सप्त व्यसन

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सप्त व्यसन हों जहाँ समाहित, कर्मबंध, सुख कोसों दूर ।
जिन पथ की न पाता संज्ञा, शालत ज्यों कीचड़ का शूर ॥
जुआ खेलता जो नर देखो, नहीं भरोसा कब क्या हार ।
पांडव कौरव राज्य दशा लख, भेंट चढ़ा दी थी स्व नार ।।

मांस का भक्षण जो नर करता, क्षमा धर्म न उसके साथ ।
मन वच काया हृदय कपट हो, भय न खाता सन्मुख नाथ ।।
मद्यपान का व्यसन जिन्हें है, होश न रखता माँ या नार ।
गंदा थान श्वान स्वागत को, सब कुछ खोता हो लाचार ।।

वेश्या गमन संगति जिनके, अंत उसी का बनता दास ।
चारूदत्त की कथा प्रसिद्धि, दीनारों संग खोय निवास ।।
है शिकार की आदत जिसको, पर प्राणों का करता नाश ।
दया क्षमा मृदुता न जिनके, रखता ज्यों भुजंग विष-वास ।।
चोरी की आदत जिनकी है, पर-वस्तु हर दम ललचाय ।
अंजन जैसा चोर भी फसता, नारी के वश मुख की खाय ।।

पर-दारा का मन में लालच, तन मन धन सब समय गवाय ।
फसते नारी धोखा देती, सजा मिले न जिसकी थाह ।।
सप्त व्यसन तज; सुख जो चाहत, मानव बनकर प्रभु की राह ।
लिप्त व्यसन जो-जो जीवन में, लख खुद जीवन उनकी दाह ।।

रचनाकार -मुनिश्री विबोधसागर महाराज
मुरैना (म.प्र.) में चातुर्मासरत 2025
चरण सेवक -मनोज जैन नायक

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