस युग में साकार किया है।
मध्यप्रदेश में छतरपुर की धरा पर 23 जुलाई 1970 को जन्मे मुनिश्री भाई बहनों में सबसे बड़े थे। पिछले जन्मों के असीम पुण्यों और पारिवारिक धार्मिक संस्कारों के चलते मात्र 16 वर्ष की अवस्था में इनके मन में वैराग्य के बीज पनप गये थे। फलस्वरूप 1986 में गृहत्याग कर वात्सल्य दिवाकर गणाचार्य श्रीपुष्पदंत सागर की निश्रा में रहने लगे।
अपने गुरुदेव के सान्निध्य में ब्रह्मचर्य जीवन अपनाकर तीन साल बाद महावीर जयंती पर मुनि दीक्षा धारण की और दिलीप से मुनि श्रीप्रसन्न सागर बन गए।
गुरुदेव द्वारा रचित साहित्य भी अनुपम
हैं। मेरी बिटिया, आचरण, भीतर का सच, सच है मित्र, पुष्प गिरी अर्ष, अन्तर्मना जैसी कृतियां धार्मिक साहित्य के खजाने में नायाब रत्न हैं। गुरुदेव के भक्तों के लिए वह पल चिंतामणि हाथ लगने जैसा होता है, जब वह उन्हें दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं। वहीं गुरुदेव की धीर-गंभीर मुद्रा में उनके अपने गुरु आचार्य श्रीपुष्पदंत सागर की छवि साकार होती है।
मुनि प्रसन्न सागर की यात्रा अभी शुरू हुई थी कि संयोग से इन्हें आचार्य पुष्पदंत सागर के साथ तपस्वी सम्राट आचार्य श्रीसन्मति सागर का भी आशीर्वाद मिला और दो आचार्यों की कृपा से इन्होंने श्रमण संस्कृति की ध्वजा को और मजबूत किया।
गुरुदेव प्रसन्न सागर देश के विभिन्न राज्यों में चातुर्मास करके अपनी अमृत वाणी से लाखों लोगों को लाभान्वित कर चुके हैं। सर्व धर्म सम्मेलन हो या अहिंसा संस्कार पदयात्रा गुरुदेव की वाणी ने हजारों युवाओं को धर्म से जोड़कर जिन धर्म की बड़ी प्रभावना की है।
वर्तमान में वह अपने 19 साधु-साध्वियों के साथ तेलंगाना की धरती पर हैदराबाद से 80 कि.मी. दूर अतिशय क्षेत्र कुलचारम में वर्षायोग करके ज्ञान पिपासुओं को ज्ञान की वर्षा कर रहे हैं।
नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल औरंगाबाद