सच्चे श्रावक बनें, बदलें दृष्टि और विचार – अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

0
219

काफी समय बाद आप से अंतर्मुखी की दिल की बात के माध्यम से कुछ लिख रहा हूं। आशा है इसे पढ़कर आप अपनी विचार और दृष्टि को बदलने का पुरुषार्थ करेंगे। संतों के आचरण, विद्वानों के ज्ञान और धनाढ्यों के धन से धर्म प्रभावना के साथ संस्कारों का बीजारोपण, संस्कृति का संरक्षण और विकास संभव है। इन तीनों की एकता ही धर्म को अखंड रख पाएगी। जैसे-जैसे इनके बीच मनभेद बढ़ेगा, वैसे-वैसे धर्म का क्षरण होगा। आज ऐसा लग रहा है जैसे धर्म की प्रभावना की जगह व्यक्तिगत प्रभावना पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। इसका उदाहरण है सोशल मीडिया। इस पर आने वाले वीडियो, पोस्टर या दूसरी सामग्री पर गौर करें।

इसमें व्यक्ति खुद को ही बड़ा बताने का प्रयास करता है। तीर्थंकरों की वाणी को इस तरह पेश किया जाता है, जैसे व्यक्ति के खुद के विचार हों। बहुत कम लोग हैं जो सोशल मीडिया पर जारी की जाने वाली इस तरह की सामग्री को तीर्थंकर की वाणी के नाम से प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि व्यक्ति विशेष की प्रभावना तो बढ़ती है, लेकिन धर्म कहीं पीछे छूट जाता है। धर्म पर व्यक्ति विशेष भारी पड़ता है। धर्म की बजाय व्यक्ति विशेष के प्रति श्रद्धा उमड़ने लगती है। यह स्थिति चिंताजनक है। हालात बदलने के लिए दृष्टि बदलनी होगी, तभी लोगों में धर्म के प्रति श्रद्धा को मजबूत कर पाएंगे।  दृष्टि में बदलाव  यह करना होगा कि हम यह परीक्षण जरूर करें कि जो कहा जा रहा है वह तीर्थंकर की वाणी है या नहीं। तीर्थंकर की सच्ची वाणी कोई भी कहे, उसे ग्रहण करना चाहिए। व्यक्ति विशेष के विचारों को महत्व देना उचित नहीं है। साथ ही ध्यान रहे कि कोई तीर्थंकरों की वाणी को अपने विचार तो नहीं बता रहा। यह बात सही है कि तीर्थंकरों की वाणी जिस भाषा में लिपिबद्ध की गई  है, उसे हर कोई नहीं समझ सकता। उसे समझाने वालों की यह जिम्मेदारी है कि वे मूल का अर्थ न बदलें और ज्यों का त्यों श्रद्धालुओं तक पहुंचाएं।

उदाहरण के लिए तीर्थंकरों ने अपनी दिव्य वाणी में अहिंसा का संदेश दिया। हिंसा से मतलब मात्र किसी को मारने से ही नहीं है। अहिंसा का मतलब है मन, वचन और काय से हिंसा से दूर रहना। कड़वे वचन नहीं बोलें, मन में किसी के प्रति नकारात्मक विचार नहीं आने दें और शरीर की कोई ऐसी चेष्टा न हो जिससे हिंसा हो। बिना प्रयोजन के जिस कार्य से हिंसा हो रही हो, उसे तो तुरंत ही छोड़ देना चाहिए। चोर को चोर नहीं कह कर उसके कर्म की निंदा करो। यानी जिस कर्म के उदय से उसने चोरी की, उसकी निंदा  करो। इससे कर्मों की निर्जरा होगी। यह मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है। इसलिए जब भी इस तरह का उपदेश दिया जाए, तीर्थंकरों का जिक्र जरूर किया जाए।

यह बात गंभीरता से समझनी होगी कि उस धर्म और विचारधारा का नाश हो जाता है, जिसके अनुयाई उसके संस्थापकों की उपेक्षा करते हैं और खुद के सम्मान पर ही ध्यान देते हैं। इससे मूल धर्म और विचारधारा विकृत हो जाती है। विद्वानों, संतों और धनाढ्यों के विचार एक ही धार्मिक विषय पर अलग-अलग हो जाते हैं। यहीं से जन्म होता है विवादों का। इस बात को समझना होगा कि विवाद में पड़ा धर्म कभी भी अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता। आज महावीर की वाणी को सब अपने—अपने विचार ​मिलाकर लोगों तक भेज रहे हैं। लोग धर्म करने की बजाय विवादों में आनंद ले रहे हैं। विडंबना यह है कि धार्मिक क्षेत्र धार्मिकता से अधिक विवादों के स्थान बन रहे हैं। नई पीढ़ी धर्म की बजाय विवाद को ग्रहण कर रही है। धर्म की क्रियाओं, संतों और शास्त्रों के नाम पर भी विवाद हो रहे हैं।

यह वाकई गंभीर चिंता की बात है कि जो श्रद्धा, आस्था, विश्वास के विषय थे, वही विवाद के विषय बन रहे हैं। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी यही दे रहे हैं। भगवान आदिनाथ के समय मरीचि भी भगवान आदिनाथ की वाणी और आचरण के विपरीत चला था। जब गलती का अहसास हुआ तो वह मरीचि ही भगवान महावीर बन गया। यह बात अलग है कि इसके लिए उसे कई जन्म लेने पड़े। अगर आपने अभी तक गलती की है तो उसेआज ही सुधार लीजिए, ताकि महावीर न सही सच्चे श्रावक तो बन जाओ। ऐसा सच्चा श्रावक जो देव, शास्त्र और गुरु पर श्रद्धा कर किसी खास व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि धर्म के लिए  समर्पित होने का संकल्प ले सके।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here