सनावद – जैन धर्म में दिगम्बरत्व का विशेष महत्व है। साधु जीवन में नग्नता दिगम्बरत्व की पहचान है। तिल, तुष मात्र परिग्रह भी साधु जीवन को उनकी विशिष्ट चर्या से अलग कर सकता है।दिगंबर साधु महाव्रती होने के कारण अपरिग्रह महाव्रत का पालन करते हैं। अतः अपग्रिही साधु के रूप में भी उनकी पहचान है। पीछी, कमंडलु और शास्त्र उनके लिए महत्वपूर्ण उपकरण है। अतः वह थोड़ा सा भी वस्त्र धारण नहीं कर सकते।
उनके संबंध में कहा जाता है।
ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो वि मोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।।
अर्थात वस्त्रधारी को कभी भी मोक्ष (मुक्ति ) प्राप्त नहीं हो सकता, चाहे तीर्थंकर ही क्यों न हो। नग्नता ही मोक्ष मार्ग है शेष सभी उन्मार्ग हैं। अतः दिगम्बर मुनि को द्रव्य और भाव से अपरिग्रह रहना जरूरी है। अतः साधु एकाकी, निस्पृह, शांत तथा आरंभादि परिग्रह से रहित होकर ज्ञान,ध्यान और तप में लीन रहता है तथा चौदह प्रकार के परिग्रहण से रहित होता है। इस संबंध में कहा गया है –
परिग्रह चौबीस भेद त्याग करें मुनिराज जी।
तृष्णा भाव उछेद घटती जान घटाइये।।
24 प्रकार के परिग्रह में खेत, गृह ,धन,धान्य, कुप्य, भाण्ड दास दासी, शैया, चौपाये ये दस बाहय परिग्रह तथा मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, भय, जुगुप्सा, रति,अरति,शोक तथा क्रोध,मान माया और लोभ यह चौदह प्रकार के आंतरिक परिगृह होते हैं। इसका त्याग मुनिराज करते हैं । जैन समाज का यह कर्तव्य है कि कोई भी ऐसा साधन साधुओं को उपलब्ध न करावें जिससे साधु के पास परिग्रह बढे। परम पूज्य मुनिपुंगव सुधा सागर जी महाराज ने अपने प्रवचन में स्पष्ट कहते हैं- आज मुनि जो भ्रष्ट हो रहे हैं वह मुनि विरोधियों के कारण नहीं अपने पैर पूजने वाले भक्तों के कारण हो रहे हैं। मुनि को घड़ी,गाड़ी, मकान,फोन,कूलर देने से पुण्य नहीं, यह पाप बनेगा और मुनि भी अपरिग्रह के व्रत से गिर जावेगा। ( जिनवाणी सुधासागर भाग 9 पृष्ठ 53 ) एक अन्य प्रवचन में आप कहते हैं जो मेरे साथ नहीं था।
जन्म के बाद मिला वो सब परिग्रह है। झगड़े की जड़ है और जो जो तुम मरने के बाद नहीं ले जाओगे उसकी सूची बनालो, परिग्रह समझ में आ जावेगा। यह मेरे थे, यह मेरे हैं और यह मेरे रहेंगे यही परिग्रह है और यही सबसे बड़ा पाप है। पापों में परिग्रह ही सबसे बड़ा पाप है। ( जिनवाणी सुधा सागर भाग 9 पृष्ठ 53 ) पूज्य देशनाकार आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज प्रकृष्ट देशना में लिखते हैं – हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील इनको तो पाप मान कर रखा है पर परिग्रह पर तुम्हारा ध्यान नहीं जा रहा।
जबकि संपूर्ण पापों का कोई स्वामी है तो वह परिग्रह ही है। ईर्ष्या, डाह, क्लेश क्यों सता रहे हैं जीव को ? संपूर्ण पाप परिग्रह हैं । जैसे हम अग्नि से डरते हैं, अजगर से डरते हैं वैसे ही साधको ! तुम परिग्रह से डरो। जगत में क्लेश जितने हैं वे सब परिग्रह से होते हैं। आशा परिग्रह है। जब तक इच्छाएं हैं तब तक परिग्रह है, तब तक मोक्ष मार्ग हीयमान रहेगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो साधु पीछे, कमंडलु और शास्त्र के बाद यदि बाह्य और आभयंतर परिग्रह अपने साथ रखता है वे सच्चे मुनि नहीं हैं। उनका साधु जीवन भी परिग्रह के कारण प्रबल घातक बन जाता है। वे ही सच्चे मुनि हैं जो 24 प्रकार के परिग्रह का मन से त्याग किये रहते हैं। अतः जिन्होंने त्याग मार्ग अपनाया है वे सर्वोच्च त्याग की परंपरा का निर्वाह करें ताकि उनका गृहत्याग का पुरुषार्थ लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हो सके। जहां परिग्रह है वहां त्याग मार्ग पर चलना असंभव है। अतः साधु सांसारिक प्रपंचों से दूर रहें यह अपेक्षा है।