आधुनिक समाज में शोक सभाओं का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। जिनका उद्देश्य कभी था—दुःख बाँटना, परिवार को मानसिक संबल देना, और मृतक के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करना—वह आज अनेक स्थानों पर अपने मूल भाव से भटकता हुआ दिखाई देता है। शोकसभा के नाम पर भव्य आयोजन, विशाल मंडप, सजावटी पर्दे, कालीन, उज्ज्वल रोशनी और आकर्षक मंच—ये सब अब आम रूढ़ियाँ बन गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई उत्सव मनाया जा रहा हो, न कि किसी दिवंगत व्यक्ति को सौम्य श्रद्धांजलि दी जा रही हो।
विचारणीय तथ्य यह है कि मृतक के परिवारजन भी कई बार अत्यन्त सुसज्जित रूप में उपस्थित होते हैं, जिनमें दुःख के भाव या सरल शोक-संवेदना का दर्शन कठिन हो जाता है। शोक का माहौल धीरे-धीरे प्रदर्शन की प्रवृत्ति में परिवर्तित हो रहा है, जिसमें संवेदना की जगह औपचारिकता और सामाजिक प्रतिष्ठा प्रमुखता ले रही है।
दिखावे की होड़ और सामाजिक दबाव :
आज शोक सभाएं भी समाज में प्रतिष्ठा का पैमाना बन गई हैं—कितने लोग आए, कितनी गाड़ियाँ लगीं, कौन-कौन से नेता और अधिकारी उपस्थित हुए—इन विषयों पर चर्चा अक्सर सभा के प्रभाव को आँकने का माध्यम बन जाती है।
यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे मध्यमवर्ग और निम्न मध्यमवर्ग को भी अपनी चपेट में ले रही है। बहुत-से परिवार आर्थिक बोझ उठाने में असमर्थ होते हुए भी समाज की ‘देखा-देखी’ में आडंबरपूर्ण आयोजन करने के लिए विवश हो जाते हैं। कहीं न कहीं यह सामाजिक दबाव, वास्तविक शोक संवेदना से अधिक, बाहरी दिखावे को महत्व देता है।
शोक सभाओं में चाय, कॉफी,लजीज भोजन, मिनरल वाटर इत्यादि की व्यवस्थाएँ अब इतनी विस्तृत होने लगी हैं कि यह पूरी सभा ‘श्रद्धांजलि’ से अधिक ‘आयोजन’ का रूप धारण कर लेती है। कई बार तो ऐसा अनुभव होता है कि हम किसी औपचारिक समारोह में आए हैं, न कि किसी पीड़ित परिवार के दुःख में सहभागी बनने।
शोक सभाओं की तो दूर अब तो अंतिम यात्रा, श्मशान घाट में लोग जिस तरह से हंसी ठिठोली करते नजर आते हैं उससे ऐसा प्रतीत होता है वे किसी उत्सव में आए हैं। शोक सभा हो या श्मशान घाट ये वो समय है जब हमें संसार की असारता का बोध होना चाहिए, इनसे हमारे जीवन में वैराग्य भावना प्रबल होनी चाहिए।
सामाजिक चेतना और वास्तविक समाधान :
समाज को इस कुप्रवृत्ति पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। शोक सभाएं दुःख का अवसर हैं, दिखावा या प्रतिस्पर्धा का नहीं। इस संदर्भ में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बातें ध्यान देने योग्य हैं—
1. शोक सभाएं पूर्णतः सादगीपूर्ण हों : ऐसे अवसरों को आडंबर से मुक्त रखना ही मृतक के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। कम खर्च, सरल व्यवस्था और शांत माहौल—यही शोक सभा की वास्तविक गरिमा है।
2. संपन्न वर्ग संयम दिखाए :समर्थ परिवार यदि अत्यधिक भव्य आयोजन करते हैं, तो अन्य परिवार सामाजिक दबाव में पड़कर असहज महसूस करते हैं। यह अनुकरणीय नहीं बल्कि दुरनुकरणीय उदाहरण बन जाता है। समाज में असमानता और अपराधबोध को बढ़ावा न मिले—इसका ध्यान रखना हम सबका दायित्व है।
3. इच्छुक परिवार दान-पुण्य की ओर प्रवृत्त हों :
यदि किसी के पास अधिक संसाधन हैं और वे इसे सदुपयोग करना चाहते हैं, तो ऐसे अवसरों पर सामाजिक संस्थाओं, तीर्थ क्षेत्रों, मंदिर, गरीब मरीजों या शिक्षा के क्षेत्र में दान देना अधिक पुण्यकारी और प्रभावी है। संस्थाएं स्वयं उस दान की प्रतिष्ठा समाज तक पहुँचा देंगी—अलग से प्रदर्शन की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
4. सेवा संस्थाएं समानता का व्यवहार करें :
सेवा का अर्थ केवल सम्पन्न लोगों की सेवा करना नहीं है। सभी वर्गों के प्रति समान संवेदना और सम्मान ही सेवा का वास्तविक रूप है। संस्थाएं यह सुनिश्चित करें कि हर परिवार को बिना भेदभाव के सहयोग मिले।
शोक सभा का उद्देश्य सदैव आत्मीयता, सरलता और सांत्वना रहा है। इसे समारोह और प्रतिस्पर्धा का मंच बनाकर हम न केवल परंपरा का अपमान करते हैं, बल्कि दुःखग्रस्त परिवार पर अनावश्यक बोझ भी डालते हैं। समाज को चाहिए कि वह इस प्रवृत्ति पर आत्मचिंतन करे और शोक सभाओं को उनके मूल स्वरूप—सादगी, शांति और संवेदना—की ओर लौटाए।
जहाँ शोक था, वहाँ अब प्रदर्शन का आकार है,
दुःख की जगह फैलता औपचारिक व्यवहार है।
श्रद्धा का सार सादगी में ही बसता है मित्र,
आडंबर में खो जाता संवेदना का संसार है।












