काशी जनपद की चन्द्रपुरी अथवा चन्द्रानना नगरी मे महासेन नामक एक धर्मनि्ष्ठ राजा राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम लक्ष्मणा था। इन्ही लक्ष्मणा देवी की रत्नकुक्षी से आठ्वे तीर्थन्कर श्री चन्द्रप्रभ जी का जन्म पौष क्रष्णा एकादशी के दिन हुआ। चन्द्र लक्षण से युक्त देह वाले बाल प्रभु का नाम चन्द्रप्रभ रखा गया। युवावस्था मे चन्द्र्प्रभ जी का अनेक राजकन्याओ से पाणिग्रहन हुआ। पिता के उत्तराधिकारी के रुप मे उन्होने शासन तन्त्र का दायित्व भी वहन किया। साम्राज्य का सन्चालन करते हुए भी चन्द्र्प्रभ जी का ध्यान आत्म-लक्ष्य पर स्थिर रहा। परिणामत: पुत्र के योग्य होने पर उन्होने राजपद का त्याग करके प्रव्रज्या का सन्कल्प किया।
एक वर्ष तक वर्षीदान देकर चन्द्र्प्रभ जी ने पौष क्रष्णा त्रयोदशी के दिन प्रव्रज्या अन्गीकार की। तीन मास की स्वकल्प अवधि मे ही घाती कर्मो को अशेष कर फ़ाल्गुन क्रष्णा सप्तमी को केवली बने। धर्मोतीर्थ की रचना कर तीर्थन्कर पद पर आरुढ हुए।
भगवान के धर्म -परिवार मे दत्त आदि तिराणवे गणधर हुए। दो लाख पचास हजार श्रमण, तीन लाख अस्सी हजार श्रमणिया, दो लाख पचास हजार श्रावक एवम चार लाख इक्यानवे हज़ार श्रमणिया, दो लाख पचास हजार श्रावक एवम चार लाख इक्यान्वे हजार श्राविकाए उनके धर्मसन्घ के सदस्य थे। भाद्रपद क्रष्णा सप्तमी को भगवान ने सम्मेद शिखर पर अनशनपुर्वक समस्त कर्म खपाकर सिद्धि का वरण किया।
चिन्ह का महत्व
चन्द्रमा –
भगवान का नाम ही चन्द्रप्रभु है। इसका अर्थ है चन्द्र की प्रभा से युक्त। चन्द्रमा जीवन में लाभ -हनि , यश -अपयश , उत्थान -पतन का प्रतीक है। यही संसार का स्वरूप है। चन्द्रमा के समान संसार के भौतिक सुख / इच्छाएं बढते -घटते रहते हैं। जन्म से म्रत्यु तक जीवन -कलाएं घटती -बढती रहती हैं इसलिए ये नश्वर हैं। इस नश्वर संसार में भी चन्द्रमा हमें आभायुक्त बने रहने का सन्देश देता है। यदि शुभ भावों का उदय होगा तो जीवन विकसित होता हुआ एक दिन पूर्णिमा तक पूर्णोदय प्राप्त हो जायेगा। यदि अशुभ भावों का उदय हुआ तो कलाएं निरन्तर क्षीण होती हुईं एक रेखा मात्र रह जायेगी।
फाल्गुन वदी सप्तमी के दिन, चार घातिया घात महान।
समवशरण रचना हरि कीनी, ता दिन पायो केवलज्ञान।।
साढे़ आठ योजन परमित था, समवशरण श्रीजिन भगवान।
ऐसे श्री जिन चन्द्रप्रभु को, अर्घचढ़ाय करूँ नित ध्यान।।
ॐ हृीं फाल्गुन कृष्ण सप्तम्यां केवलज्ञान मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्ला फाल्गुन सप्तमी के दिन, ललितकूट शुभ उत्तम थान।
श्रीजिन चन्द्रप्रभु जगनामी, पायो आतम शिव कल्याण।।
वसु कर्म जिनचन्द्र ने जीते पहुँचे स्वामी मोक्ष मंझार।
निर्वाण महोत्सव कियो इन्द्र ने देव करें सब जयजयकार।।
ॐ हृीं फाल्गुन शुक्ला सप्तम्यां मोक्ष मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद्