फागी संवाददाता
दिगम्बर जैन पट्टाचार्य 108श्री विशुद्ध सागर जी महाराज स संघ के पावन सानिध्य में विरागो दय पथरिया (म.प्र.) में अनेक धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं 31 जुलाई 2025 को
दिगम्बर जैन पट्टाचार्य 108 श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने भरी धर्म-सभा में श्रृद्धालुओं को सम्बोधन करते हुए कहा कि विश्व में अनेक देश हैं, अनेकानेक लोग हैं, सबके अपने-अपने विचार हैं, सभी प्राणी अपने- अपने अनुसार ही जीवन जीते हैं। एक व्यक्ति प्रातः उठकर प्रभु दर्शन को जाता है और उसी समय एक व्यक्ति हिंसक कार्य करता है। एक व्यक्ति दान करता है और एक व्यक्ति चोरी करता है। एक बेटा माँ की सेवा करता है, एक बेटा माँ को घर से निकाल देता है। समय, शक्ति, बुद्धि, मानव कुल, धन-धरती सबको प्राप्त है, परन्तु सभी स्व-स्व बुद्धि से प्रयोग करते हैं।
संयमी की पूजा होती है, ज्ञानी का सम्मान होता है, विद्वान् का सत्कार होता है, परिश्रमी की प्रशंसा होती है। व्यक्ति को प्रतिपल उन्नति के लिए पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। जीवन भर अपने यश की रक्षा कर लेना, पुरुषार्थ साध्य है।
कच्चा माल ही पक्का होता है। पापी ही पाप छोड़कर धर्म-मार्ग पर आगे बढ़ता है। आटे से ही रोटी बनती – है। है। आटा ही फेंक देंगे तो रोटी कैसे बनेगी? पापी को ही मार दोगे तो पाप छोड़कर धर्मात्मा कौन बनेगा। गर्भ की ही रक्षा नहीं करोगे, तो सन्तान कहाँ से जन्म लेगी? धर्मात्मा के बिना धर्म नहीं होता हैधर्म-संस्कृति की रक्षा करना है, तो धर्मात्मा की रक्षा करो। संतान संस्कारित होगी तो धर्म-संस्कृति का विकास होगा। बीज की रक्षा करो, बीज के अभाव में वृक्ष भी नहीं होंगे।आयु पूर्ण होते ही मृत्यु हो जाती है। मरण हो उसके पहले कुछ अच्छा कार्य करलो । वर्तमान का पुरुषार्थ ही भविष्य का निर्माण करता है। ध्यान-साधना से कर्मों का क्षय होता है। ध्यान आलौकिक-साधना है,जो सूर्य के समान आत्म तेज से देदीप्यमान है, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य, व अनन्त ज्ञान स्वरूप है, सम्पूर्ण संसार का उपकार करने वाला है, आनन्द रूप है, ऐसा आत्मा ही सम्यग्दृष्टि सज्जनों के द्वारा ध्यान करने योग्य है। जो था, है और स्मेशा चैतन्यमयी रहेगा वही आत्मा है।
“समता ही साधुता की पहचान”
सच्चा-साधक मात्र आत्म-शुद्धि, आत्म-कल्याण के लिए तपस्या करते हैं। साधना न सम्मान के लिए, न मान के लिए, मात्र और मात्र आत्मोत्थान के लिए करो। सच्चा- संयमी, सच्चा साधु वही है जो उपसर्ग कर्ता को उत्कर्ष कर्ता की दृष्टि से देखे । समता भाव ही साधुता है। जिसका शत्रु – मित्र, लाभ- अलाभ, जीवन-मरन, सुख- दुःख में समभाव हो वही सच्चा- साधक होता है।
जो पक्षपात करे, वह साधुता से शून्य है। जिसके अन्दर क्रोध की ज्वाला भभक रही हो, वह साधु नहीं । शांत भाव धारण करे, वह साधु है। सहज, सरल परिणाम ही साधुता है। महासुनि पार्श्वनाथ ने, समता पूर्वक उपसर्ग सहन किया तो सिद्धत्व की प्राप्ति हो गई। जो सहन करता है, वही श्रेष्ठ बनता है। श्रेष्ठ, ज्येष्ठ बनना है तो सहन करना सीखो । सहन करोगे तो दुनिया तुम्हारा सम्मान करेगी। बनना है, तो सहन करो। संसार-सागर से तरना है, तो सहना सीखो ।
2802 वां निर्वाण महा महोत्सव
दिगंबर जैन मंदिरों में जैन धर्म की श्रमण संस्कृति के तेईसवें तीर्थंकर भगवान 1008 श्री पार्श्वनाथ भगवान का निर्वाण (मोक्ष) महोत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। ज्ञात हो कि श्री पार्श्वनाथ महामुनिराज का शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर (झारखंड) से भी बड़ा था। आज अधिकांश जैन धर्मावलंबी निर्जला उपवास रखते हैं।
संकलन:- श्रमण मुनि सुव्रत सागर जी महाराजय
राजाबाबू गोधा जैन गजट संवाददाता राजस्थान