जीवन की यात्रा अकेले अकेले , चुपचाप चुपचाप नदी की तरह करनी होगी । जैसे नदी बिना किसी की प्रतीक्षा किये , बिना किसी से बातचीत किये , समर्पित भाव – भाषा में एक लक्ष्य बनाकर चलती है , ठीक वैसे ही हमें जीवन की यात्रा करनी होगी । तब कहीं जाकर के विशाल धर्म के सागर से हमारी मुलाकात होगी और हम उसमें मिलकर / मिटकर स्वयं सागर बन जाओगे । सागर -सी इस अनन्त सत्ता को पाने के लिये बहुत कुछ विचार करने की जरूरत है । जीवन के अन्तरंग तत्त्व का स्पर्श करने की जरूरत है। आज का यह धर्म बताता है कि निर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति में उतरना पड़ता है।
‘मैं’ और ‘मेरे पन’ का त्याग ही उत्तम आकिंचन्य धर्म : आकिंचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी सब छूट जाता है किंतु आंतरिक संकल्प विकल्पों की परिणति को भी विश्राम मिल जाता है। बाहरी परित्याग के बाद भी मन में ‘मैं’ और ‘मेरे पन’ का भाव निरंतर चलता रहता है, जिससे आत्मा बोझिल होती है और मुक्ति की ऊर्ध्वगामी यात्रा नहीं कर पाती।
जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित हल्का होना जरूरी होता है उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाइयां पाने के लिए हमें अकिंचन, एकदम खाली होना आवश्यक है। जहां पर भीड़ है, वहांपर आवाज, आकुलता और अशांतिहै किंतु एकाकी एकत्व के जीवन में न कोई आवाज है और न कोई आकुलता और न अशांति।
आज का यह धर्म जीवन की यात्रा को एकाकी आगे बढ़ाने का धर्म है जिसमें अपने और पराए का भेद समझ कर निर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति में उतरना पड़ता है।
निर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति :
जिन्दगी की अर्थी में कोई कंधा देने वाला नहीं मिलेगा । इस शरीर से प्राण निकलने पर समाज के चार लोग आकर के फिर भी कंधा दे देंगे । राम नाम सत्य है, अरिहंत नाम सत्य है, कहने वाले मिल जायेंगे लेकिन जिन्दगी की अर्थी में कंधा देने के लिये तो तुम्हें खुद ही तैयार होना पड़ेगा । यह आकिंचन्य धर्म हमें इसी गहराई में ले जाता है । कोई नहीं किसी का साथी , सारी यात्रा एकाकी है ।
आज का यह धर्म जीवन की यात्रा को एकाकी आगे बढ़ाने का धर्म है जिसमें अपने और पराए का भेद समझ कर निर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति में उतरना पड़ता है।
सांझ घिरते-घिरते पक्षीगण एक तरुवर पर आकर विश्राम कर लेते हैं, किंतु सुबह होते ही अपने-अपने कार्य के लिए भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार संसार में हम सभी का निवास है।
परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही अकिंचन धर्म की भावधारा है। जहां पर भीड़ है, वहांपर आवाज, आकुलता और अशांतिहै किंतु एकाकी एकत्व के जीवन में न कोई आवाज है और न कोई आकुलता और न अशांति।हम जहां पर जी रहे हैं वह कर्तव्य तो करना ही है किंतु यथार्थता का बोध हमें रहना चाहिए।
जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित हल्का होना जरूरी होता है उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाइयां पाने के लिए हमें अकिंचन, एकदम खाली होना आवश्यक है। यह आत्मा,संकल्प, विकल्प रूप कर्तव्य भावों से संसार सागर में डूबती रहती है।
”आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय।
यूं कबहूं इस जीव का, साथी सगा न कोय।।”
-डॉ. सुनील जैन संचय
मोबाइल, 9793821108
ईमेल- suneelsanchay@gmail.com
(आध्यात्मिक चिंतक व जैनदर्शन के अध्येता)