शारिरिक शुचिता के साथ मानसिक शुचिता भी आवश्यक यही उत्तम शौच धर्म

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दसलक्षण पर्व की क्रमांगता में चतुर्थ कषाय लोभ का विलोपन करना ही उत्तम शौच धर्म है अर्थात शारिरिक ही नही अपितु मानसिक शुचिता ही वास्तविक शौच धर्म है। सरल शब्दों में यह धर्म हम सबको संतोष के साथ जीवन व्यतीत करने का उपदेश प्रदान करता है।
उत्तम शौच धर्म का अर्थ आत्मा की पवित्रता और निर्मलता है, न कि केवल शारीरिक स्वच्छता है। गहनता के साथ अध्ययन करे तो व्यक्ति की बाह्य स्वच्छता से अधिक, आंतरिक स्वच्छता पर बल देता है।मुख्य उद्देश्य यही है कि अंतरतम में जब तीन कषाय क्रोध,मान, माया का गलन हो जाता है तो चतुर्थ कषाय लोभ का स्वतः ही शमन हो जाता है।
यह धर्म लोभ, आसक्ति, अतृप्ति और इच्छाओं से मुक्ति प्राप्त करने पर जोर देता है, जिसके लिए समभाव (समानता की भावना) और संतोष को अपनाना होता है। “लोभ को पाप का बाप” कहा गया है क्योंकि यह व्यक्ति को पाप की ओर ले जाता है, और उत्तम शौच धर्म इस लोभ रूपी मैल को संतोष रूपी जल से धोकर आत्मा को शुद्ध करने का मार्ग बताता है।
वर्तमान युग मे शौच धर्म की महत्ती आवश्यकता नजर आती है। जहां व्यक्ति धन प्राप्ति की अंधी दौड़ में स्वयं को खपाये रखता है। दुसरो के हितों पर कुठाराघात कर धन संपदा की प्राप्ति हेतु अनेको प्रकार से पाप के दलदल में समाता चला जाता है। नानाप्रकार के तरीकों से लोभ,लालच के वशीभूत होकर गलत कृत्य कर बैठता है।
उत्तम शौच धर्म यही कहता है कि मन से संतोषी रहोगे तो किसी भी प्रकार से पाप क्रियाओं में संलग्न नही हो पाओगे। कवि द्यानतराय ने कहा है कि “धरिये हिरदै सन्तोष,करहु तपस्या देहसों” अर्थात ह्रदय में सन्तोष धारण करके ही देह से तपस्या की जा सकती है।
युग का परिवर्तन हो रहा है किंतु सिद्धान्तों का नही अतः आगम सम्मत सिद्धान्तों का पालन कर जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है।शारीरिक शुद्धता के साथ-साथ मानसिक शुद्धता की भी बड़ी आवश्यकता है। आज का धर्म उत्तम शौच इसी शुचिता की ओर इंगित करता है। सभी को अपने मन मस्तिष्क में विशुद्धता धारण करते हुए जीवन यापन करना चाहिए।आंतरिक स्वच्छता के इस दिवस पर मन के मेल एवं कलुषता को निकाल कर सकारात्मक विचारों का आगमन करना ही शौच धर्म की सार्थकता है।
संजय जैन बड़जात्या कामां

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