गणेशप्रसाद वर्णी जी एक ऐसा नाम जिन्होंने अनेक संघर्षों से जूझते हुए शिक्षा की अनोखी अलख जगाई। उनका जीवन अनेक उतार-चढ़ाव से युक्त विविध दृष्टियों से बहुरंगी रहा। एक सामान्य से अति-सामान्य युग-पुरुष के रूप में उभरे वर्णी जी का जन्म सन् 1874 में उत्तर प्रदेश में ललितपुर जिला अन्तर्गत हंसेरा ग्राम (मड़ावरा के निकट) में एक वैष्णव परिवार में हुआ। आपकी धर्ममाता चिरोंजाबाई थीं। वे बहुत धर्मात्मा और त्याग की मूर्ति थीं। अपनी निरीह और कष्ट -सहिष्णु वृत्ति के बलपर गणेशप्रसाद जी वर्णी ने चिरोंजा बाई को धर्ममाता के रूप में और उनकी लाखों की संपत्ति सुलभ हो जाने पर भी वे उससे दूर ही रहे।
इतना ही नहीं वर्णी जी न्यायाचार्य होते हुए ही त्याग की ओर कदम बढ़ाते हैं और आजीवन ब्रह्मचर्य की विधिवत दीक्षा भी लेते हैं। नागरिक क्षेत्र सुलभ होते होने पर भी गणेशप्रसाद जी वर्णी ग्रामों को अपना कार्यक्षेत्र बनाते हैं और सैकड़ो ग्रामों में पाठशालाएं स्थापित करा देते हैं। आपकी जैनधर्म में श्रद्धा का कारण महामन्त्र णमोकार था, क्योंकि णमोकार मन्त्र ने उन्हें बड़ी—बड़ी आपत्तियों से बचाया था तथा आपने पद्मपुराण ग्रंथ से प्रभावित होकर रात्रि भोजन का त्याग किया । आपने 1947 में जैन श्रावक के उत्कृष्ट व्रत स्वरूप ग्यारह प्रतिमा (क्षुल्लक दीक्षा) धारण की थी । वर्णीजी ने 5 सितम्बर, 1961 को ईसरी में सल्लेखनापूर्वक देह का त्याग किया ।
अजातशत्रुता लोकोत्तर है :
वर्णी जी की प्रेरणा और मार्गदर्शन से सैंकड़ों पाठशालाएँ, विद्यालय और महाविद्यालय खुले। वर्तमान में जितने भी विद्वान् देखे जाते हैं, वह उनके अज्ञान अन्धकार मिटाने के प्रयास का सुफल है । पूज्य वर्णी जी के दयालुता, निर्लोभता, दृढ़ता आदि गुणों की अपेक्षा उनकी अजातशत्रुता लोकोत्तर है। पूरे जीवन संघर्ष करके भी इन महानुभाव ने किसी के प्रति द्वेषभाव अपने मन में कैसे नहीं आने दिया? यह एक रहस्य है।’दोष से घृणा करो, दोषी से नहीं’ इसका कार्यरूप देखना है तो वर्णी जी के जीवन को देखना चाहिए। पूज्य वर्णी जी जैन प्राच्य विद्याओं, विद्यालयों के महान उद्धार कर्ता थे। इन्होंने शिक्षा जगत में महान क्रांति की।इन्होंने बुंदेलखंड की अवनत दशा को बड़ी गहराई से देखा -परखा और समझा था।
वर्णी जी कथनी और करनी एक थी :
पूज्य वर्णी जी का पूरा जीवन कथनी और करनी की एकरूपता का साक्षी है।एक ही जीवन में साधारण से असाधारण कैसे बना जा सकता है इसको देखना है तो वर्णी जी के जीवन को देखा जा सकता है। धर्म और समाज के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों ने युवक गणेशप्रसाद के हृदय में धर्म के ज्ञान की ऐसी उत्कट इच्छा उत्पन्न की कि वे संस्कृत पढ़ने के लिए मुंबई, खुर्जा, जयपुर, मथुरा आदि नगरों को सब प्रकार के कष्ट उठाते हुए जाते हैं। हजारों मील पैदल चलते हैं तथापि ज्ञान-पिपासा शांत न हुई तो सम्वत 1961 में काशी पहुँचते हैं।
64 पोस्टकार्डों से काशी में खुला स्याद्वाद महाविद्यालय :
सर्व विद्या की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध काशी में पूज्य वर्णी जी को अध्ययन के दौरान अनेक अपमान -जनक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पर उन्होंने हार नहीं मानी, उन्होंने जिस दृढ़ इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प से काशी में 1905 में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की, वह अपने आप में एक मिशाल है। उन्होंने प्रथम दान में प्राप्त मात्र एक रुपये के 64 पोस्टकार्डों में समाज के श्रेष्ठियों एवं विद्या-प्रेमियों को लिखकर इस महाविद्यालय की स्थापना कराई। वर्णी जी द्वारा स्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय से निकले स्नातकों ने ही जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में जिस भूमिका का निर्वाह किया है, वह जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण धरोहर है।
यह महाविद्यालय अपने स्वरूप के अनुसार भारतीय विद्याओं के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ है। खासकर जैनधर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के लिए विशेष योगदान रहा है। सैकड़ों चोटी के विद्वान एवं श्रमण इस संस्था की देन हैं। परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के गुरु परम पूज्य आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज (ब्र. भूरामल जी ) ने भी इसी महाविद्यालय में अध्ययन किया था।
स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में स्याद्वाद महाविद्यालय का अविस्मरणीय अवदान :
भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में यहां के विद्यार्थियों ने जो योगदान दिया है वह अपने आप में गौरवशाली है। सन 1921 के असहयोग आंदोलन, 1932 के सत्याग्रह, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में यहां के अनेक छात्रों ने अपनी अहम भूमिका निभायी है। 1942 जिसे हम अगस्त आंदोलन के नाम से जानते हैं, में तो यह महाविद्यालय विद्यार्थियों का शस्त्रागार ही बन गया था।
वर्णी जी ने आजादी के लिए समर्पित की चादर :
वर्णीजी ने एकबार जबलपुर में हो रही आमसभा में आजादी के पुजारियों की सहायतार्थ अपनी चादर समर्पित की थी । इस चादर से उसी क्षण तीन हजार रुपये की मिली राशि ने सभा को आश्चर्यचकित कर दिया । भक्तों ने बोली लगाकर उस चादर को खरीदा और मिले पैसों को नेताजी सुभाषचंद बोस की आजाद हिन्द फौज को सौंप दिया। जो आज भी स्मरणीय है।
वर्णी जी की प्रेरणा से खुले अनेक विद्यालय :
समाजोद्धार और जिनशासन की प्रभावना हेतु वे लोगों में सत-शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना आवश्यक मानते थे, क्योंकि सत-शिक्षा ही उन्नति की ओर ले जाती है। इसलिये उन्होंने जगह-जगह पाठशालाएँ, विद्यालय, महाविद्यालय, छात्रावास, गुरुकुल आदि शैक्षणिक संस्थाओं को स्थापित करने की प्रेरणा दी।उन्होंने वाराणसी में 1905 में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की, इसके साथ ही साढूमल जिला ललितपुर, बरुआसागर जिला झांसी, सागर, द्रोणगिरि, आहार जी, मड़ावरा, मलहरा, पटनागंज, शाहपुर, जबलपुर, कटनी, ललितपुर, नैनागिर, पपौरा जी आदि अनेक स्थानों पर पाठशालाएं, विद्यालय खुलवाए।
इन संस्थाओं में जैनदर्शन, न्याय, साहित्य, व्याकरण, प्राकृत, संस्कृत आदि प्राच्य विद्याओं के विषयों में उच्च शिक्षा का अच्छा प्रबंध किया गया। बुंदेलखंड के बाहर भी वर्णी जी की सत्प्रेरणा से अनेक विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित हुए। जिनमें जैन गुरुकुल हस्तनापुर, कुन्दकुन्द कालेज खतौली, महिला महाविद्यालय गया आदि प्रमुख हैं। दिल्ली, फिरोजाबाद, इटावा, सहारनपुर आदि अनेक स्थानों पर वर्णी जी की प्रेरणा से शिक्षण संस्थाएं स्थापित हुईं। आपने अपने सम्यक् पुरुषार्थ से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में जैन विद्या सम्बन्धी पाठ्यक्रम प्रारम्भ कराया था ।
स्नातकों द्वारा देश एवं समाजोत्थान के कार्य :
वर्णी जी द्वारा स्थापित इन संस्थाओं से निकले स्नातकों ने देश की शासकीय, अशासकीय और शैक्षणिक, सामाजिक आदि संस्थाओं तथा देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में सेवारत होकर अपनी अर्जित क्षमताओं से देश एवं समाजोत्थान के कार्य सम्पन्न किये और कर रहे हैं। अनेक विद्वानों ने जैन आगम के संरक्षण, संपादन आदि एवं उद्धार का महनीय कार्य सम्पन्न किया। जैन आगम का संकलन, संपादन, संसोधन, अनुवाद और प्रकाशन कराके शास्त्र भंडारों में बंद शास्त्रों को सर्वसुलभ बनाया। वर्णी जी द्वारा समाज में सत-शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण ही बुंदेलखंड का तो मानो कायाकल्प ही हो गया।
विनोबा भावे जी और वर्णीजी :
विनोबा भावे जी ने वर्णीजी को अपना अग्रज माना और उनके चरण स्पर्श किए और अनेक बार उनका सान्निध्य प्राप्त किया।
प्राच्य भाषाओं एवं विद्याओं का संरक्षण-संवर्धन :
आज जो प्राच्य भाषाओं एवं विद्याओं के अध्ययन अध्यापन में रुचि बड़ी है, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राच्य विद्याओं को पढ़ने की रुचि जाग्रत हुई, यह सब पूज्य वर्णी जी की ही अमूल्य, अनमोल देन है। पूज्य वर्णी जी का भारतीय प्राच्य विद्याओं के संरक्षण और सम्बर्धन में अनुकरणीय योगदान सदैव इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा। आज जरूरत है उनके पद चिन्हों पर चलने की और उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं के संरक्षण और संवर्धन की।
पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी जी ने जो हमें दिया उसे हम कभी भी भुला नहीं सकते। भले ही मैंने पूज्य वर्णी जी को प्रत्यक्ष देखा न हो पर उनकी ‘मेरी जीवन गाथा’ पढ़कर उनके विशाल, बेमिसाल और अद्भुत व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया है।मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने अपनी शिक्षा पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा स्थापित विद्यालयों-छात्रावासों में ही पूर्ण की है, मैं आज जो कुछ हूँ इन्हीं विद्यालयों के कारण ही हूँ। मेरे आदर्श हैं पूज्य वर्णी जी।
20शताब्दी के पूर्वार्ध में जैन समाज एवं खासतौर पर बुंदेलखण्ड क्षेत्र में शिक्षा के प्रचारक—प्रसारक, निर्भीक, दृढ़निश्चयी, कुरीतियों के विरोधी, सामाजिक—सौहार्द के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाले महापुरुष थे पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी । इनकी समग्र जीवनगाथा आज भी जन—जन के लिए प्रेरक है। आपका व्यक्तित्व भारत के शैक्षिक एवं सामाजिक इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किए जाने योग्य है। उनका अवदान अविस्मरणीय है।
पूज्य वर्णी जी की जन्म जयंती पर उनके चरणों में कोटिशः नमन…।
वर्णी जी ने बहुत कुछ दिया,
हम भी तो कुछ देना सीखें।
बनें कृतज्ञ, कृतघ्न नहीं,
अर्जन के साथ विसर्जन सीखें।।