संस्कृति के आद्य प्रणेता तीर्थंकर ऋषभदेव

तीर्थंकर ऋषभदेव जन्म कल्याणक 16 मार्च 2023 पर विशेष

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प्रतिवर्ष चैत्रकृष्ण नवमी को तीर्थंकर ऋषभदेव जन्मकल्याणक जैन समुदाय में हर्ष, उल्लास के साथ श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है। इस दिन प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) का जन्म हुआ था। राजा नाभिराय और उनकी पत्नी रानी मरूदेवी से चैत्रकृष्ण नवमी के दिन मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक पुत्र का जन्म अयोध्या में राजघराने में हुआ था। इन्द्रों ने बालक का सुमेरू पर्वत पर अभिषेक महोत्सव करके ‘ऋषभ’ यह नाम रखा। जैन परम्परा में मान्य चौबीस तीर्थंकरों की श्रृखंला में भगवान ऋषभदेव का नाम प्रथम स्थान पर एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं।

तीर्थंकर ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता माने जाते हैं। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में समागत उनके उल्लेख यह कहने के लिए पर्याप्त हैं कि ऐसे महापुरूष थे जिन्होंने मानव समुदाय को कृषि, लेखन, व्यापार, शिल्प, युद्ध और विद्या की शिक्षा दी। किसी भी व्यक्ति और समुदाय के लिए इन प्रकल्पों की शिक्षायें आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य होती हैं।
विश्व के प्राचीनतम लिपिबद्ध धर्म ग्रंथों में से एक वेद में तथा श्रीमद्भागवत इत्यादि में आये भगवान ऋषभदेव के उल्लेख तथा विश्व की लगभग समस्त संस्कृतियों में ऋषभदेव की किसी न किसी रूप में उपस्थिति जैनधर्म की प्राचीनता और भगवान ऋषभदेव की सर्वमान्य स्थिति को व्यक्त करती है।

नवीं शती के आचार्य जिनसेन के आदिपुराण में तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित्र का विस्तार से वर्णन है । भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेव ही एक ऐसे आराध्यदेव हैं जिसे वैदिक संस्कृति तथा श्रमण संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है । यह गौरव की बात है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं, अपितु कुछ विद्वान भी संभवतः इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्ड रूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम नाभिखण्ड ‘अजनाभवर्ष’ भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता ‘नाभिराय’ के नाम से प्रसिद्ध था।

जैनधर्म के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इस विश्व के लिए उज्जवल प्रकाश हैं। उन्होंने कर्मों पर विजय प्राप्त कर दुनिया को त्याग का मार्ग बताया। भगवान ऋषभदेव की शिक्षाएं मानवता के कल्याण के लिए हैं, उनके उपदेश आज भी समाज के विघटन, शोषण, साम्प्रदायिक विद्वेष एवं पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सक्षम एवं प्रासंगिक हैं। भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है।

सामाजिक संरचना में उन्होंने प्रजाजनों केा श्रेणियों में विभाजित करते हुए उनको अपने- अपने कर्तव्य अधिकार तथा उपलब्धियों के बारे में प्रथम मार्गदर्शन किया। सर्वांगीण विकास के मूल आधारभूत तत्वों का विवेचन कर वास्तविक समाजवादी व्यवस्था का बोध कराया। प्रत्येक वर्ण व्यवस्था में पूर्ण सामंजस्य निर्मित करने हेतु तथा उनके निर्वाह के लिए आवश्यक मार्गदर्शक सिद्धांत, प्रतिपादन करते हुए स्वयं उसका प्रयोग या निर्माण करके प्रात्याक्षिक भी किया। अश्व परीक्षा, आयुध निर्माण, रत्न परीक्षा, पशु पालन आदि बहत्तर कलाओं का ज्ञान प्रदर्शित किया । उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं का

वर्गीकरण कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है-

1.असि-शस्त्र विद्या, 2. मसि-पशुपालन, 3. कृषि- खेती, वृक्ष, लता वेली, आयुर्वेद, 4.विद्या- पढना, लिखना, 5. वाणिज्य- व्यापार, वाणिज्य, 6.शिल्प- सभी प्रकार के कलाकारी कार्य।

जैन परंपरा के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया। अनेकानेक शिल्पों की अवधारणा की। कृषि और उद्योग में अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया। कर्मयोग की वह रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन जीवन में सब ओर नव बंसत खिल उठा। जनता ने अपना स्वामी उन्हेें माना और धीरे-धीरे बदलते हुए समय के अनुसार वर्ण व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था, विवाह आदि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हुआ।

ऋषभदेव ने महिला साक्षरता तथा स्त्री समानता पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। अपनी दोनों पुत्रियों को ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान के साथ साथ व्याकरण, छंद, अलंकार, रूपक, उपमा आदि के साथ स्त्रियोचित अनेक गुणों के ज्ञान से अलंकृत किया।लिपि विद्या को ऋषभदेव ने विशेष रूप से ब्राह्मी को सिखाया। इसी के आधार पर उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपी पड़ गया। ब्राह्मी लिपी विश्व की आद्य लिपी है। दूसरी पुत्री सुंदरी को अंकगणतीय ज्ञान से पुरस्कृत किया। आज भी उनके द्वार निर्मित व्याकरणशास्त्र तथा गणितिय सिद्धांतो ने महानतम ग्रंथों में स्थान प्राप्त किया है। आज जब भारत सरकार बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ का अभियान चला रही है, ऐसी में ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्रियों को दी गयी शिक्षा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। उनके द्वारा दी गयी बेटियों के शिक्षा संदेश को यदि अमल में लाया जाय तो इस अभियान में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलेगे।

प्रशासनिक कार्य में इस भारत भूमि को उन्होंने राज्य, नगर, खेट, कर्वट, मटम्ब, द्रोण मुख तथा संवाहन में विभाजित कर सुयोग्य प्रशासनिक, न्यायिक अधिकारों से युक्त राजा, माण्डलिक, किलेदार, नगर प्रमुख आदि के सुर्पुद किया। आपने आदर्श दण्ड संहिता का भी प्रावधान कुशलता पूर्वक किया। तीर्थंकर ऋषभदेव अध्यात्म विद्या के भी जनक रहे हैं। उनके पुत्र भरत और बाहुबली का कथन इस तथ्य का प्रमाण है कि संसारी व्यक्ति कितना रागी-द्वेषी रहता है, जो अपने सहोदर के भी अधिकार को स्वीाकर नहीं कर पाता। दोनों भाईयों के बीच हुआ युद्ध हर परिवार के युद्ध का प्रतिबिम्ब है। बाहुबली का स्वाभिमान हर व्यक्ति के स्वाभिमान का दिग्दर्शक है। निरासक्त व्यक्ति की यह आध्यात्मिक दृष्टि है।

तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जीवन शैली, दर्शन एवं आर्दर्शों का प्रचार-प्रसार भारतीय युवा पीढ़ी के लिए और भी अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है क्योंकि पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से इनमें भौतिकवादी विचारों एवं आदर्शों को आगे ले जाने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है जिसे पुरजोर प्रयास से साथ रोकना अनिवार्य है। पाश्चात्य सभ्यता का यह मार्ग निःसंदेह भारतीय संस्कृति और सभ्यता के मार्ग से काफी भिन्न है और संभवतः हमारे मानवीय मूल्यों के विपरीत भी है।

आज मानवता के सम्मुख भौतिकवादी चुनौतियों के कारण नाना प्रकार के सामाजिक एवं मानसिक तनाव तथा संकट व्यक्तिगत, सामाजिक एवं भूमण्डल स्तर पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। भगवान ऋषभदेव द्वारा बताई गई जीवन शैली की हमारी सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में काफी प्रासंगिकता एवं महत्ता है। उनके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी झलकियां मिलती हैं जिन्हें रेखांकित करके हम अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत तथा शिक्षाएं आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक और उपयोगी हैं तथा भविष्य के विश्व संस्कृति के लिए आधार हैं।

-डाॅ0 सुनील जैन संचय

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