स्वाध्याय प्रभावक आ विशुद्ध सागर जी– व्यक्तित्व एवं कृतित्व

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महावीर दीपचंद ठोले छत्रपतीसंभाजीनगर, महामंत्री तीर्थ संरक्षिणी महासभा(महा) 7588044495

जिनके गुणो से हमसे गाया नहीं जाता, जिनकी साधना का अंदाजा कभी लगाया नहीं जाता ,जिनकी तपस्या का गुणगान करें तो कैसा करें कि दुनिया में ऐसा अजूबा कहीं पाया नहीं जाता। ऐसे अकल्पनीय, अद्भुत, अनोखे, साधना में दुर्धर चर्या शिरोमणि आचार्य विशुद्ध सागर जी के चरणों में श्रद्धा, भक्ति, और समर्पण के पुष्प अर्पण करता हु।
हमने साक्षात भगवान महावीर को तो नहीं देखा पर आचार्य विशुद्ध सागर जी को देखकर भगवान महावीर के ही दर्शन हो रहे ऐसा प्रतीत होता है ।क्योंकि आप सादगी की जीती जाती तस्वीर है। स्वभाव में विनम्र और बर्ताव में कबीर है। आप चले, पद यात्रा करें तो चल तीर्थ ही चल रहा है ऐसा प्रतीत होता है। आप कलम उठाए तो समयसार जैसे महान ग्रंथ बन जाए। जब आपकी देशना होती है तो साक्षात महावीर की ही देशना होरही है ऐसा महसूस होता है। जब आप ध्यान में लीन रहते हैं तो साक्षात तीर्थंकर की ही छवी दृष्टिगोचर होती है । आपके पास ना कोई जमीन का टुकड़ा, ना कोई आश्रम, ना कोई मठ है ।सिर्फ कमण्डलु और पिछी ही आपकी जायदाद है। हम तो कहते हैं कि आप साक्षात ईश्वर के ही अंश और दरवेश हो ।इसलिए तो आपके चरणों में सारा देश होता है। ऐसे आचार्य श्री का अवतरण 18 दिसंबर 1971 के पावन अवसर पर राजेंद्र कुमार के रूप में पिताश्री राम नारायण जी के आंगन में, मां श्रीमती रतीबाई जैन (पोरवाल) की कोख से हुआ। पुत्र रत्न के रूप में राजेंद्र कुमार का उदय एक आनंद का अद्भुत उत्सव था। बचपन से ही यह सुंदर सलोना सा बालक विलक्षण प्रतिभा संपन्न था। मेघा अदभुत थी। 18 वर्ष की आयु में ही आपने ब्रह्मचर्य व्रत को अंगीकार कर लिया और 21 नवंबर 91 के शुभ दिन आपके जीवन के परिवर्तन का मानक दिवस बन गया । श्रीक्षेत्र श्रेयांसगिरी के पवित्र धरा पर मुनी विशुद्ध सागर जी का अविर्भाव हुआ। इस युवा साधक के चित्त में अपनी आत्मा को निर्मल करने की एक ही धुन थी और दृष्टि लगी थी मोक्ष पद की प्राप्ति की ओर।
बचपन से ही उनकी स्थितप्रज्ञता, योगत्रयी की एकाग्रता, कठोर संयम, आत्मानुशासन और सहिष्णुता विस्मय कारी थी। उनकी स्थिरता, साधना के प्रति जागरूकता और धृति संपन्नता निश्चित ही दीक्षा गुरू आ विराग सागर जी को भविष्य के प्रति आस्वस्त करने वाली थी । ऊनके कृपा दृष्टीसे इतिहास के पृष्ठो ने करवट ली और छत्रपति संभाजी नगर औरंगाबाद महाराष्ट्र में 31 मार्च 2007 को आप आचार्य पद पर विराजित हो गये।
तप की अप्रतिम विभूति, सुचिता के पवित्रतम वैभव, संस्कृति के विलास रूप- रत्नो के प्रकर्ष और श्रेयस के समुल्लास, अत्यंत मृदु ,करुणाशील, विनम्र ,प्रशांत, निस्पृही निर्लिप्त, निर्विकार, निरंहकारी और निश्चिलता के अप्रतिम अभ्यासी पूज्य ज्योतिर्मय गुरुवर आचार्य विशुद्ध सागर जी इस युग के महावीर ही है ।
आचार्य श्री आत्म ऊर्ध्वारोहण के अप्रमत्त साधक है। जो युग को अमृत निधि बांटने वाले वितरागी पथ के ऐसे पथिक है जो ज्योतिर्मय है, रसमय है , ऊदित्तोदित व्यक्तित्व के धनी है। आपका हर प्रशस्त चिंतन ,हर मधुर वचन, हर सुविहित आचरण मंगलमय तो है ही और चिरस्मरणीय भी । आपका तप प्रदर्शन का माध्यम नहीं है, प्रत्युत वह तो कषाय मुक्ति और आत्मा की परिशुद्घी का अभियान है ।आपके मुखमंडल पर चंद्र के समान सौम्य तेजस्विता सदैव छाई रहती है जो आपके सद्गुणों की सुगंध से सुरभित है। आपके ज्ञान की क्रांति जीवन की क्रांति बन गई है। सम्यक ज्ञान से निरीक्षण, निरीक्षण से ज्ञान, ज्ञान से मुक्ति यह धर्म मार्ग आचार्य श्री ने अपनाया है जो उन्हें मुक्तीपथ की ओर ले जा रहा है ।
पुज्यपाद आचार्य श्री तेजस्विता एवं ऊर्जस्वीता के संग अप्रमत्त उर्ध्वमुखी साधक स्वरूप में अपने श्रमणत्व के प्रति प्रतिपल जागरूक और लक्ष्य के प्रति अप्रमत्त रहे हैं ।जहां उनका अनुत्तर संयम, अनुत्तर आचार, अनुत्तर विचार, अनु त्तर व्यवहार और अनुत्तर संस्कार अनकहे ही उनकी साधना के दिव्य उजास को विस्तारित करता रहा है। जिसमें प्रमुदित हो जनमानस उनके मन ,वचन और कर्म की युति से वितराग पथ की ओर पुरुषार्थ पथ की बारंबार वंदना करता है ।
ज्ञान की आगाधता, आत्मा की पवित्रता, सृजन धर्मिता, और अप्रमत्तता और विनम्रता ऊन्हे विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती है। उनका जीवन स्फटिकसा समुज्ज्वल, कांचसा पारदर्शी है। जिसमें चारित्र की पवित्रता और संयम की पराकाष्ठा है ।मोक्ष पद के साधक है वे। उनकी संयम साधना का परम लक्ष्य है मुक्ति, जिसकी आधारशिला है उनका समाधि उन्मुख जीवन। उनका जीवन वृत एक आदर्श है, एक अभिनव प्रेरणा है।
आचार्य श्री के नयनों में सदा स्नेह का बहता हुआ झरना, मुख मंडल पर सदैव गंभीर सात्विक मंद मुस्कान, सुशोभित रहती है। उनके सिद्ध हस्त हाथ हरदम सबके उत्थान में तत्पर है। चरण युगल सम्यक ज्ञान, दर्शन चारित्र की उत्कृष्ट साधना हेतु गतिमान है। तपस्विता, मनस्विता, सतत ज्ञानोपयोगिता, स्वाध्याय शीलता, साहित्य सृजन, सेवा भावना के भागीरथी समप्रवाह से उनके बेजोड पुरुषार्थ की जीवन्त कहानी, घड़ी की अनवरत चलती सुईयो की भांति लिख रही है एक अमिट गाथा काल के कपाल पर। आचार्य श्री की अक्षुण्ण ग्यानधारा एवं अविरत चलने वाली कलमसे अबतक शताधिक ग्रथो का सृजन हुआ है। हो रहा है।ईनमे से कई ग्रथों को विश्व विद्यालयोमे शोध कार्य के लिए सम्मिलित किया गया है।जिससे जिन धर्म का प्रचार प्रसार के साथ अनेक छात्र डाक्टरेट,पीएचडी की ऊपाधि भी प्राप्त करेगे।
आप भारतीय संस्कृति के संवाहक है ।प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक की संस्कृति उसमें संन्निहित है। जिसके कारण वेठ बन गए हैं प्राचीन और अर्वाचीन संस्कृतीयो के संगम स्थल।
आचार्य श्री यशस्वी, तेजस्वी मनस्वी, साधना शील,प्रभावी ,बहुआयामी व्यक्तित्व,तथा विलक्षणता का एक गुलदस्ता है ।श्रद्धा, सेवा, विनय, विवेक, समर्पण की पंचज्योती से ज्योतित उनका जीवन साहस और पुरुषार्थ की जलती दीप सीखा है। वस्तुतः वे सत्य निष्ठा,चारित्र निष्ठा, आत्म निष्ठा, गुरु निष्ठा ,आज्ञा निष्ठा की सुरभि दसों दिशाओं में फैलाने वाली विश्व की महान विभूति है ।आचार्य श्री परमार्थ को समर्पित एक ऐसी विशुद्ध आत्मा का अभीधान है जिनके आभामंडल में वितरागता की स्थितप्रज्ञता साकार होती है और होती रहती है निरंतर प्रवाहमान। अनुकंपा से ओतप्रोत यह एक ऐसे महर्षि का अभिधान है, जिनका क्षण क्षण आत्म कल्याण और जनकल्याण के सम्यक प्रवर्तन हेतु नियोजित है।
आचार्यश्री एक ऐसे दिव्य संत है जिनका आधार है जिनवाणी, जिनका आचार है वीतराग की दिशा में निरंतर गतिशीलता, रत्नत्रय की आराधना। जिनके विचार है सत्य की अप्रतिम उपासना, जिनका व्यवहार है मृदु करुणाशील, विनम्र, प्रशांत । जिनका स्वाभाविक स्वभाव है समय प्रबंधन ।
अत्यंत सामान्य किंतु प्रभावशाली और वात्सल्य परिपुर्ण
शब्दों में गुम्फीत उनका शंखनाद जन-जन के अन्तस्थल में उत्कीर्णित हो जाता है और उनके प्रबोधन को आत्मसात कर जीवन को धन्य बना लेने की प्रवृत्ति अत्यंत सहजता के संग ऊद्भुत हो जाती है ।उनके अब तक 15000 से अधिक प्रवचन हो चुके होंगे। और 60000 से अधिक पृष्ठो का लेखन हो चुका है। आपने अबतक 100 से अधिक मंदिरो की पंचकल्याणक सम्पन्न कराए है। महान प्रतिभाशाली आचार्य विशुद्ध सागर जी ऊम्रसे युवा है लेकिन अनुभव से वृद्ध है । अपने उपदेशों से , आगमोक्त आचरण से अनेक शिष्यों को तथा भव्यजीवो को दीक्षा देकर मोक्ष मार्ग में लगाया है। लगा रहे हैं। आप शिष्यो को अपनी पैनी छन्नी ,हथोडे से तराश कर अनमोल हीरे बना रहे हैं और वे भी जैन धर्म की पताका को फहरा रहे है।जब आपने दीक्षा ली तो अकेले ही थे लेकिन आज इनका काफिला बहुत बड़ा हो गया है। कहते हैं ना अकेला ही चला था जानेबी मंजिल की ओर ।साथी मिलते गए और कारवा बढ़ते गया। आपके पास मुल्क के पॉलिटिकल रहनुमा हो, बड़े-बड़े शहजादा ,कानूनगो, डॉक्टर, इंजीनियर, विद्वान ,पंडित ऐसी एक से एक नामचीन हस्तियां आपके दर पर कदमबोसी को पहुंचती है। गजब का अजूबा है ।कहते है जिसने भी इस निष्काम मसिहा की कदमबोसी की वह खुशहाल और मालामाल हो गया। कहते हैं कुशल शिल्पी के हाथ पत्थर लग जाए तो वह मूर्ति बन जाती है। बीज को कुशल माली मिल जाए तो वह वट वृक्ष में रूपांतरित हो जाता है। वैसे ही पतन में डूब रही समाज को आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी के वाणी का सहारा मिल जाए तो उनके जीवन की दशा और दिशा ही बदल जाती है।आपने नवयुवको में भी संस्कार एवं सृजनशीलता के बीजों का न केवल वपन किया है बल्कि उन्हें सदा चरण में पल्लवीत एवं पुष्पित होते देखा है।
ऐसे आचार्य श्री के अविर्भाव की घटना, निर्माण की प्रविधि सहस्त्राब्दियो में कभी कभी घटित होती है । उनका व्यक्तित्व और कृतित्व आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण है। वह ऊर्जा उनके प्रशासन कौशल, प्रबंधन कौशल, एवं प्रवचन पटुता में परिलक्षित होती है। आपकी श्रमशिलता, स्पुर्ति और अप्रमत्तत्ता को देख थकान भी थक जाती है। नींद को नींद आने लगती है। जागृति जाग उठती है ।श्रम के सीकर जहां गिरते हैं, मोतियों की फसल ऊग आती है। आपमे लगन, पुरुषार्थ और एकाग्रता तीनों का संयम है ।आपने एकाग्रता और पुरुषार्थ से हजारो हजारो गाथाओ का कण्ठीकरण किया है। अनेक सूत्र और श्लोक को सहजता से प्रस्तुत करते हैं। आप समस्त साधुओं के प्रति श्रद्धावान रहते हैं ।उनके प्रति सहज समर्पण का भाव रखते हैं ।संतो के संतत्व के प्रति उनका सर्वात्मना
समर्पण होता है। आचार्य प्रवर का अपने आचार्य परंपरा के प्रति और अपने इष्ट के प्रति निर्विकल्प और तर्कातीत श्रद्धा- समर्पण है ,जो अद्भुत और श्लाघ्य भी है। सभी परंपराओं के संतों के प्रति उनके चित्त में समादर है और वे अंतर्मन से उनकी वंदना किया करते हैं ।यही कारण है कि सभी संत समाजने भी उनके आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु उनको हृदय से अपनाया है।
धन्य है आचार्य विराग सागर जी जिन्होंने अपनी तीक्ष्ण पारखी नजरों से आ विशुद्ध सागर जी की निपुणता को परखकर अंतिम क्षणों में अपना उत्तरदायित्व घोषीतकर गणधराचार्य पद सौंप कर उन्हें अपने शिष्यों की जिम्मेदारी सौंपी ।आ विरागसागर जी का विरागोदय जो ऊनका ऊपवन ऊनकेही द्वारा पल्लवित ,पुष्पीत है वह आ विशुद्ध सागरजी के कुशल नेतृत्व मे एकता समीकरण के साथ मार्गदर्शन पाकर वृद्धिगत होकर जैन शासन की पताका को विश्व भर मे फहराते रहेगा।

महावीर दीपचंद ठोले,छत्रपतीसंभाजीनगर, महामंत्री, श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा महाराष्ट्र प्रांत
7588044495

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