दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति के उन्नायक, प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज के आचार्य पदारोहण के एक सौ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। वर्ष 2024-25 में शताब्दी महोत्सव को समग्र भारत वर्ष में जैन समाज आचार्य पदारोहण शताब्दी वर्ष के रूप में विभिन्न आयोजनों के साथ मनाएगा। परंपरा के पट्टाचार्य परम पूज्य वात्सल्य वारिधि वर्द्धमानसागर जी महाराज के पावन मार्गदर्शन, सान्निध्य में अनेक आयोजनों की श्रृंखला चलेगी। इस संबंध में परम पूज्य आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज व संघस्थ परम पूज्य मुनि श्री हितेंद्र सागर जी महाराज से विजयनगर राजस्थान में विस्तृत चर्चा व मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। साथ में जैन गजट के साथी सह संपादक श्री राजेन्द्र महावीर भी साथ थे। उक्त आयोजन को लेकर एक राष्ट्रीय समिति का गठन भी कर लिया गया है जो वृहद स्तर पर आयोजन की तैयारियों में जुटी हुई है।
हम सब परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के विशिष्ट अवदान से परिचित हैं। 20वीं शताब्दी के प्रारंम्भ होने तक जैन मुनियों का प्रादुर्भाव कम होने लगा तब ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने न सिर्फ दिगम्बरत्व का संरक्षण किया अपितु शास्त्रानुसार आदर्श श्रमण परम्परा का निर्वहन किया। वर्तमान में भरतवर्ष में जितने भी श्रमण-श्रमणियां रत्त्रय धर्म का आराधन कर रहे हैं वे सब उन्हीं के वंशज हैं।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री एकबार पुनः भगवान महावीर के युग का स्मरण कराया था। उन्होंने णमोकार मंत्र के ‘णमो आइरियाणं’ को आदर्श रूप से सुशोभित किया है। अपने तप, त्याग, साधना, संयम द्वारा मुनिचर्या के आगमोक्त मार्ग बताया। उनका जीवन महान पथ प्रदर्शक के रूप में था। आचार्यश्री ने जहाँ जैनधर्म और संस्कृति के वास्तविक पथ को पुनर्स्थापित किया वहीं उन्होंने समाज की कतिपय कुरीतियों पर भी ध्यान आकर्षित कर उनके जड़मूल से समापन का सार्थक सफल प्रयास किया। परम पूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज परम विरागी, निस्पृह, प्रशान्तमूर्ति, सरल, सहज परिणामी संत थे। वे प्रायः कर अनशन, उनोदर, व्रत परिसंख्यान, रस परित्याग आदि तपों में संलग्न रहते थे। उन्होनें मुनि अवस्था में कभी पूर्णोदर आहार नहीं किया। बेला, तेला, चौला आदि उपवास निरंतर करते। वे अंतरंग तपों में भी सदैव सजग रहते थे। प्रायः करके वे सदैव स्वाध्याय, चिंतन, मनन, कायोत्सर्ग और ध्यान में ही अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी तपश्चर्या अद्भुत थी। जीवन में अनेक उपसर्गों को समता के साथ सहन किया ,वे उपसर्ग विजयी थे।
आचार्यश्री के जैन समाज पर अनन्त उपकार हैं। आचार्य पदारोहण शताब्दी वर्ष के दौरान उनके द्वारा किए गए धर्म, शास्त्र, तीर्थ एवं जिनालयों के संरक्षण के साथ दिगम्बरत्व का सम्पूर्ण भारत में निर्बाध विहार एवं दिगम्बर जैन संस्कृति को दैदीप्यमान रखने वाले प्रकाश स्तम्भ के रूप में स्मरण किया जाएगा।
हम सभी का परम सौभाग्य है कि ऐसे चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का आचार्य पदारोहण शताब्दी वर्ष मनाने का सौभाग्य प्राप्त होने जा रहा है। हमें आचार्यश्री के उपकारों को याद करते रहना चाहिए। हम इस मौके पर आचार्यश्री के जीवन पर संगोष्ठी, निबंध प्रतियोगिता, परिचर्चा, नाटिका, डाक्यूमेंट्री फ़िल्म, चित्रकला प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता आदि के माध्यम से आज की पीढ़ी को आचार्यश्री के जीवनवृत्त से परिचित करा सकते हैं। आईए पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ इस शताब्दी वर्ष को प्राण-प्रण से मनाने के लिए तैयार हो जाएं।
उनको मिटा सके, यह जमाने में दम नहीं।
उनसे जमाना खुद है, जमाने से वह नहीं।।