सोनल जैन की रिपोर्ट
श्री 1008 शांतिनाथ दिगंबर जैन धनवंती बाई मंदिर में आयोजित पूज्य गुरुदेव जिन मंदिर जीर्णोद्वारक संत, प्रशांत मूर्ति श्रमण मुनि श्री 108 विनय सागर जी ससंघ के सानिध्य में अष्टानिका महापर्व के शुभ अवसर पर आयोजित श्री 1008 सिद्ध चक्र महामंडल विधान एवं विश्वशांति महायज्ञ चल रहा है जिसमे सिद्धचक्र मंडल विधान के मे विनय सागर जी गुरुदेव ने कहा कि आप के पुण्य को प्रशस्त करें। यह विधान सिद्ध प्रभु की आराधना का विधान है, सिद्ध पद को हासिल करना है, तो उसके मार्ग को मन से अपनाना होगा। मुनि श्री ने बताया कि ‘अष्टान्हिका पर्व’ जैन धर्म के सबसे पुराने पर्वों में से एक है। ये पर्व वर्षभर में 3 तीन बार यानी कार्तिक मास, फाल्गुन मास और आषाढ़ के महीने में मनाया जाता है। इस पर्व की शुरुआत मैना सुंदरी द्वारा की गई थी, जिसने अपने पति श्रीपाल के कुष्ठ रोग निवारण के लिए प्रयास किए थे, इतना ही नहीं अपने पति को निरोग करने के लिए उन्होंने 8 दिनों तक सिद्धचक्र विधान मंडल तथा तीर्थंकरों के अभिषेक के जल के छीटे देने तक साधना की थी।पद्मपुराण में भी इस पर्व का वर्णन देते हुए कहा गया है कि सिद्ध चक्र का अनुसरण करने से कुष्ठ रोगियों को भी रोग से मुक्ति मिल गई थी।यह ऐसा अनुष्ठान है, जो हमारे जीवन के समस्त पाप, ताप और संताप नष्ट करता है। सिद्ध शब्द का अर्थ है कृत्य-कृत्य, चक्र का अर्थ है। समूह और मंडल का अर्थ एक प्रकार के वृत्ताकार यंत्र से है। इनको मिलाकर ही सिद्धचक्र बनता है। धर्म मे 5 पाप बताए गए हैं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह लेकिन मानते हम 4 पाप को हैं। क्योंकि हिंसा झूठ, चोरी, कुशील जैसे पापों से हम बचने का प्रयास निरन्तर करते हैं लेकिन जो परिग्रह का पाप हमारे जीवन मे लगातार लगा हुआ है, उससे बचने का प्रयास नहीं करते। कोई व्यक्ति हिंसा, झूठ,चोरी, कुशील संबंधित पाप करता है, तो हम उससे दूरी बनाते हैं। लेकिन जो व्यक्ति परिग्रह का पाप करता है, उससे सबंध बनाते हैं। उसका बहुमान करते हैं। हम उस समय इस पाप को भूल जाते हैं। इसलिए महावीर स्वामी ने धर्म में कहा है कि उक्त पांच पाप 108 तरीके से किए जाते हैं, जिसका दोष हमारे जीवन को धूमिल कर रहा है। इन पापों की निर्जरा लिए प्रत्येक जीव को णमोकार मंत्र की कम से कम एक माला अवश्य जपना चाहिए।यह बातें जिनालय में पधारे मुनि ने उपस्थित भक्तों से कही। उन्होंने समाज को मंगल आशीष प्रदान कर इसी तरह पुण्य कार्यों में अग्रसर रहने की बात की मुनि के मंदिर दर्शन,प्रवचन के बाद विद्वान संजय जी जैन सिहोनिया ने मंत्रोच्चार के साथ गुरुदेव को अर्घ समर्पित करते हुए श्री फल और शास्त्र भेंट किए।