वात्सल्य वारिधि आचार्य वर्द्धमानसागर जी महाराज के 36 वे आचार्य पदारोहण 27 जून 2025 पर विशेष : चारित्र चक्रवर्ती परंपरा के पंचम पट्टाचार्य आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज का अविस्मरणीय योगदान
(त्याग- तपस्या की प्रतिमूर्ति आचार्यश्री )

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भारतीय संस्कृति के उन्नयन में श्रमण संस्कृति का महनीय योगदान है। श्रमण संस्कृति के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है । इस गौरवमयी श्रमण परंपरा में परम पूज्य आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज का अहम योगदान है।
हम सभी का परम सौभाग्य है कि परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की महान परंपरा के पट्टाचार्य का दर्शन लाभ प्राप्त हो रहा है। आपका संघ त्याग तपस्या के लिए पूरे भारत में विख्यात है। संघ में आपका अनुशासन देखने योग्य है। आपकी वाणी से हजारों-हजार प्राणियों का कल्याण हो रहा है। आपका सभी के प्रति वात्सल्य भाव अनूठा है। कोई भी आपके चरणों में पहुँच जय, बस आपका होकर रह जाता है। आपकी सबसे बड़ी विशेषता है कि आप किसी की निंदा, आलोचना कभी नहीं करते, न ही किसी विवादास्पद चीजों में पड़ते हैं।
संयम, साधना और श्रद्धा की त्रिवेणी जब किसी संत के जीवन में सजीव रूप ले ले, तब वह व्यक्तित्व सामान्य नहीं रह जाता। वह बन जाता है — युगपुरुष, दिशानायक और लोकपथ-प्रदर्शक। दिगंबर जैन धर्म की चारित्र परंपरा में एक ऐसा ही तेजस्वी, करुणामय और प्रेरणास्पद व्यक्तित्व हैं — वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी महाराज, जो आज के युग में संयम और समर्पण के जीवंत प्रतीक हैं।
बचपन से वैरागी :
परम पूज्य आचार्य श्री 108 वर्धमानसागर जी महाराज का गृहस्थ अवस्था का नाम यशवंत कुमार था . श्री यशवंत कुमार का जन्म मध्य प्रदेश के खरगोन जिले के सनावद ग्राम में हुआ। श्रीमती मनोरमा देवी एवं पिता श्री कमलचंद्र जैन पंचोलिया के जीवन में इस पुत्र रत्न का आगमन दिनांक 18 सितम्बर सन 1950 को हुआ. आपने बी.ए. तक लौकिक शिक्षा ग्रहण की, सांसारिक कार्यों में आपका मन नहीं लगता था। प्रारंभ से ही उनमें वैराग्य की चिंगारी, ज्ञान की ललक और करुणा की संवेदना दिखने लगी थी। सांसारिक सुखों को असार जानकर उन्होंने ब्रह्मचर्य की ओर कदम बढ़ाया। युवावस्था में ही दीक्षा लेकर वे मुनि व्रतों में प्रवृत्त हुए और कठोर तप में रत हो गए।
“ना प्यास रही ना धूप रही,
जब तप में तन्मयता रूप रही।”
उनकी आरंभिक साधना में ही गुरुजनों ने उनके भीतर तपस्विता, संयमशक्ति और आगम-निष्ठा के बीज देख लिए थे। 18 वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज से आपने मुनि दीक्षा ग्रहण की, श्री शांतिवीर नगर, श्री महावीर जी में मुनि दीक्षा लेकर आपको मुनि श्री वर्धमानसागर नाम मिला. चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की परम्परा के पंचम पट्टाधीश होने का आपको गौरव प्राप्त है।
आचार्य श्री वर्धमानसागर जी अत्यंत सरल स्वभावी होकर महान क्षमा मूर्ति शिखर पुरुष हैं, वर्तमान वातावरण में चल रही सभी विसंगताओं एवं विपरीतताओं से बहुत दूर हैं, उनकी निर्दोष आहार चर्या से लेकर सभी धार्मिक किर्याओं में हम आज भी चतुर्थ काल के मुनियों के दर्शन का दिग्दर्शन कर सकते हैं।
नमस्कार से चमत्कार :
चमत्कार को नमस्कार नहीं, बल्कि नमस्कार में छुपा हुआ होता है अगर भक्ति निष्काम हो तो | आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज जब मुनि अवस्था में थे तब दीक्षा के उपरांत महाराज की नेत्र ज्योति चले गई थी , तब उन्होंने जयपुर (खानिया जी ) के चन्द्रप्रभु मंदिर में शांति भक्ति का पाठ किया था तब 52 घंटो के बाद नेत्र ज्योति वापस आई थी।
वात्सल्य वारिधि : उनकी वाणी में करुणा है, दृष्टि में करुणा है, व्यवहार में ममत्व है, और प्रवचन में आत्मीयता। इसलिए उन्हें समग्र जैन समाज ने इस उपाधि से सुशोभित किया।
शास्त्रज्ञान और तत्त्वचिंतन की गहराई : आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी—समयसार, गोम्मटसार, मूलाचार,प्रवचनसार, तत्त्वार्थसूत्र, अष्टपाहुड़ जैसे आगम ग्रंथों के ज्ञाता हैं। वे ज्ञान और भावना का समन्वय करते हैं।उनके प्रवचन न तो केवल भाषण होते हैं और न ही केवल पाठ — बल्कि आत्मा को झकझोरने वाले संवाद होते हैं।
“जो जीवन में जैनागम को उतारे,
वही गुरु है जो आत्मा को संवारे।”
चारित्र चक्रवती प्रथमचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज की अक्षुण्ण पट्टपरम्परा के चतुर्थ पट्टाचार्य श्री 108 अजितसागर जी महाराज पत्र के माध्यम से लिखित आदेश अनुसार पारसोला राजस्थान में 24 जून 1990 आषाढ़ सुदी दूज को आचार्य पद गुरु आदेश अनुसार दिया गया।
दीक्षाएं : शिष्य निर्माण: आत्मा से आत्मा का संवाद -आचार्यश्री के शिष्य मंडल में मुनि, आर्यिका, एलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका और संयमियों की लंबी परंपरा है। वे शिष्यों के चयन में कठोर होते हैं, पर प्रशिक्षण में अत्यंत प्रेममयी। उनके लिए संयम एक संस्कार की प्रक्रिया है, न कि केवल व्रतों की खानापूर्ति।
आचार्य श्री वर्धमानसागर जी गुरुदेव ने अभी तक 116 दीक्षाएं देकर श्रमण संस्कृति को महनीय अवदान दिया है।
मुनि दीक्षा 41
आर्यिका 45
एलक 02
क्षुल्लक 15
क्षुल्लिका 13
सल्लेखना समाधि :
वात्सल्य वारिधि यथा नाम तथा गुण यह पंक्ति आप पर चरितार्थ होती है । आप साधुओ की सल्लेखना इतने वात्सल्य भाव मनोयोग करुणा भाव से कराते हैं कि हर श्रावक- श्राविका साधु की यही कामना होती है कि उनका उत्कृष्ट समाधिमरण आपके सान्निध्य में हो ।
पंच कल्याणक प्रतिष्ठा :
आचार्य पद के बाद 60 से अधिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आपके सान्निध्य में हुई हैं।
प्रभावनामयी चातुर्मास :
आचार्यश्री ने 12 राज्यों राजस्थान, दिल्ली ,हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक ,तमिलनाडु, झारखंड, बिहार ,बंगाल व मध्यप्रदेश में ये मंगल प्रभावनामयी चातुर्मास किये हैं।
विहार शैली: लोकजागरण का माध्यम : वे आज भी अपने संघ के साथ वर्षभर पदविहार करते हैं। तपती धूप, वर्षा और ठंडी हवाओं के बीच उनके चरणों से निकले हजारों किलोमीटरों के विहार आज के लिए संयम की जीवंत कक्षा हैं।
वर्तमान युग में प्रासंगिकता : जब आज का समाज भौतिकता में डूब रहा है,नैतिकता से भटक रहा है, और युवापीढ़ी दिशाहीन हो रही है, तब आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी जैसे संत मार्गदर्शक बनकर कहते हैं: ”जो भोगों के पीछे भागता है, वह आत्मा को खो देता है।जो आत्मा को साधता है, उसे सब प्राप्त हो जाता है।”
गोमटेश्वर महामस्तकाभिषेक में तीन बार सानिध्य :
उल्लेखनीय है कि श्रवणबेलगोला कर्नाटक में बाहुबली भगवान के सुप्रसिद्ध महामस्तकाभिषेक में वर्ष 1993, 2006 एव वर्ष 2018 में प्रमुख नेतृत्व दिया गया। श्री श्रवणबेलगोला महामस्तकाभिषेक में भारत के राष्ट्रपति जी , प्रधानमंत्री जी
मुख्यमंत्री जी,राज्यपाल सहित अनेक वरिष्ठ राजनेताओं ने आशीर्वाद प्राप्त कर जीवन को धन्य बनाया।
अचार्यश्री से जुड़े विशेष उल्लेखनीय तथ्य :
1 . पानी की व्यवस्था गुजरात में आहार के लिए पानी कुए का पानी लबालब हुआ।
2 . श्रवणबेलगोला में 1993 में मूसलाधार वर्षा से पानी की समस्या दूर ।
3,. कोथली में प्रवेश के पूर्व नदी- नाले,कूप पानी से लबालब।
4. कमंडल के पानी से श्रावक बालक को नया जीवन मिला।
5. 13 का अशुभ अंक बना शुभ- आपके जन्म के पूर्व 8 भाई और चार बहनों ने जन्म लिया जो काल के ग्रास बने। 13 वी संतान का अंक आपके जन्म से शुभ बना और आप जगत के तारणहार हो गए
मानव से महामानव हो गए। आप के बाद चौदहवीं संतान भी बाद में जीवित नहीं रही।आप माता-पिता की एकमात्र जीवित संतान हैं।
6.पैर में चक्र :कनक गिरी में आपके पैर में कष्ट होने पर भट्टारक स्वामी जी ने देखा कि आपके पैर में चक्र है जो कि इस बात का सूचक है कि आचार्य श्री वर्धमानसागर जी के द्वारा जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और बहुत प्रभावना होगी ।
7. अद्भुत संयोग: बारह संतानों के निधन के कारण
माता-पिता ने श्री महावीरजी में उल्टा स्वस्तिक बनाकर उनके लंबे जीवन की कामना की थी, यह संकल्प किया था कि इनके जन्म के बाद इनके बाल उतारेंगे इनके बाल निकालेंगे। संयोग कहें कि इनकी मुनि दीक्षा वही श्री महावीरजी में हुई और उनके केशलोच हुए।
8. पद के प्रति उदासीनता । उपाध्याय पद लेने से इनकार।
9. अचार्यश्री का प्रमुख संदेश समाज में कैंची नहीं सुई बनकर रहो। जहाँ जो परंपरा चल रही है उससे छेड़छाड़ न करें।
10. अपूर्व वात्सल्य : इचलकरंजी सहित अनेक नगरों की समाज को एक किया । बीमार श्रावक को दर्शन देने स्वयं चलकर गए । टोडारायसिंह में दिगंबर श्वेतांबर समाज को एक किया।
11. कोई प्रोजेक्ट नहीं। पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी के नाम पर कोई क्षेत्र या गिरी नही है । श्रावक के दान का सदुपयोग हो यही उनकी मंगल प्रेरणा रहती है।
12. पूर्वाभास : पूर्वाभास के कारण एक स्थान पर रात्रि विश्राम नहीं किया। मैरिज गार्डन के कारण कुछ श्रावको ने वहां विश्राम किया। उस गांव के बारूद फैक्ट्री में अचानक आग लगती है और सभी श्रावक रात्रि में आचार्यश्री के पास पहुंचते हैं। तब पता लगता है कि रात्रि को गांव में आग लग गई थी और जान माल का खतरा हो गया था।
वर्तमान के वर्द्धमान : आचार्य श्री वर्द्धमानसागर वर्तमान के वर्द्धमान के समान साधना और प्रभावना कर रहे हैं। उनके जीवन की बहुत विशेषताएं हैं। वे परिस्थितियों के सामने झुके नहीं, उपसर्गों व परीषहों से वे डरे नहीं और रुके नहीं, निरंतर गतिमान उनका जीवन रहा है और आदर्शमय चारित्र के द्वारा जहां एक ओर धर्म की प्रभावना की उसके साथ ही उन्होंने आदर्श जीवन को रखकर हम सब का मार्गदर्शन कर रहे हैं। उनका मार्ग आगम सम्मत ही होता है। हमारी संस्कृति की सुरक्षा में उनका अविस्मरणीय अवदान है।
विचार और आचार की क्रिया विधि रूप जीवन शैली में अद्भुत सहजता है आचार्यश्री वर्द्धमान सागर जी में, इसीलिए वे वात्सल्य वारिधि हैं एवं विचार और आचार परिशुद्धि में निरंतर वर्द्धमान।
आचार्यश्री का समन्वय का सूत्र : आचार्यश्री का कहना है कि मैं अपनी क्रिया छोडूंगा नहीं और आपको अपनी क्रिया करने के लिए बाध्य भी नहीं करूंगा। यह समन्वय का सूत्र उन्होनें दिया है। आज समाज में जो अनेक विसंगतियां देखने को मिल रहीं हैं यदि आचार्यश्री के इस समन्वय सूत्र को अपना लें तो विसंगतियों पर विराम लग सकता है।
आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी श्रमण परम्परा व धर्म और संस्कृति की ध्वजा निरंतर लहरा रहे हैं ।
मेरा सौभाग्य रहा है कि पूज्य आचार्यश्री का मङ्गल आशीर्वाद मुझे अनेकों अवसरों पर मिला है तथा उनके सान्निध्य में आयोजित विद्वत संगोष्ठियों का संयोजन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ तथा पुरस्कार समर्पण समारोह में भी संयोजन करने का सुअवसर मिला है।
परम पूज्य आचार्यश्री की प्रेरणा से यह वर्ष चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज आचार्य पद पदारोहण शताब्दी वर्ष के रूप में पूरे देश में मनाया जा रहा है। इसके पूर्व सन 2019 में मुनि दीक्षा शताब्दी वर्ष भी आपकी प्रेरणा से राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया था, जिसका भव्य समापन आचार्य श्री शांतिसागर जी की मुनि दीक्षा स्थली यरनाल, कर्नाटक में आचार्य श्री वर्द्धमानसागर जी के ही सान्निध्य में हुआ था।
आचार्य वर्द्धमानसागर जी महाराज मात्र एक मुनि , आचार्य या प्रवचनकर्ता नहीं — वे हैं—दिगंबर चारित्र परंपरा के प्रतीक,संयम के आदर्श उदाहरण,आगम परंपरा के संरक्षक और वात्सल्य से ओतप्रोत मानवता के उपदेशक हैं।उनका जीवन धर्म की अखंड ज्वाला है, जिसमें हर आत्मा यदि थोड़ा-सा ताप ले, तो जीवनदिशा बदल सकती है।
परम पूज्य आचार्य प्रवर के 36वे आचार्य पदारोहण दिवस पर उनके पावन चरणों में कोटिशः नमोस्तु!!!
ये जन -जन के आराध्य गुरु, ये भक्तों के भगवान, आचार्य श्रेष्ठ हे वर्द्धमान, तुम श्रमणों के अभिमान।
-डॉ. सुनील जैन संचय
ज्ञान कुसुम भवन
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