वर्षायोग व्यर्थ के आडम्बरों से मुक्त हो

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महावीर दीपचंद ठोले छत्रपती संभाजीनगर (महा), महामंत्री, श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा (महा )
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प्रतिवर्ष के भांति (चातुर्मास) वर्षायोग ने पुन्हः दस्तक दे दी है ।और साधुओं के चातुर्मास स्थल निश्चित हो गए हैं। इस वर्ष की कलश स्थापना 15 जुलाई से 21 जुलाई के आसपास होने की संभावना है। हमारे मंदिरोके सूचनापट बड़े-बड़े आमंत्रण पत्रिकाओं से भर जाएंगे ।मैं इस आलेख के माध्यम से समाजजनों से, साधुजनों से अपील करना चाहूंगा की चातुर्मास समागम को हम चिंतन पूर्ण बनाए, आगमयुक्त श्रेष्ठ से श्रेष्ठ संपन्न हो। इसमें किसी भी प्रकार का आडंबर ना हो। अधिक से अधिक धर्मप्रभावना हो।
जैन धर्म को अनादि काल से विश्व का अध्यात्म गुरु माना जाता है ।इसके सांस्कृतिक इतिहास में चातुर्मास की प्रशस्त परंपरा है। एक साथ चार माह एक ही स्थान पर साधु मुनि,आर्यीका अपनी साधना करके जन जीवन के रचनात्मक उत्कर्ष में चर्या समर्पित करते हैं। प्राचीन काल में वर्षा योग वनों में रहकर साधु आत्म साधना करते थे । आहार ग्रहण तथा प्रवचन हेतु ग्रामादिक में आते थे। कालांतर में वे निर्जन खंडहर या एकांत गुफा आदि में वर्षायोग संपन्न करने लगे ।इसके प्रमाण है सौराष्ट्र में गिरनार की चंद्रगुफा, तमिलनाडु में बदामीगुफा, श्रवणबेलगोला की आचार्य भद्रभाहु गुफा, उड़ीसा में उदयगिरि खंडगिरि की गुफा जिसमें श्रमणो के चातुर्मास व्यतित हुए है ।आज से 70 /80 वर्ष पूर्व श्रमण परम्परा बहुत ही गरिमा पूर्ण एवं गौरवशाली थी। आचार्य शांतिसागर जी, आदिसागरजी, शांतिसागर जी (छाणी), वीरसागरजी, चंद्र सागर जी, महावीर कीर्ति जी, देशभूषणजी आदी जैनाकाश के प्रकाशपुन्ज थे। जिनका प्रभाव, अनुशासन, देशना, चारित्र सब कुछ बेदाग था ,स्फटिक सदृश्य था, सर्वस्व उनका व्यापक प्रभाव था। इनके चातुर्मास जहां जिन मंदिर विद्यमान हो और भक्तगण धर्म परायण हो या जहां आत्मसाधना की अनुकूल परिस्थितियां हो ऐसे स्थानो पर सादगी से संपन्न होते थे। जहां भी ईन संतों के चातुर्मास संपन्न होते थे वो स्थान तीर्थ बन जाता था। चारों ओर विकास की संभावनाऐ स्वर्णिम हो जाती थी। लोको पचार की अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं भी साकार होती थी। जनजीवन धर्म से सरस बन जाता था। मानवता की, विश्व बंधुत्व की ,वात्सल्य की हरियाली लहलहाने लगती थी। वहां साधना के सरस सुमन खिलते थे। परंतु वर्तमान में चातुर्मास की मूल भावना ही समाप्त होती दिखाई देती है। अधिकांशतः संतो के चातुर्मास समापन के बाद में समाज का अनुभव खट्टा मीठा देखने को मिलता है। सफलता के पैमाने को लेकर समाज और साधु दोनों ही दिशा भ्रमित हुए सो लगते हैं। जो की चिंतनीय बिंदु है और दोनों के लिए घातक है ।चातुर्मास संपन्न करना बहुव्यय साध्य हो गयाहै।
चातुर्मास के प्रारंभ में मंगल कलश मंगलता हेतु ही स्थापित किया जाता है ।परंतु श्रावकों ने, धर्म के व्यापारियों ने इस व्यवस्था को व्यापार का रूप दे दिया है ।लाखों रूपयो से मंगल कलश की स्थापना की बोलियां की जाती है। कलश स्थापना किस संत की ,कितने रूपयो से हुई इसकी स्पर्धा चलती है और उस साधु का प्रभाव मापा जाता है ।यह एक विकृति है। समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माता जी का कहना है कि आगम के अनुसार पूर्व में मंगल कलशो की स्थापना कभी भी बोलियों से या धन वर्षा से नहीं हुई है। परंतु आजकल साधुओं की त्याग तपस्या, संयम को पैसों से तोला जा रहा है। ख्याति, प्रतिष्ठा ,पूजा का ऐसा रोग सर्वत्र फैल गया है ।जिससे साधुत्व संकट में आ गया है ।आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने भी अपने ग्रंथ में लिखा है साधु की निर्ग्रंथता, पदविहार, केशलोच, एक बार खड़े रह कर आहार ,पीछी, कमण्डल , त्याग, तपस्या और साधना बड़ी अनमोल है। इसे पैसों से नहीं तोलना चाहिए। परंतु प्रतिस्पर्धा एवं पंथवाद,संतवाद को बढ़ावा देने वाले एवं व्यक्तिगत यशोलिप्सा, महत्वाकांक्षा के कारण अधिकांश श्रमण पुण्य के विक्रेता के रूप में दिखाई दे रहे हैं ।अर्थ संग्रह में उनकी भूमिका ,निजी भक्तों और निजी क्षेत्र से उनके रागभाव अपरिग्रही महाव्रती के दुषण बन गए हैं। जिन संतों ने स्व पर हित के लिए अपना सब कुछ छोड़ा ,उन संतों का आकलन हम उसी परिग्रह से करें तो हम विचार करें कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। कुछ ऐसे प्रश्न है जो बताते हैं कि हम चातुर्मास नहीं बनिया गिरी कर रहे है।धन संग्रह व भीड़ संग्रह चातुर्मास की सफलता के माप दंड बन गए हैं ।जो जैन दर्शन के अनुकूल नहीं कहे जा सकते। वितरागी निर्ग्रंथ साधु अपरिग्रह के सर्वोच्च मानक की जीवन शैली इतनी खर्चीली हो गई है कि चातुर्मास हेतु लाखों करोड़ों रुपए के बजट के कारण सर्वसाधारण समाज परेशान है। कुछ श्रावक अपने अर्थ बुद्धि से अपना नाम स्थापित करने हेतु चातुर्मास को प्रभावित कर धर्म में धंदा ढूंढ लेते हैं ।भव्य पोस्टर, भव्य मंच ,सुस्वादु भोजन,भव्य जुलुस, भव्य पेन्डाल और न जाने क्या-क्या जो पहले कभी भी ऐसा नही हुआ हो ऐसा काम दिखाने की होड लगी है ।परंतु आखिर हम क्या करना चाहते हैं ? इस बात का कोई लक्ष्य दिखाई नहीं देता ।यह निश्चित है कि आज आधुनिकता अपनी विशाल बाहे फैला कर हमें अपनी ओर आकर्षित कर रही है। और हम भी सब कुछ भूल कर उस ओर बढ रहे है।

जिस प्रकार बादल की सार्थकता बरसने में है।पुष्प की सुगंध में तथा सूर्य की सार्थकता रोशनी में है ऊसी प्रकार चातुर्मास की सार्थकता परिवर्तन में और धर्म प्रभावना में है ।अतः चातुर्मास को चिंतनमास के रूप में मनाए, ऊर्जा संग्रह का मापक बनाए ,धर्म से भटके हुए को सही मार्ग पकड़ने का प्रकाशस्तम्भ बनाएं, दूसरों के गुण और अपने दोषो का अवलोकन करें ।यही चातुर्मास की सार्थकता है। हमें चाहिए कि चातुर्मास में प्रदर्शन की अपेक्षा आत्मदर्शन, सम्यक दर्शन को महत्व दे। व्यर्थ की बकवास, फिजुलखर्ची, विज्ञापन बाजी में ना पड़े ।अनावश्यक पत्रिका, पैम्पलेट, फोटो, वीडियो शूटिंग, किताबे भी भी अंततः अपमानित, अविनय स्थिति में पहुंचती है। ईनके प्रकाशन से बचे, दोषपूर्ण सजावट, गीत संगीत, अत्यधिक प्रकाश वाले संसाधनो के प्रयोग से दूर रहे ।प्रदर्शन वाले कार्य की जगह दीर्घकालीन लाभ वाले कार्य को प्रमुखता दें ।चातुर्मास को व्यर्थ के आडंबर से मुक्त रखने का प्रयास हो।
चातुर्मास के दौरान समाज को कुछ ऐसा लाभ हो जिससे उसकी दशा ओर दिशा ही बदल जाए। ऐसे कार्य हो जिससे समाज में चेतना आ जाए ।कुछ ऐसे ठोस कार्य प्रतिबद्धता के साथ अमल मे लाए जिनकी आज हमारे समाज को सख्त जरूरत है। शिक्षा क्षेत्र में समाज को जागरूक किया जाए। असहाय लोगों की सहायता हेतु ध्रुव फंड का निर्माण हो। समाज में व्याप्त अंधविश्वास व रूढी पर रोक लगे। मृत्यु भोज ,रात्रि विवाह आदि बंद हो। नई पीढ़ी को धर्म से जुड़ने का प्रयास हो। वे मंदिर और साधुओं से दूर क्यों हो रहे इस बात पर भी चिंतन करें ।और ऊन्हे जुड़ने हेतू प्रेरित करें। जाति, पंथ एवं संत के नाम पर विभक्त समाज को प्रेम वाच्छल्य के माध्यम से अखंडता की प्रेरणा प्रदान करें। जहां जो पद्धति चल रही है उसमें छेड़छाड़ ना करें। श्रमणो की चर्या में दुषण लगे ऐसा कोई भी कार्य ग्रहस्थ को न करने दे ।श्रमणो को चाहिए कि अपनी साधना को निर्दोष बनाए रखने के लिए सावधानी बरतते हुए गुप्ती समितियों का पालन हो और चारों अनु योगों के अनुसार ही उपदेश दे। ऐसे वचनों का प्रयोग ना हो जिससे समाज के दो टुकड़े हो जाए ।पंथ वाद व संतवाद के बीज बोना मतलब सामाजिक समरसता में जहर घोलना ईससे आवश्य बचे। विषमता को हटाकर स्वयं भी समत्व में रमे ।पंचपरमेष्टी परमपदसे बढ़कर दूसरा कोई पद नहीं है ।साधु को चाहिए कि वे इस परम पद की गरिमा को बनाए रखें। बेशक आज भी अनेक संतों के चातुर्मास आगमानुसार, परम्परानुसार सम्पन्न होकर समाज को बहुत कुछ दे रहै है और जैनधर्म का झण्डा विश्व मे फहरा रहे है।
हम सभी प्रज्ञावान है, श्रमण, श्रावक, विद्वान, पंडित, शिर्षस्थ पदाधिकारी, समाजसेवी, दानवीर सभी मिलकर कुछ ऐसा चिंतन करें जो धर्म व समाज के लिए उपयोगी हो। कम से कम लागत से अधिकाधिक धर्म प्रभावना होकर बचत राशि से समाज को ठोस व स्थायी उपलब्धि प्राप्त हो। नियमित पाठशाला का निर्माण हो, विशाल बहु ऊपयोगी अस्पताल, स्कूल, कॉलेज खुले चातुर्मास मिल का पत्थर साबित हो। बशर्ते हमारी सोच दुर गामी हो और कुछ कर गुजरने की ललक हो। इस वर्ष हम सभी ऐसा निर्णय ले की चातुर्मास की पत्रिकाऐ साधारण छपवाए। आने वाले अतिथियों का भक्तों का योग्य सम्मान हेतु मात्र तिलक लगाकर स्वागत हो ।कोई मोमेंटो, शाल न दे। पत्रिकाओं का ,फोटो का अविनय हो रहा है इस पर रोक लगे। और देखें कि इससे चातुर्मास संपन्नता में कुछ कमी आती है क्या। चातुर्मास में किसी का उपहास न होते हुए संपूर्ण समाज को बिना भेदभाव से आशीर्वाद प्राप्त हो। मात्र धन संग्रह ही लक्षण न हो । समाज को पुनः अगला चातुर्मास संपन्न करवाने की प्रेरणा देने वाला सिद्ध हो ।
आज नहीं तो कल हमें इन प्रश्नों के महत्व को स्वीकार करना ही होगा। आईए साधु और श्रावक दोनों चर्चा परिचर्चा कर चिंतन कर उचित निर्णय ले और वर्षा योग पुनः जीवन्त बनाएं ।संसार में असंभव कुछ भी नहीं है ।जहां चाह वहां राह है। अंधकार भरी रात्रि के पश्चात पुनः सूर्योदय होना ही है।

श्री संपादक महोदय सा जयजिनेद्र।
यह आलेख पत्रीका मे यथाशीघ्र प्रकाशित कर उपकृत करे।धन्यवाद।

महावीर दीपचंद ठोले
छत्रपतीसंभाजीनगर संभाजीनगर (औरंगाबाद) महा
7588044495

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