स्वयं के द्वारा बांधे गए कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना होगा -मुनिश्री विलोकसागर

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मुरैना (मनोज जैन नायक) जैनाचार्यश्री आर्जवसागरजी महाराज के शिष्य मुनिश्री विलोकसागरजी एवं मुनिश्री विबोधसागरजी महाराज के आध्यात्मिक वर्षायोग में प्रतिदिन प्रवचनों के माध्यम से अमृतवर्षा हो रही है । आज धर्मसभा में मुनिश्री विलोकसागरजी महाराज ने कुंद कुंद स्वामी द्वारा रचित सैद्धांतिक ग्रंथ समयसार की बाचना करते हुए कथनी करनी के संदर्भ में बताया कि दुनिया में छह द्रव्य जीव पुदगल धर्म अधर्म आकाश और काल के बारे में समझाते हुए कहा कि जीव और पुदगल का संयोग जब होता है तब कर्म बंध होता है । शेष चार द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल तो अपने आप में रहते हैं । जो भी कर्म बंध होता है वह जीव और पुदगल के संयोग से ही होता है । जो भी शुभ अशुभ फल होता है, जो भी बंध होता है वह हमारे स्वयं के द्वारा ही होता है । जब हम कूलर या एसी की हवा खाते है तो उसका विल किसे भरना पड़ेगा, हमें ही तो भरना पड़ेगा, हमें ही तो चुकाना पड़ेगा । इसी प्रकार हम जिस प्रकार की सांसारिक क्रियाओं में लिप्त रहते हैं तो उनके द्वारा बांधे गए कर्मो का फल हमको ही भोगना पड़ेगा । कोई दूसरा हमारा अच्छा या बुरा नहीं कर सकता । यदि हम अधर्म के कामों में, पाप कर्मों में लिप्त रहेंगे तो परमात्मा भी हमारे दुखों को, हमारे कष्टों को दूर नहीं कर सकता । हमें स्वयं को इसके लिए पुरुषार्थ करना होगा, हमें ही जागृत होना पड़ेगा । जब हम जागृत हो जाएंगे, भेद विज्ञान को समझ लेंगे, तब हमारे वस्त्र स्वयं ही छूट जायेगें । हम स्वयं ही संसार से विरक्त हो जायेगें । वस्त्र उतारे नहीं जाते, स्वयं ही उतर जाते हैं। त्याग विरक्ति तो अंतरंग से आती है । जब सच्चाई का ज्ञान हो जाता है, जब स्व और पर का भेद समझ आ जाता है, तब मन संसार से विरक्त होकर जीव मोक्ष मार्गी हो जाता है ।
जैन दर्शन में कर्मों के बंधन से मुक्त होना ही मुख्य लक्ष्य
जैन धर्म में, जीव और पुद्गल दो अलग-अलग द्रव्य हैं जो इस ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं। जीव चेतन तत्व है, जबकि पुद्गल जड़ (निर्जीव) पदार्थ है।
जीव को आत्मा भी कहा जाता है, जो शाश्वत और चेतन तत्व है। यह सुख-दुःख का अनुभव करता है और कर्मों के बंधन में बंधा होता है। जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य जीव को कर्मों के बंधन से मुक्त कराना है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
पुद्गल जड़ (निर्जीव) पदार्थ है जो विभिन्न रूपों में मौजूद है। यह दिखाई देने वाला, स्पर्श करने योग्य और परिवर्तनशील है। पुद्गल में वर्ण (रंग), गंध (गंध), रस (स्वाद) और स्पर्श (स्पर्श) गुण होते हैं । शरीर, मन, वचन और सांसें सभी पुद्गल से बनी हैं। जैन धर्म में, पुद्गल को कर्मों के रूप में भी माना जाता है जो आत्मा के साथ बंधते हैं।
जैन दर्शन में जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त होना ही मुख्य ध्येय
जैन धर्म के अनुसार, जीव और पुद्गल अनादि काल से एक दूसरे से बंधे हुए हैं। जीव पुद्गल के साथ मिलकर संसार में जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। जीव को कर्मों के बंधन से मुक्त कराने के लिए, उसे पुद्गल से अलग होना होगा, यानी कर्मों से छुटकारा पाना होगा। पुद्गल से मुक्ति पाने के लिए, जीव को सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चारित्र का पालन करना होता है। जैन धर्म में जीव और पुद्गल दो अलग-अलग तत्व हैं, लेकिन वे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जीव को कर्मों के बंधन से मुक्त कराने के लिए, उसे पुद्गल से अलग होना होगा, जो जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य है।

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