हमारे देश में दोहरे मापदंड अपनाये जाते हैं यानी हम दोगले हैं .एक तरफ सरकार जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करती हैं और दूसरी तरफ फ़र्टिलाइज़र ,रासायनिक औषधियों पर जोर देती हैं .एक तरफ शाकाहार पर बल देती हैं तो दूसरे तरफ पिंक क्रांति के नाम पर मांस निर्यात में हम विश्व में पहले नंबर पर हैं और खाने में पांचवे नंबर पर हैं .एक तरफ नदी संरक्षण की बात करते हैं और दूसरी तरफ गगनचुम्बी भवनों के निर्माण में रेत का उपयोग करते हैं .एक तरफ कुपोषण से मर रहे हैं और दूसरी तरफ जहर रूपी अण्डों का स्कूलों में वितरण करा रहे हैं .एक तरफ भवनों की आतंरिक सुसज्जा के लिए सागवान की लकड़ी काउपयोग करना अनिवार्य हैं और दूसरी तरफ वनों की कटाई पर पाबन्दी हैं .डॉक्टर विहीन चिकित्सालय शिक्षक और भवन विहीन स्कूल और कहींकहीं छात्र बिना स्कूल चल रहे हैं .बरसात की पहली बौछार में सड़क की कलई खुल जाते हैं .ऐसे कितने उदाहरण दे .?
जब तक हरित क्रांति नहीं आयी थी तब हम भुखमरी से मरते थे उसके बाद रसायनो के उपयोग के कारण कैंसर ,डायबिटीज ,हृदय रोग आदि घातक बिमारियों से मरने लगे. इसी प्रकार दुग्ध क्रांति के कारण दूध उत्पादन बढ़ा और अब जितना उत्पादन नहीं उससे अधिक खपत होने से आज देश में नकली दूध की नदियां बह रही हैं ,आर्थिक तंगी के कारण और अपनी गरीबी दूर करने सरकार पिनकरंति के नाम पर जानवरों की हत्या करके मांस निर्यात कर रही हैं और दूसरी तरफ गौशालाओं का निर्माण का नाटक कर रही हैं .जगह जगह यांत्रिक कत्लखाने खोलती हैं और छद्म गौ संरक्षण की बात करती हैं .जिस देश में आर्थिक उन्नति मांस के निर्यात से होगी उसका भविष्य अंधरकारमय और हिंसाजन्य होगा .
कितनी भी सेना ,सुरक्षा बल बढालो पर हिंसा ,आतंकवाद रुक नहीं सकती ,कारण हिंसा का हिंसा नहीं अहिंसा हैं .पर सरकारें दोगले चरित्र का पालन करके मात्र छलावा करती हैं और अंत में दुःख ही झेलना पड़ते हैं .हम अपने विवेक का उपयोग ना करके जब अमेरिका और अन्य देश कुछ कहते हैं तब उन पर सोचते हैं.और सोचते ही रहते हैं और रहेंगे .
आईपीसीसी की रिपोर्ट का साफ इशारा यह है कि हमें अपनी जीवन-पद्धति बदलनी होगी। यह तभी संभव है जब हम यह मानने को तैयार हों कि जिसे हम विकास समझ रहे हैं वह एक मायने में विनाश है।
संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने बृहस्पतिवार को जलवायु परिवर्तन और भूमि संबंधी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया को घेर रही इस स्थायी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए जीवाश्म-ईंधन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे, शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा। रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 23 फीसदी कृषियोग्य भूमि का क्षरण हो चुका है, जबकि भारत में यह हादसा 30 फीसदी भूमि के साथ हुआ है। जमीनों का रेगिस्तानीकरण जारी है। तकनीकी तौर पर मरुस्थल उस इलाके को कहते हैं, जहां पेड़ नहीं सिर्फ झाड़ियां उगती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण पैदावार में गिरावट आ रही है और खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व कम होते जा रहे हैं। इससे खाद्य सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित होगी।
अनुमान है कि 2050 तक खाद्य वस्तुओं की कीमतें 23 प्रतिशत तक बढ़ जाएंगी। 25-30 प्रतिशत खाद्य पदार्थ अभी यूं ही बर्बाद हो जाते हैं। इस बर्बादी को कम करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम होगा और खाद्य सुरक्षा में सुधार होगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट का साफ इशारा यह है कि हमें अपनी जीवन-पद्धति बदलनी होगी। यह तभी संभव है जब हम यह मानने को तैयार हों कि जिसे हम विकास समझ रहे हैं वह एक मायने में विनाश है। हम जहां तक पहुंच चुके हैं वहां से एकाएक पीछे लौटना मुमकिन नहीं, पर विकास की दिशा बदली जा सकती है, उसकी रफ्तार घटाई जा सकती है। आईपीसीसी रिपोर्ट जो कह रही है, पहले वही बात दूसरी रिपोर्टों ने भी कही है। भूमि की बर्बादी को लेकर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की एक रिपोर्ट में भी भारत के कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 30 फीसदी हिस्सा मरुस्थल बन जाने की बात दो साल पहले आ चुकी है। प्राकृतिक कारणों या मानवीय गतिविधियों के चलते जैविक उत्पादकता में कमी की स्थिति को भू-क्षरण कहा जाता है।
जिन इलाकों में यह भू-जल के खात्मे के चलते हो रहा है, वहां इसे मरुस्थलीकरण का नाम दिया गया है। लेकिन शहरों का दायरा बढ़ने के साथ सड़क, पुल, कारखानों और रेलवे लाइनों के निर्माण से खेतिहर जमीन का खात्मा और बची जमीन की उर्वरा शक्ति कम होना भू-क्षरण का दूसरा रूप है, जिस पर अभी बात ही नहीं होती। वन क्षेत्र का लगातार खत्म होना भी इसकी एक बड़ी वजह है। अभी आईपीसीसी रिपोर्ट में आए सुझावों पर अमल शुरू किया जा सके तो थोड़ी राहत मिल सकती है। इसके मुताबिक बिना जुताई वाली खेती और खाद के सीमित, लक्षित उपयोग से 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 18 फीसदी की कमी की जा सकती है और अगर हम खानपान में साग-सब्जियां बढ़ाएं और रेड मीट का इस्तेमाल घटा दें तो उत्सर्जन में एक तिहाई कमी मुमकिन है।
इन रिपोर्ट पर सरकार गंभीरता से पालन करे तो ठीक हैं नहीं तो कुछ नहीं होने वाला हैं .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन ,संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू नियर डी मार्ट ,होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल 09425006753