महावीर दीपचंद ठोले औरंगाबाद (महा) 7588044495
भारत की रत्नगर्भा वसुंधरा संस्कृति प्रधान है। इस सम्यक पुरुषार्थ प्रधान संस्कृती में अनेक महापुरुषों ने जीवन में कर्म और पुरुषार्थ के बल पर परमात्मा पद को प्राप्त किया है। इन महापुरुषों के श्रेणी में दिगंबराचार्य आ शांतिसागरजी, आ देशभूषणजी, आ ज्ञानसागरजी ,आ वीरसागरजी के अज्ञानुवर्ती शिष्योत्तम आ विद्यासागरजी एवं आर्यिका गणिनी ज्ञानमती माताजी वर्तमान में शिखर पुरुष है। इन दोनों महापुरुषों के जीवन आतिशय की कई साम्यता हमें देखने को मिलती है। ईनके जन्मोत्सव के पुनीतअवसर पर मैं ईन्हें श्रद्धा ,भक्ति एवं समर्पण के पुष्प अर्पण करता हूं।
आचार्य प्रवर विद्यासागर जी एवं आर्यिका गणिनी ज्ञानमतीजी को देखने से ऐसा लगता है कि ये तीर्थंकर तो नहीं लेकिन तीर्थंकर से हल्का पुण्य लेकर ही आए हैं ।और ईनके संपुर्ण जीवनी को देखते हैं तो वास्तव में आप तीर्थंकर जैसे ही दिखते हैं।
इनमें अनेक साम्यता, विशिष्टता दिखाई देती हैं ,जैसे माता त्रीशला देवी को भगवान महावीर गर्भ मे आने के पूर्व सोलह स्वप्न दिखाई पड़े थे, वैसे ही आ श्री की माता श्रीमती अष्टगे तथा ग्यानमतीजी की माता मोहिनीदेवी को पड़े थे। उन्होंने देखा कि दो चारण रिद्धि धारी मुनि राजो को वह आहार दे रही हैं और आ श्री के पिताजी मल्लप्पा अष्टगे व माताजी के पिताश्री छोटेलालजी एकसौ आठ सहस्त्रदल वाले कमलों सेे देवो
की पूजा कर रहे हैं। जानकारों से जिज्ञासा का हल करने पर पता चला कि इन माता की कोख से पुण्यात्मा जीव का जन्म होने वाला है। और अतिशय भी यही हुआ । जैसे शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमाकी किरणोसे अमृत बरसता है जो सभी के लिए बहुत लाभदायक होती है और इसी दिन चंद्रमा अपने सभी कलाओं से परिपूर्ण होकर धरती पर अपनी अद्भुत छटा बिखेरता है।वैसे ही ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस तिथि को जन्मे शिशु भावी जीवनमे ग्यान का प्रकाश फैलाकर सर्वत्र शीतलता प्रदान करतेहै। 10 अक्टूबर 1946 आचार्य श्री विद्यासागर जी तथा 22 अक्टूबर 1934 को ज्ञानमती माताजी का अवतरण इस पावन धरा पर हुआ। यह संजोग ही है कि इन दोनों महापुरुषों का उवतरण इस धरती पर शरद पूर्णिमा को ही हुआ ।
जिस प्रकार निरभ्र आकाश मे पूर्णिमा का चांद अपनी निर्मल जोत्सना बिखेरता है और किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। वैसे ही आप दोनों ने शरद पूर्णिमा को प्रणम्य कर अपने अवतरण दिवस को शाश्वत चंद्र की चंद्रिका से उज्वल एवं प्रांजल बनाया है। आपका तेज पूर्णिमा के चंद्र की भांति युग को अमृतमयी संजीवनी प्रदान कर रहा है ।ऐसा लगता है कि शरद पूर्णिमा मात्र एक ही चंद्रमा को जन्म नहीं देती अपितु तीन चंद्रमा को जन्म देती है। आकाश का चंद्रमा तो मात्र धरती को शीतलता प्रदान करता है ,पर विद्यासागर जी और ज्ञानमती जी जैसे चंद्रमा जन-जन को, प्राणी मात्र को शीतलता प्रदान कर रहे हैं ।
चंद्रमा सिर्फ सीमित क्षेत्र के अंधकार को दूर करता है लेकिन आपका मुख रूपी चंद्रमा समस्त जगत के अज्ञान ,और मोह रुपी अंधकार को नष्ट कर देता है। चंद्रमा को तो कभी राहु भी ग्रस लेता है, कभी बादल भी ढक लेते हैं, किंतु आपके मुख रूपी चंद्रमा को संसार की कोई भी शक्ति अच्छादित नहीं कर सकती।
विद्यासागर जी का एवं ज्ञानमती माताजी का अवतरण इस धरती पर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए ही हुआ यह क्या अतिशय से कम है ?आपका बाल्य काल घर तथा गांव वालों के मनको जीतने वाली आश्चर्य कारी घटना से युक्त रहा है। आपकी सभी धार्मिक चर्या मानो भविष्य में अध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी ।
आचार्य श्री का पूर्व नाम विद्याधर था। आपने मात्र नववी कक्षा तक ही स्कूली पढ़ाई की। आपकी आध्यात्मिक अभिरूचि अल्पवय मे ही परिलक्षित होती थी। मात्र नौ वर्ष की बाल्यावस्था में आपने आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज का प्रवचन सुनकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का संकल्प कर लिया था ।और बाईस वर्ष की उम्र में ही आपने ज्ञान सागर जी से राजस्थान के ऐतिहासिक नगरी अजमेर में 30 जून 1968 को संयम के परिपालन हेतु पीछी, कमण्डलु धारण कर पदयात्री और करपात्री बन गए। ऐसे ही ज्ञानमतीजी जिनका पूर्व नाम मैनादेवी था वह भी आठ वर्ष की उम्र से ही अपने मनोयोग से शास्त्र चर्चा सुनती थी और सन 1952 में आ देशभूषणजी से ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था, आपकी पढ़ाई मात्र चौथी कक्षा तक ही हुयी।
विद्याधर माता-पिता की द्वितीय संतान थी आपके दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहने शांता व सुवर्णा ने आपकी प्रेरणासे जैनेश्वरी दीक्षा धारण की।अभी गत वर्ष आपके बडे भाई भी जीवन कल्याण हेतु आपके मार्ग पर निकल पडे। वैसे ही मैंना देवी माता-पिता की प्रथम संतान थी ।आपके ग्रहस्थाश्रम की माता मोहिनी देवी रत्नमती माता बनी ,छोटी बहन मनोवती आर्यिका अभयमतीबनी, कु माधुरी प्रज्ञाश्रमणी चंदनामती माता बनी तो छोटे भ्राता रविन्द्र रविंद्र कीर्ति जी भट्टारक बने ।जो जैन धर्म की पताका को सारी विश्व में फहरा रहे हैं ।धन्य है यह दोनों परिवार जो साक्षात रत्नो की खान ही है ।जिसमें परिवार के अनेक सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड़कर मुक्ति मार्ग पर चल रहे हैं ।इतिहास मे ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है ।
दोनों की साधना, तपस्यासे न केवल श्रमणत्व गौरवान्वित हुआ है, अपितु समाजोत्थान में भी आपकी भूमिका ,आपका साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अवदान श्रावक एवं श्रमणो के प्रसंस्करण में कालजयी है ।जहा आचार्य श्री से दीक्षित लगभग तीनसौ से अधिक शिष्य निर्गन्थ परंपरा का दृढ़ता से परिपालन कर रहे है और शताधिक शिष्य ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर जीवन को आदर्श बना रहे हैं, वहीं पर माताजी ने अब तक पाचसौ से अधिक ग्रंथो का सृजन किया है। आपका यह कार्य न केवल वर्तमान, अपितु शताब्दीयो तक जैन धर्म की पताका के गौरवमयी आभा का उल्लेखनीय एवं स्तुत्य कार्य है। जैसे आचार्य श्री साक्षात विद्या के सागर है, तो माताजी साक्षात ज्ञान का भंडार है ।दोनों ने अपने नाम को सार्थक कर दिया है। और श्रमणो की श्रृंखला में उच्च स्थान पर आरुढ हो गए हैं। आप दोनों की ज्ञानशक्तिअत्यन्त तीक्ष्ण है इसीलिए आपके सामने इंटरनेट ,कंप्यूटर भी कम पड़ जाता है। आपकी बुद्धि में इतना ज्ञानका अथाह सागर भरा पड़ा है कि ऊसके कारण अनेक आचार्य , प्रतिभाशाली पंडित, विद्वान, तत्व ज्ञानी, शास्त्रग्य सभी आपको नमन करते हैं ।
आप दोनों ने अनेक प्राचीन तीर्थो का, तीर्थंकरों के जन्मभूमियो का जीर्णोद्धार कराकर विश्व के मानस पटल पर जैन धर्म के इतिहास को पुनर्जीवित किया है जो युगो युगो तक स्वर्णाकित रहेगा।
आप वर्तमान में श्रमणों की श्रृंखला में श्रेष्ठ एवं जेष्ठ है। आपकी ओजपूर्ण और माधुर्य पूर्ण वाणी मे ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीवन मे संयम की त्रिवेणी है । जीवों के प्रति मित्रवत् व्यवहार में सोंधी सुगंध विद्यमान है ।आप थ्री इन वन पर्सन की ऊक्ति को चरितार्थ होते हुए एक प्रखर दार्शनिक, चरित्र संपन्न, आध्यात्मिक एवं सरस साहित्यिक रूपी व्यक्तिमत्व की त्रिवेणी के पवित्र संगम है ।आप हवा के समान नि:संग, सिह के समान निर्भीक, मेरूके समान अचल, सूर्य के समान तेजस्वी और शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के समान शुभ्र एवं शीतल है ।
आप दोनों के चरणों में जन्मोत्सव के अवसर पर मै एक छोटासा विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि हमारा जैन समाज पंथवाद, संतवाद, परंपरावाद, में बिखूर रहा है और समाज का भविष्य बहुत अंधकारमय लग रहा है। आप श्रेष्ठ एवं जेष्ठ है। सभी पंथो के आचार्य, श्रेष्ठि जन, विद्वान आपकी बात शिरोधार्य मानते हैं। सभी को एक मंच पर लाकर इस चिंतनशील समस्या का,विवाद का हल आपकी माध्यम से होना चाहिए ।और हमारे इस डूबते हुए जहाज को बचाना चाहिए ।हम सब मिलकर जैन एकता के सद्प्रयासो को सफल बनाने के लिए अपने अहम् ,स्वार्थ, मान लोभऔर ऐषणाओ को त्याग कर इस पंथ वाद निर्मूलन में अपने आहुति दे और नव जैन समाज के निर्माण में अपना सार्थक योगदान दे।
दोनों तपस्वियों के जन्म कल्याणक के अवसर पर मै श्रद्धा ,भक्ति एवं समर्पण के पुष्प अर्पण करते हुए भावना भाता हु की आचार्य विद्यासागर जी *तपसा निर्जराच*सुत्र को ह्रदयगम करके उत्कृष्ट तप के द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं। वह भविष्य में आपकी घातीया कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान की प्राप्ति में सहायक बनेगी और आप तीर्थंकर के रूप में अवतरित होंगे ।वैसे ही माताजी का ज्ञान,ध्यान दिन प्रतिदिन बढ़कर आपके शाश्वत धाम अर्थात स्त्री पर्याय को छेद कर शीघ्र मुक्तिरूपी लक्ष्मी को वरण कर अगले भव में लोकातिक देव बनेंगी। और हम आपके पदानुरागी
एवं गुणानुरागी रहेंगे।
श्री संपादक महोदय, सा जयजिनेद्र।
आनेवाली शरदपोर्णिमा 28अक्तुबर कोआ श्री विद्यासागर जी गुरूदेव एवं आर्यीका गणिनी ग्याणमती माताजी के जन्मोत्सव निमित्त यह आलेख प्रकाशित कर उपकृत करे धन्यवाद।