जैन समाज की पहचान सदियों से अहिंसा, अपरिग्रह, संयम, तप और एकता रही है। यह वह समाज है जिसने अपने आदर्शों से मानवता को दिशा दी है, जिसने सत्य और करुणा के दीपक जलाकर विश्व में शांति का संदेश फैलाया है। परंतु आज हमें गहराई से आत्ममंथन करना होगा कि कहीं यह दीपक धीरे-धीरे बुझता तो नहीं जा रहा?
आज का कठोर सत्य यह है कि जैन समाज भीतर से टूटन और विघटन की ओर अग्रसर है। पद की लालसा, नाम की भूख और अहंकार की आग ने हमारे साधु-संतों और समाज को अपनी चपेट में ले लिया है। साधु और संघ के बीच जो त्याग, तप और मर्यादा का आदर्श होना चाहिए था, उसकी जगह अब प्रतिस्पर्धा, विरोध और कटुता ने ले ली है।
आलीशान पांडाल, करोड़ों का दिखावटी व्यय, सत्ता और प्रतिष्ठा की होड़ — यह सब देखकर लगता है जैसे हम धर्म का नहीं, किसी बाज़ार का प्रदर्शन कर रहे हों। जिन मंचों से माँ जिनवाणी की दिव्य गूँज निकलनी चाहिए, वहीं से कटु वाणी, अपशब्द और साधर्मियों का अपमान सुनाई देता है। यह दृश्य देखकर आत्मा व्याकुल हो उठती है।
“मैं बड़ा, वह छोटा” की मानसिकता ने समाज में गहरी दरार डाल दी है। संकीर्ण विचारधाराओं और नए-नए पंथों के उदय ने मूल धर्म की जड़ों को हिलाना शुरू कर दिया है। यही कारण है कि सोशल मीडिया पर दिन-प्रतिदिन विवाद, झगड़े और कांड प्रसारित हो रहे हैं, जिससे जैन धर्म की गौरवमयी छवि धूमिल हो रही है।
सच्चाई यह है कि आज हर कोई अपनी रोटी सेकने में व्यस्त है। किसी को भी यह चिंता नहीं कि जैन संस्कृति, पुरातत्व, परंपरा और मूल धर्म की रक्षा कैसे होगी। यदि यह प्रवृत्ति ऐसे ही चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जब समाज टुकड़ों में बंटकर बिखर जाएगा और इतिहास हमें एक चेतावनी के रूप में याद करेगा।
परंतु अभी भी समय हाथ से निकला नहीं है। यदि हम चाहें तो अपने समाज को टूटने से बचा सकते हैं। आवश्यकता है –
• साधु-संतों में पद की नहीं, साधना की महिमा हो।
• आलिशान खर्चों के स्थान पर शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कारों में निवेश हो।
• मंचों से अपमान नहीं, बल्कि शांति, सत्य और करुणा का संदेश गूँजे।
• संकीर्णता को छोड़कर समन्वय और सर्वजनीन दृष्टिकोण अपनाया जाए।
याद रखो – हमारे पूर्वजों ने इस धर्म की नींव त्याग और तपस्या की आग में तपाकर रखी थी, न कि अहंकार और दिखावे के रंगमंच पर। यदि हम वास्तव में धर्म के उत्तराधिकारी कहलाना चाहते हैं तो हमें भी उस मार्ग पर चलना होगा जिस पर भगवान महावीर और आचार्यों ने समाज का नेतृत्व किया था।
हे जैन समाज!
अब समय आ गया है कि हम एकता, नम्रता और आत्ममंथन को अपना मार्ग बनाएं। विभाजन और अहंकार की ज्वाला को त्यागकर यदि हम प्रेम, शांति और धर्म की ज्योति जलाएँगे, तभी आने वाली पीढ़ियाँ गर्व से कह सकेंगी –
“हम जैन हैं, और हमने अपने धर्म की पवित्रता को बचाकर रखा है।”
यदि ऐसा न हुआ, तो इतिहास की धूल में हमारा अस्तित्व लुप्त हो जाएगा और भविष्य हमें केवल एक चेतावनी की कहानी के रूप में याद करेगा। इसलिए जागो, संभलो और धर्म की रक्षा हेतु एक हो जाओ। यही समय की पुकार है।