दशहरा एक सच्चे अर्थ में विजयादशमी बन पाएगा जब-जब हम अपने भीतर के अहंकार, वासना और लोभ को परास्त करेंगे, आदर्श और मूल्यों का प्रतीक , धर्म का पालन, सत्य और न्याय के लिए संघर्ष , मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा गुणों को पहचानें समाज में अहंकार, हिंसा, वासना और अन्य बुराइयाँ लगातार बढ़ रही हैं उनका संहार करने का साहस दिखाएँ। पुतलों का दहन नहीं, मन और समाज के भीतर छिपी बुराइयों का संहार ही दशहरे का असली संदेश है महाज्ञानी, शिवभक्त और शूरवीर भी अपनी एक गलती—वासना और अहंकार—के कारण विनाश को प्राप्त हुआ।आज के दौर में हमारे बीच, हमारे आस-पास, हमारे भीतर मौजूद है। समाज में अपराध, बलात्कार, हत्या, दहेज हिंसा, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और नशे की लत जैसी घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। रिश्तों का पतन भी चिंता का विषय है—मां-बाप, भाई-बहन, यहाँ तक कि बच्चों तक की हत्या की खबरें आए दिन सामने आती हैं। आज का इंसान ज्यादा पढ़ा-लिखा और आधुनिक है,लेकिन बुराइयाँ भी उतनी ही तेज़ी से पनप रही हैं।आँखों में उत्सव का रोमांच दिखाई देता है। पटाखों की गड़गड़ाहट,आतिशबाज़ी की चमक और भीड़ का शोर इस पर्व को एक रंगीन उत्सव में बदल देता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस पूरे आयोजन का संदेश—बुराई पर अच्छाई की जीत—हमारे जीवन और समाज में कहीं उतर पाता है, बल्कि हमें आत्ममंथन और सामाजिक सुधार का अवसर देने के लिए शुरू हुआ था। दशहरा हमें यही याद दिलाने आता है कि यदि बुराई चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः उसका नाश निश्चित है।
आज के दौर का सबसे बड़ा संकट यह है कि समाज बुराइयों के प्रति संवेदनहीन होता जा रहा है। हर दिन अख़बारों में दुष्कर्म, हत्या और भ्रष्टाचार की खबरें छपती हैं,लेकिन हम उन्हें सामान्य मानकर टाल देते हैं। पुतला जलाने के बाद हम चैन से घर लौट आते हैं, मानो बुराई का अंत हो चुका हो। दशहरे का पर्व हमें यह याद दिलाने के लिए है कि बुराइयाँ कितनी भी ताकतवर क्यों न हों, उन्हें मिटाना ही होगा। लेकिन केवल पुतले जलाने से बुराइयाँ खत्म नहीं होंगी। हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने जीवन से कम-से-कम एक बुराई को अवश्य दूर करेंगे। दशहरे का संदेश तभी सार्थक होगा जब समाज सामूहिक रूप से भ्रष्टाचार, हिंसा, नशाखोरी, दहेज और महिला शोषण जैसी बुराइयों के खिलाफ खड़ा होगा।
दशहरा हमें अवसर देता है कि हम रुककर सोचें—क्या हम अपने भीतर पहचान पा रहे हैं, क्या हम अपने जीवन से एक भी बुराई कम कर पाए हैं, क्या हम समाज को बेहतर बनाने के लिए कोई ठोस कदम उठा रहे हैं,यदि इन सवालों का जवाब नहीं है,तो हमें स्वीकार करना होगा कि पुतला दहन केवल एक परंपरा बनकर रह गया है। हर इंसान के भीतर अहंकार, क्रोध, वासना, ईर्ष्या और लालच मौजूद हैं। जब तक इनका दहन नहीं होगा, तब तक समाज में शांति और न्याय संभव नहीं।
यही समय है कि हम समाज से अपराध, छल-कपट और अन्य अधर्म को मिटाने का संकल्प लें तभी दशहरा वास्तव में विजयादशमी बन सकता है।

टीकमगढ़ म.प्र.
मो .9425436666