विषम परिस्थितियों में समता भाव रखना ही सबसे बड़ी तपस्या है -मुनिश्री विलोकसागर

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विषम परिस्थितियों में समता भाव रखना ही सबसे बड़ी तपस्या है -मुनिश्री विलोकसागर
बड़े जैन मंदिर में चल रही है “समयसार” ग्रन्थ की वाचना

मुरैना (मनोज जैन नायक) विपरीत परिस्थितियों में मन की स्थिति को अनुकूल रखना भी एक साधना है । पूजा पाठ भक्ति अनुष्ठान व्रत उपवास तो कोई भी कर सकता है और करता भी है । वर्तमान में सांसारिक प्राणी इन्हीं सब को धर्म और तपस्या समझ रहा है । लेकिन सबसे बड़ी तपस्या मन को काबू में रखना है, विषम परिस्थितियों में समता भाव रखना ही सबसे बड़ी तपस्या है । अधिकांशतः प्राणी पाप कर्मों में लिप्त रहता है, दूसरों की निंदा करता है, दूसरों के खोट देखता है, दूसरों का बुरा सोचता है । बुरा सोचते सोचते वह अच्छे कार्यों से दूर होता चला जाता है । भौतिकवादी चकाचौध में मनुष्य ने पाप कर्मों से डरना छोड़ दिया है, लेकिन यही कर्म जब उदय में आते हैं तो करोड़पति को खाकपति बनने में देर नहीं लगती । कर्मों की मार मनुष्य का कचूमर निकाल देती है । इसलिए हमें बुरे कर्मों से डरना चाहिए, उनका पूर्णतः त्याग करना चाहिए । हमारे परिणाम बुरे है तो कर्म बुरे फल देगा और आपके परिणाम अच्छे हैं तो कर्म अच्छे फल देगा। कर्म की मार को सभी को झेलना होगा। जिसका भाग्य ही दुर्भाग्य में बदल गया हो उसे कोई क्या मारेगा, उसे तो उसके कर्म ही मारेंगे। मनुष्य अपने अवगुणों को नजरअंदाज करते हुए दूसरों के अवगुणों को देखता है, दूसरों के भावों को देखता है। हमें जो भी परिणाम मिलेगे अपने भावों की परिणीति से मिलेंगे। किसी अन्य के भावों की परिणीति से हमारा कल्याण होने वाला नहीं है। स्वयं के कर्मों को सुधारने से ही इस संसार सागर से मुक्ति मिल सकती है । उक्त उद्गार जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने बड़े जैन मंदिर में सिद्धांत ग्रन्थ “समयसार” की व्याख्या करते हुए व्यक्त किए ।
जैन धर्म कर्म सिद्धांत पर आधारित है ।
कर्म सिद्धांत की व्याख्या करते हुए जैन संत मुनिश्री विबोधसागरजी ने बताया कि जैन दर्शन कर्म सिद्धांत पर आधारित है । कर्म सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जो कहता है कि हर व्यक्ति अपने कर्मों (अच्छे या बुरे) के फलों के लिए स्वयं जिम्मेदार है, और इन कर्मों का प्रभाव वर्तमान और भविष्य में उसके जीवन को निर्धारित करता है। इसका मतलब है कि अच्छे कर्म अच्छे परिणाम लाते हैं, जबकि बुरे कर्म दुख का कारण बनते हैं। यह एक “जैसा बोओगे वैसा काटोगे” का सिद्धांत है । जैन धर्म के अनुसार, आत्मा के कर्मों का फल केवल आत्मा को ही भोगना पड़ता है।कोई भी तंत्र मंत्र गुरु भगवान, किसी को उसके कर्मों के फल से नहीं बचा सकता। स्वयं ही कर्मों की निर्जरा करके आत्मा को कर्मों के बंधनों से मुक्त होना पड़ता है।
“जब तक तेरे पुण्य का, बीता नहीं करार,”
अवगुण तेरे माफ हैं, चाहे करो हजार ।
पूर्वाचार्यों ने कहा है कि जब तक मनुष्य के पुण्य कर्मों का उदय चल रहा है, तब तक वह खूब मौज मस्ती करले, सभी सुखों को भोग ले, खूब अनीति, अनाचार और पाप करले, सभी माफ हैं, लेकिन जब पाप कर्मों का उदय आएगा तो तेरा बेड़ा गर्क हो जाएगा । इसीलिए अच्छे समय में भी हमें अच्छे कर्म ही करना चाहिए, ताकि जीवन में, भविष्य में दुखों का सामना न करना पड़े ।
कर्मों के अनुरूप ही मिलता है फल
कर्म का फल मुख्य रूप से ईश्वर ही देता है, क्योंकि वही सबसे न्यायप्रिय और सर्वशक्तिमान है। ईश्वर भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं करता । वह भी आपको कर्मों के फलस्वरूप ही परिणाम देता है । ईश्वर ही कर्मों का अंतिम और सबसे सच्चा फलदाता है, क्योंकि वह सभी के कर्मों का पल पल का लेखा जोखा रखता है । वह अदृश्य शक्ति, वह सर्व शक्तिमान बिना किसी भेदभाव व बिना किसी पक्षपात के सभी को उनके कर्मों के अनुरूप उचित फल देता है । अपने अच्छे, बुरे भावों और विचारों से ही जीवन शांत-अशांत और सुख, दुःख का कारण बनता है। परिणामों का खेल बड़ा विचित्र है, क्योंकि स्वर्ग, नरक से लेकर मोक्ष तक की स्थिति में भी परिणामों का प्रतिफल ही एकमात्र कारण है।

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