स्थानीय समाज का आपसी विवाद और जैन सन्तों से अभद्रता

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*वर्तमान परिदृश्य में चिन्तन,मनन,मंथन अति आवश्यक*
वर्तमान समय में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हो रही है जिनके बारे में कहना तो दूर सोचना भी किसी सूरत में सही नहीं है। इन घटनाओं से समाज को आवश्यक रूप चिंतन करना आवश्यक है  कि आखिर यह सब क्यों घटित हो रहा है इन सब के पीछे क्या मूल तथ्य और कारण है।
आजकल स्थानीय समाज ज्यादातर आपसी विवाद व ईगो से ग्रस्त नजर आते है । ऐसी स्थिति में स्थानीय समाजों के विवाद में जैन संतों का प्रवेश जब होता है तो फिर ऐसी अप्रत्याशित घटनाएं घटित हो जाती हैं। जबकि समाजों के विवादों को सुलझाने के लिए संतों का सदप्रयास होता है और संतों की वाणी को सभी स्थानीय समाज के सदस्यों को सम्मान देना चाहिए और स्वीकार भी करना चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है ।
*आइए कुछ मंथन करते हैं:-*
वर्तमान में अधिकतर जैन समाजों में स्थानीय स्तर पर विवाद गहराता जा रहा है। समाज के कुछ प्रमुख लोग धड़ों में विभाजित नजर आ रहे हैं।
इसका प्रमुख और मुख्य कारण है कि आज से कुछ समय पहले लगभग 20 -25 वर्षों पूर्व की बात करें तो समाज की कमान धार्मिक और संतों के प्रति समर्पित व्यक्तियों को सुपुर्द की जाती थी। उनका मान सम्मान भी कायम रखा जाता था। किंतु वर्तमान में यह सब कुछ पलट गया है। अब धर्म मे राजनीति का समावेश बड़ी तेजी के साथ हो रहा है और ऐसे व्यक्ति समाज के मुखिया बन रहे हैं जो केवल और केवल राजनीतिक द्रष्टिकोण से प्रभावित हैं। उनका लक्ष्य स्व प्रदर्शन,दम्भ व अहम की पुष्टि करना तथा अन्य लोगो का हनन व सन्तों के प्रति उदासीनता है। कहां भी गया है कि *धर्म में राजनीति का समावेश नहीं होना चाहिए जबकि राजनीति धर्ममय होनी चाहिए* तभी समाज का विकास संभव है।
यहां यह निवेदन योग्य है कि जब ऐसी परिस्थितिया अनवरत रूप से घटित हो रही है तो जैन संतों, मुनियों, आर्यिकाओं को ऐसे विवादों से बचना चाहिए और उसमें केवल प्रवचनों के माध्यम से मार्गदर्शन दें। उसे अंदर तक सुलझाने में अपनी भूमिका गौण कर ले तो ही ज्यादा बेहतर परिणाम निकल सकते हैं। समाज का धार्मिक धड़ा संतो के पक्ष में होता है किंतु दूसरा  धड़ा संतों के विरोध में हो जाता है।वह संत की गरिमा को भी ध्यान में नहीं रखते हैं और कुछ अप्रत्याशित घटनाएं जैसे कोटा ,फिरोजाबाद आदि स्थानों में घटित हुई घट जाती है।
*आज जैन समाज की व साधु संतों की गरिमा बनाए रखने पर चिंतन मनन व मंथन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है और यह कार्य स्वय समाज को ही करना होगा*।
संजय जैन बड़जात्या कामां

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