संस्कृति का सम्मेलन है चातुर्मास -डॉ सुनील जैन संचय, ललितपुर

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श्रमण, वैदिक और बौद्ध संस्कृति में चातुर्मास की व्यवस्था है। साल के  सावन, भाद्रपद,आश्विन और कार्तिक इन चार माह में चातुर्मास होता है।  कैलेंडर के अनुसार ये माह वर्षा काल के माने गए हैं।  इन दिनों अधिक वर्षा होने से जीवों की उत्पति अधिक होती है। ऐसे में उन जीवों की हिंसा न हो जाए, इस भाव से चातुर्मास इन चार माह में ही होता है।
चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी  से प्रारंभ होता है और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि तक माना जाता है। चातुर्मास धार्मिक जगत की धुरी है। वर्षावास या चातुर्मास का न केवल पर्यावरण व कृषि के दृष्टिकोण से वरन् धार्मिक दृष्टिकोण से भी विशेष महत्व है। वर्षा ऋतु में जीवोत्पत्ति विशेष रूप से हो जाती है। पानी के सम्पर्क में आकर भूमि में दबे बीज अंकुरित हो जाते हैं। सीलन, फलन, फफूंद, काई की उत्पत्ति हो जाती है। त्रस व स्थावर जीवों की अधिकता के कारण उनकी विराधना की संभावना अधिक हो जाती है। जगह-जगह जल एकत्रित हो जाने से एक गांव से दूसरे गांव या शहर तक पगडण्डी द्वारा विहार संभव नहीं हो पाता है। आगम शास्त्रों में भी स्पष्ट निर्देश हैं कि चातुर्मास के दौरान साधु-साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए। चातुर्मास का संयोग हमारी मनःस्थिति में भरे विभिन्न प्रदूषणों को समाप्त करने के साथ ही दुष्प्रवृत्तियों को सत्य वृत्तियों में बदलने का कार्य करता है।
मन, वचन और शरीर को शुद्ध करने का पर्व चातुर्मास है।  इन चार महीनों में कई धार्मिक पर्व आते हैं जो मनुष्य को धर्म अध्यात्म के करीब लाने का कार्य करते हैं। आध्यात्मिक जागृति का पर्व चातुर्मास माना जाता है। यह जीवन को साधने का स्वर्णिम समय होता है।  इन दिनों अधिक वर्षा होने से जीवों की उत्पति अधिक होती है। ऐसे में उन जीवों की हिंसा न हो जाए, इस भाव से जैन संत-साध्वी एक स्थान पर चार माह रुककर साधना करते हैं इसे ही चातुर्मास कहा जाता  है। श्रावक और संत के जुड़ाव का वाहक चातुर्मास दो किनारों को जोडऩे का काम करता है। धर्म रूपी रथ को चलाने के लिए दो पहिए हैं, एक श्रावक और दूसरा संत। इन दोनों को एक-दूसरे से जोडऩे का काम करता है चातुर्मास। इस काल में दोनों ही एक-दूसरे को समझते हैं और श्रावक साधु की साधना में सहयोगी बनकर उन सब साधनों को उपलब्ध करवाता है, जो उसकी साधना में अत्यन्त आवश्यक हैं और साधु, श्रावक को पाप और कषाय से बचने का मार्ग बताकर, उसके पापों का प्रक्षालन करने के लिए प्रायश्चित देता है।
 श्रावक साधु की संगति में अपने वैराग्य एवं संयम साधना की वृद्धि  करे उनकी साधना में सहयोगी बने । भौतिक संसाधनों से उन्हें दूर रखें,लौकिक कार्यों में न उलझाएं, पारिवारिक कृत्यों की चर्चा न करके  धार्मिक चर्चा करें।शंका  समाधान करके जिनवाणी का श्रद्धान बढ़ाएं।
यह समय आध्यात्मिक क्षेत्र में लगातार नई ऊंचाइयों को छूने हेतु प्रेरित करने के लिए है। अध्यात्म जीवन विकास की वह पगडंडी है जिस पर अग्रसर होकर हम अपने आत्मस्वरूप को पहचानने की चेष्टा कर सकते हैं।
पूरे चातुर्मास अर्थात 4 महीने तक एक क्षेत्र की मर्यादा में स्थायी रूप से निवासित रहते हुए जैन दर्शन के अनुसार मौन साधना, ध्यान, उपवास, स्व अवलोकन की प्रक्रिया, सामयिक और प्रतिक्रमण की विशेष साधना, धार्मिक उद्बोधन, संस्कार शिविरों से हर शख्स के मन मंदिर में जनकल्याण की भावना जाग्रत करने का सुप्रयास जारी रहता है। तीर्थंकरों और सिद्धपुरुषों की जीवनियों से अवगत कराने की प्रक्रिया इस पूरे वर्षावास के दरमियान निरंतर गतिमान रहती है तथा परिणति सुश्रावकों तथा सुश्राविकाओं के द्वारा अनगिनत उपकार कार्यों के रूप में होती है।
चातुर्मास संस्कृति की ध्वजा को फहराता है :
  चातुर्मास धर्म और संस्कृति का एक बहुत बड़ा सम्मेलन है । चातुर्मास संस्कृति की ध्वजा को फहराता है । चातुर्मास आत्म कल्याण मात्र के लिए नहीं है , चातुर्मास उनके लिए भी किया जाता है  जो तुम्हारे पैर से कुचल सकते हैं, चातुर्मास वह संस्कृति है जिसमें  जीने दो की बात है । चातुर्मास में संत  अपने लिए ही नहीं बैठते दूसरे के लिए भी बैठते हैं । चतुर्मास जीने दो के लिए किया जाता है । जैन परंपरा में चातुर्मास अषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक बदी अमावस्या तक होता है ।
साधु का चातुर्मास पराधीन नहीं स्वाधीन होता है :
चातुर्मास से संस्कृति का निर्माण होता है। साधु का चातुर्मास पराधीन नहीं स्वाधीन होता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में  आज चातुर्मास के दो रूप हैं। श्रावक अपना चातुर्मास मांगलिक बनाएं। यह चातुर्मास घर -घर में खुशहाली देने वाला बने , हर घर में सुख -समृद्धि हो, चेहरों पर रौनक छाई रहे।
 चातुर्मास में अपनी दैनंदिनी में परिवर्तन लाएं :
 चातुर्मास में श्रद्धालु भी अपने जीवन में परिवर्तन लाएं। भोजन की थाली में बदलाव लाएं ,बुरा देखने -सोचने में परिवर्तन आना चाहिए। घर को 4 महीने पावन बनाने की कोशिश करें ।
चातुर्मास काल में त्याग, वैभव, तप, व्रत और संयम का सागर लहराने लगे, ऐसा सामूहिक प्रयत्न होना चाहिए। हम साधना व आराधना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं की उपेक्षा करते हैं। हमारी जीवन-शैली अहिंसा से प्रभावित हो। हम जितना अधिक संयम का अभ्यास करेंगे, उतना ही अहिंसा का विकास होगा। भगवान महावीर ने चातुर्मास काल में जिनवाणी द्वारा जीने की कला से विश्व को अवगत कराया है। अगर उसके अनुरूप हम चलें तो निश्चित ही यशस्वी मानव बन सकते हैं। जप, तप, सत्संग आदि में समर्पित भाव से सहभागी बनने से ही चातुर्मास की विशेषता अक्षुण्ण रहेगी। चातुर्मास उस दर्पण के समान है, जिसमें झांककर हम जान सकते हैं कि हम धर्म के कितना नजदीक हैं। धर्म का कितना पालन कर रहे हैं, कितनी कलंक-कालिमा हम पर लगी हुई है। चातुर्मास व्यक्ति की उसके व्यक्तित्व से पहचाने कराने का पर्व है। चातुर्मास को संस्कार पर्व भी कह सकते हैं। चातुर्मास में साधु मानव में मानवता के संस्कार भरने का कार्य करता है। चातुर्मास धर्म रूपी रथ को चलाने के लिए श्रावक और संत दोनों को एक-दूसरे से जोडऩे का पुनीत काम करता है।

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