आत्मा के अपने गुणों के सिवाय जगत में अपनी अन्य कोई भी वस्तु नहीं है इस दृष्टि से आत्मा अकिंचन है। अकिंचन रूप आत्मा-परिणति को आकिंचन करते हैं।
जीव संसार में मोहवश जगत के सब जड़ चेतन पदार्थों को अपनाता है, किसी के पिता, माता, भाई, बहिन, पुत्र, पति, पत्नी, मित्र आदि के विविध सम्बंध जोड़कर ममता करता है। मकान, दूकान, सोना, चाँदी, गाय, भैंस, घोड़ा, वस्त्र, बर्तन आदि वस्तुओं से प्रेम जोड़ता है। शरीर को तो अपनी वस्तु समझता ही है। इसी मोह ममता के कारण यदि अन्य कोई व्यक्ति इस मोही आत्मा की प्रिय वस्तु की सहायता करता है तो उसको अच्छा समझता है, उसे अपना हित मानता है। और जो इसकी प्रिय वस्तुओं को लेशमात्र भी हानि पहुँचाता है उसको अपना शत्रु समझकर उससे द्वेष करता है, लड़ता है, झगड़ता है इस तरह संसार का सारा झगड़ा संसार के अन्य पदार्थों को अपना मानने के कारण चल रहा है।
अन्य पदार्थों की इसी ममता को परिग्रह कहते हैं। यदि भरत चक्रवर्ती के समान सुंदर लुभावने पदार्थों के रहते हुए भी उन पदार्थों से मोह ममता न हो, उनको अपना समझे जल में कमल की तरह से अपने आपको सबसे पृथक् समझे। यानी-संसार उनके चारों ओर हो तो हो, किन्तु उसके हृदय में अपनी आत्मा के सिवाय संसार की कोई जड़ चेतन वस्तु न हो, तो न उसके अन्तरंग में परिग्रह है न बहिरंग में कोई परिग्रह है।
तथा यदि मन में पदार्थों के साथ मोह ममता है किन्तु नग्न दिगम्बर साधु तो वह परिग्रही है। उस साधु की अपेक्षा भरत सरीखा गृहस्थ श्रेष्ठ है। इसी भाव को श्री समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में यों प्रकट किया है –
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहवान्।
अनगारो गृही श्रेयात् निर्मोही मोहिनो मुनेः।।
अर्थात्- मोह ममता रहित गृहस्थ मोक्षमर्गा पर चलने वाला है, मोही मुक्ति मोक्षगार्मी नहीं है, संसारी है। इसी कारण निर्माही गृहस्थ मोहि मुनि श्रेष्ठ से है।
मोही ग्रहस्थ के अन्तरंग तथा बहिरंग के परिग्रह है। यदि वह नग्न मुनि हो तो भी उसके हृदय में संसार है और मोह-शून्य गृहस्थ के बाहर संसार दिखाई देता है किन्तु उसके हृदय में संसार की रेखा भी नहीं है। इसी कारण वास्तव में परिग्रह मोह-ममता के कारण हृदय में ही हुआ करता है।
वह मोह ममता मोहनीय कर्म के उदय से होती है। मोहनीय कर्म के संक्षेप से १४ भेद हैं। (१) मिथ्यात्व (२) क्रोध, (३) मान, (४) माया, (५) लोभ, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (९) शोक, (१॰) भय, (११) जुगुप्सा, (१२) स्त्रीवेद, (१३) पुंवेद, (१४) नपुंसक वेद। इसी प्रकार अन्तरंग परिग्रह के १४ भेद हैं।
इस अन्तरंग परिग्रह के कारण जीव जिन बाहरी पदार्थों को अपनाता है उनको बाह्म परिग्रह कहते हैं। उसके १॰ भेद है। (१) क्षेत्र (खेत जमीन), (२) वस्तु (घर), (३) हिंण्य (चांदी), (४) सुवर्ण (सोना), (५) गोधन (गाय घोड़ा आदि पशु), (६) धन्य (चावल, गेहूँ आदि), (७) दासी (नौकरानी) (८) दास (चाकर), (९) कुप्य (वस्त्र), (१॰) भाण्ड (बर्तन), इस तरह जीव मोह के कारण इस अन्तरंग बहिरंग २४ प्रकार के परिग्रह से बंधा हुआ है।
मिथ्यात्व सबसे बड़ा परिग्रह है इसी के कारण जीव की श्रद्धा विपरीत हो जाती है। शरीर के साथ तन्मय होकर शरीर को अपनी निजी वस्तु मान लेता है बल्कि शरीर को ही आत्मा समझ बैठता है। इसी मिथ्या श्रद्धा के कारण जो बात शरीर को प्रिय प्रतीत होती है उसी को अनुराग करता है। शरीर संतुष्ट करना ही अपना स्वार्थ मानता है उसी स्वार्थसिद्धि में समस्त जीवन बिना देता है। इसी विपरीत विश्वास के आश्रस से क्रोध, मान, माया, लोभ, रति (पर पदार्थों से प्रेम), अरति (अन्य पदार्थों से द्वेष), शोक (रंज), भय (डर), जुगुप्सा (अन्य पदार्थों से घृणा, नफरत), स्त्रीवेद (पुरुष के साथ मैथुन के भाव) पुंवेद (स्त्री के साथ विषय कामना), नपुंसकवेद (हीजड़े के परिणाम) हुआ करते हैं।
इस प्रकार जीव न तो अपने साथ परभव से कुछ लाता है और पर परभव को यहाँ से ले जाता है, अपना शरीर भी यहीं पर पड़ा हुआ छोड़ जाता है। आत्मा का कमाया हुआ पुण्य पाप ही उसके साथ रहता है उसके सिवाय रत्ती भर भी अन्य वस्तु उसके साथ नहीं रहती।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३
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