सन्तों की साधना और सामाजिक सौहार्द का अनुपम संगम है वर्षायोग

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वर्षायोग जैन धर्म के अनुसार आत्म रमण कर आत्मशुद्धि का उत्कृष्ट आध्यात्मिक समय है। जो आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से प्रारम्भ होकर श्रावण,भाद्रपद,आश्विन व कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तक वर्षा काल मे चलता है। वर्षायोग स्थापना से निष्ठापन्न तक एक स्थल पर प्रवास कर जैन संतो व साध्वियों के माध्यम से जहां सामाजिक एकता,सदभाव, संघठन,सहयोग के भाव सशक्त होते हैं वही धार्मिक प्रभावना भी मजबूत होती है। जैन धर्म की मूल अवधारणा अहिंसा परमोधर्मः की उत्कृष्टता का परिचायक ही वर्षायोग है।
       वर्षायोग का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख दिगम्बर जैन ग्रन्थों में मिलता है, मूलाचार ग्रन्थ में मुनियों के दस स्थिति कल्पों में पद्य नामक कल्प वर्षायोग का विधान है, वहाँ पर कहा गया है कि मुनिजनों को वर्षायोग नियमत: करना चाहिए, इसी प्रकार अन्य ग्रन्थों में भी वर्षायोग का विधान है। बौद्ध के चातुर्मास का तथा हिन्दु ग्रन्थ बाल्मीकि रामायण आदि में श्री रामचन्द्र जी के चातुर्मास का उल्लेख है, चातुर्मास की परम्परा आज भी निर्वाधित रुप से चली आ रही है, दिगम्बर जैन संत आज भी नियम से चातुर्मास करते हैं।
    *वर्षायोग का अर्थ* :-   वर्षायोग दो शब्दों से मिलकर बना है, वर्षा + योग = वर्षायोग, वर्षा यानि वर्षात्, योग यानि धारण करने वाली, योग शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है- यथा योगशास्त्र में योग का अर्थ मिलना अर्थात् आत्मा से जुड़ने को योग कहा जाता है।गणित शास्त्र में वृद्धि को योग कहा जाता है। जैन ग्रन्थों में आध्यात्मिक साधना, आराधना, बाह्याभ्यंतर तप, निश्चय व्यवहार परक पंचाचार, ध्यान को भी योग कहा गया है। प्राचीन काल में मुनिगण वर्षाकाल में किसी वृक्ष के नीचे ४ माह तक स्थिर और अखण्ड साधना करते थे किन्तु वर्तमान काल में हीन संहनन (कम शक्ति) होने के कारण किसी तीर्थक्षेत्र, ग्राम, नगर, मन्दिर या धर्मशाला आदि में रहकर यथा शक्ति साधना करते हैं, इसीलिए वर्षायोग या वर्षावास यह सार्थक संज्ञा है।
*वर्षायोग यथा चातुर्मास* :- श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार माह में वर्षायोग होने से इसे चातुर्मास भी कहते हैं, इससे अर्थ स्पष्ट होता जाता है कि वर्षायोग का संबंध मात्र वर्षा ऋतु के दो माह से नहीं अपितु वर्षाकाल के चार माह से है, अत: ‘चातुर्मास’ भी सार्थक संज्ञा है।
वर्षायोग क्यों :- वर्षाकाल मे अनंत जीवों वाली साधारण वनस्पति अर्थात् हरी घास उत्पन्न हो जाती है। असंख्य सूक्ष्म जीव कीट पतंगे आदि जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। बिलों में पानी भर जाने से बहुत से जीव जन्तु बिलों से बाहर आ जाते हैं, जिससे उन सबकी रक्षा बहुत कठिन हो जाती है, अत: अहिंसा व्रत के धारी जैन साधुजन अपने प्राणी संयम की रक्षा हेतु चातुर्मास करते हैं अर्थात् चार माह एक ही स्थान पर ठहरते हैं। वर्षायोग के अंतर्गत सबसे बड़े पर्व क्षमा पर्व व अन्य अवसरों पर परस्पर मेलजोल,तालमेल,मेलमिलाप व गीले शिकवे दूर कर सामाजिक सौहार्द को सन्तों के सानिध्य में अत्यधिक मजबूती प्रदान होती है अतः वर्षायोग को सामाजिक सोहार्द का पर्व भी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी।
*वर्षायोग कब*:- चातुर्मास की स्थापना आषाढ माह के शुक्ल चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में की जाती है और समापन कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की अंतिम रात्रि में साधुजन चातुर्मास समाप्त करते हैं क्योंकि इस दिन ही वीर निर्वाण संवत् आदि की परि समाप्ति होती है। राजाओं के युग में आर्थिक वर्ष की भी पूर्णता दीपावली अर्थात् कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन ही मानी जाती है इसी दिन वार्षिक आय-व्यय की पूर्णता पुरानी बही-खातों में की जाती है।
*वर्षायोग से लाभ* :- चातुर्मास काल में साधुगणों को गमनागमन की सीमा निर्धारित कर चार माह एक ही स्थान पर रहने से ध्यान, अध्ययन, संयम साधना,चिंतन का अधिक अवसर प्राप्त होता है, उनकी त्याग तपस्या भी सर्वाधिक होती है। साधुजनों के माध्यम से श्रावक संस्कार शिविर, पूजन शिविर, शिक्षण शिविर, व्यसन मुक्ति- शाकाहार अभियान, स्वाध्याय कक्षा, सामाजिक संगठन, विधान प्रवचन से धर्म प्रभावना का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है।
वर्षाकाल में प्राय: व्यवसाय, शादी विवाह आदि नहीं होने से श्रावक जनों को भी पर्याप्त मात्रा में धर्मलाभ प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। साधुओं के उपदेश से श्रावक क्षेत्रादिकों में दान, आहार दान इत्यादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त होकर धर्म का अर्जन करते हैं। श्रावकों का साधुओं के निकट आने से उनमें भी तप, त्याग, साधना चर्या के संस्कार आते हैं।
*संजय जैन बड़जात्या कामां,संवाददाता जैन गजट*

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