उत्तम आकिंचन्य धर्म

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उत्तम आकिंचन्य धर्म
आकिंचन्य अर्थात भगवान आत्मा के सिवा इस लोक में कोई भी/ कुछ भी (परिग्रह) मेरा नहीं है, ऐसा भाव। यह भाव जब सच्ची श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के साथ होता है, तब ‘उत्तम आकिंचन्य धर्म’ नाम पाता है।
आचार्य उमास्वामी जी श्री तत्त्वार्थसूत्र जी में लिखते हैं, ‘मूर्छा परिग्रहः’ अर्थात मोह के उदय से पर पदार्थों में होने वाला मूर्च्छा (ममत्व/ ये मेरा है) का भाव, वही परिग्रह है। और परिग्रह के प्रति राग का भाव जब छूट जाता है, तब उत्तम आकिंचन्य धर्म प्रगट होता है।
यही बात पंडित द्यानतराय जी श्री दसलक्षण धर्म पूजन में व्यक्त करते हैं:
परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी।
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए।।
उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिंता दु:ख ही मानो।
फाँस तनक-सी तन में साले, चाह लंगोटी की दु:ख भाले।।
भाले न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरे।
धनि नगन पर तन-नगन ठाढ़े, सुर-असुर पायनि परें।।
घर-माँहिं तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसार-सों।
बहु-धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर उपगार सों।।
अर्थात्
“24 प्रकार के परिग्रहों (14 अंतरंग परिग्रह: मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद ; 10 बहिरंग परिग्रह: क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, सोना, चांदी, दास, दासी, वस्त्र, बर्तन) का त्याग मुनिराज करते हैं तथा श्रावकों को भी तृष्णा का भाव कम करते-करते इसे अधिकाधिक सीमित करना चाहिए।”
आगे लिखते हुए पंडित जी कहते हैं, “उत्तम आकिंचन्य को धारण करने का भाव आना एक गुण है।”
“परिग्रह एवं उसके साथ होने वाली चिंता दुख का ही कारण है। जिस प्रकार, एक छोटी-सी फ़ांस भी बहुत दुख का कारण बन जाती है; उसी प्रकार, एक लंगोटी मात्र की इच्छा भी बहुत दुखी करती है।”
फिर कहते हैं, “बिना मुनि हुए जीव कभी भी पूर्ण समता और सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। धन्य हैं वे मुनिराज जो सर्व परिग्रह का त्याग कर के नग्न मुद्रा को धारण करते हैं एवं चक्रवर्ती व देवादिक भी जिन्हें नमस्कार करते हैं।”
“जो जीव घर में रहकर भी तृष्णा को यथायोग्य घटाते हैं, जिनकी रुचि अब किंचित भी संसार में नहीं रह गयी है, परंतु चारित्र की कमजोरी के कारण अभी पूरे परिग्रह का त्याग नहीं कर पा रहे हैं, उनके परिग्रह/ धन को भी कदाच् भला कह देते हैं, यदि वह दूसरों के उपकार में लगाया जा रहा हो।”
[यहाँ यह बात विशेष समझना, कि मात्र परिग्रह का बाहर में त्याग करने से उत्तम आकिंचन्य धर्म नहीं हो जाता। ‘परिग्रह मुझ आत्मा की सीमा में है ही नहीं, कभी आया ही नहीं तथा कभी आएगा ही नहीं’, यह समझकर उसके प्रति ममत्व को घटाना तथा फिर बाहर में छोड़ने पर ही ‘उत्तम आकिंचन्य धर्म’ प्रगट होता है।
कोई यह कहे, कि “हमारे अंदर परिग्रह के प्रति ममत्व तो कम हो गया है”, परन्तु फिर भी परिग्रह रखे, तो ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि ‘ज़हर पीने से मरते हैं’,- ऐसा समझ में आने पर उसका त्याग होता ही होता है।
ठीक उसी प्रकार, परिग्रह दुख का निमित्त कारण लगने पर, उसका भी यथायोग्य त्याग होता ही होता है।
तथा जब परिग्रह में ममत्व भाव टूटता है, तब अपने अनन्त गुणों के निधान भगवान आत्मा से एकत्व जुड़ता है और अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है।]
इस प्रकार, पर (दूसरे द्रव्यों) में ‘मेरे’पने का भाव हटाना और बाहर पर का यथायोग्य त्याग होना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म प्रगट करने का उपाय है।
योगेश जैन संवाददाता ,टीकमगढ़ 6261722146

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