राष्ट्रीय शिक्षा दिवस —–विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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वर्तमान में सत्तारूढ़ शासक अपनी मंशापूर्ण करने बहुत महत्वपूर्ण जानकारियों को इतिहास के पन्नों से हटाकर अपनी इच्छानुरूप कुछ अध्याय को जोड़कर इतिहास से छेड़खानी कर चुके हैं .इतिहास शासक की मनमर्जी से न लिखा जा सकता हैं और न मिटाया जा सकता हैं .पर इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करता हैं .वर्तमान शासक इतिहास को मिटा रहे आगामी सरकार तुम्हारा शासन भी हटाएगा ,
‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की स्मृति में मनाया जाता है। भारत में शिक्षा के विकास में मौलाना आज़ाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
मौलाना आज़ाद महिला शिक्षा के ख़ास हिमायती थे। उनकी पहल पर ही भारत में 1956 में ‘यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन’ की स्थापना हुई थी।
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस प्रत्येक वर्ष ‘११ नवम्बर’ को मनाया जाता है। यह दिवस भारत के महान् स्वतंत्रता सेनानी, प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षामंत्री और ‘भारत रत्न’ से सम्मानित मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की स्मृति में मनाया जाता है। भारत में शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद आज ही के दिन (११ नवम्बर, १८८८ ई.) पैदा हुए थे।
वैधानिक रूप से ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ का प्रारम्भ ११ नवम्बर, २००८ से किया गया है। ‘११ नवम्बर’ की तिथि भारत के प्रसिद्ध व्यक्तित्व अबुल कलाम आज़ाद से जुड़ी है। इसी दिन इस महान् विभूति का जन्म सऊदी अरब के मक्का में हुआ था।
महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत के बंटवारे के घोर विरोधी और हिन्दू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े पैरोकारों में थे। हालांकि वह उर्दू के बेहद काबिल साहित्यकार और पत्रकार थे, लेकिन शिक्षामंत्री बनने के बाद उन्होंने उर्दू की जगह अंग्रेज़ी को तरजीह दी, ताकि भारत पश्चिम से कदमताल मिलाकर चल सके।
मौलाना आज़ाद का मानना था कि अंग्रेज़ों के ज़माने में भारत की पढ़ाई में संस्कृति को अच्छे ढंग से शामिल नहीं किया गया, इसीलिए १९४७ में आज़ादी के बाद भारत के प्रथम शिक्षामंत्री बनने पर उन्होंने पढ़ाई-लिखाई और संस्कृति के मेल पर विशेष ध्यान दिया। मौलाना आज़ाद की अगुवाई में १९५० के शुरुआती दशक में ‘संगीत नाटक अकादमी’, ‘साहित्य अकादमी’ और ‘ललित कला अकादमी’ का गठन हुआ। इससे पहले वह १९५० में ही ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ बना चुके थे। वे भारत के ‘केंद्रीय शिक्षा बोर्ड’ के चेयरमैन थे, जिसका काम केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर शिक्षा का प्रसार करना था। उन्होंने सख्ती से वकालत की कि भारत में धर्म, जाति और लिंग से ऊपर उठ कर १४ साल तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दी जानी चाहिए।
मौलाना आज़ाद महिला शिक्षा के खास हिमायती थे। उनकी पहल पर ही भारत में १९५६ में ‘यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन’ की स्थापना हुई थी। आज़ाद जी को एक दूरदर्शी विद्वान् माना जाता था, जिन्होंने १९५० के दशक में ही सूचना और तकनीक के क्षेत्र में शिक्षा पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। शिक्षामंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल में ही भारत में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ का गठन किया गया था।
केंद्र सरकार ने ६ से १४ वर्ष की उम्र वाले देश के सभी विद्यार्थियों के लिए सर्वशिक्षा अभियान के नारे के साथ इसकी शुरुआत वर्ष २००२ से की थी। इसके तहत शिक्षकों के लिए लगातार कई प्रशिक्षण सत्र रखे गए। देश भर के सभी राज्यों के सभी प्राथमिक-माध्यमिक स्कूलों के बाहर अनिवार्य रूप से सब “पढ़ें-आगे बढ़ें” का बोर्ड लगाया गया, जो समस्त जनता को यह संदेश देने के लिए लगाया गया था कि स्कूलों के दरवाज़े समाज के सभी वर्गों के लिए खुले हैं। इसके तहत सभी धर्मों-जातियों-वर्गों के स्वस्थ व अपंग बच्चों (6 से 14 वर्ष) को शिक्षित करने का प्रावधान किया गया। आगे चलकर इसे और भी व्यापक रूप दिया गया। इसी योजना के तहत देश के अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों के लिए कई विशेष योजनाओं को लागू भी किया गया और सफल भी किया गया। आगे चलकर इस अभियान के तहत ‘अपंग समावेशक शिक्षा योजना’ को लाया गया और देश के सभी अपंग बच्चों को स्वस्थ व सामान्य बच्चों के साथ-साथ समान शिक्षा प्रदान करने का अधिकार दिया गया।
अनिवार्य व मुफ़्त प्राथमिक शिक्षा अधिकार का क़ानून
‘सर्वशिक्षा अभियान’ की सफलता के साथ-साथ केंद्र सरकार को महसूस हुआ कि अभी भी समाज में कई दबे-कुचले वर्ग ऐसे हैं, जिनके बच्चे पढ़ने के बजाय अपने माता-पिता के साथ उनके काम में हाथ बंटाते हैं। सरकार को यह भी पता चला कि कई लापरवाह अभिभावक ऐसे हैं, जो अपने बच्चों को पढ़ाना ही नहीं चाहते। जब केंद्र सरकार को लगा कि पूरे देश के ६ से १४ वर्ष की उम्र वाले लाखों बच्चों को कक्षा १ से ८ वीं की शिक्षा से वंचित रहना पड़ रहा है तो उसने वर्ष २००९ में “अनिवार्य व मुफ़्त प्राथमिक शिक्षा अधिकार का क़ानून-2009” लागू किया, जिसे संसद ने अपनी मंजूरी सहर्ष ही प्रदान की।
इस क़ानून के तहत पूरे देश में ६ से १४ वर्ष की उम्र वाले सभी बच्चों को अनिवार्य व मुफ़्त शिक्षा का अवसर उपलब्ध कराया गया। हालांकि इस क़ानून को काफ़ी पहले ही पारित कर दिया गया था, पर इसकी जानकारी अधिकतर लोगों को नहीं थी। इसे पूरे देश में व्यापक रूप से लागू करने के लिए सरकार ने योजना बनाई और अंतत: देश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जयंती के शुभ अवसर पर, शुक्रवार के दिन “११ नवम्बर, २०११ ” से इसकी शुरुआत कर दी गई। इसके तहत सभी प्राथमिक स्कूलों के मुख्याध्यापकों को किसी भी अनपढ़ बच्चे को उसकी उम्र के अनुसार वाली कक्षा में पूरे साल सीधे प्रवेश देने और उसे पढ़ा कर सक्षम बनाने का अधिकार और निर्देश दिया गया।
एक सर्वेक्षण में यह देखने में आया है कि अभी भी राह चलते समाज के कई वर्ग के ऐसे बच्चे दिख जाते हैं, जो स्कूल नहीं जाते। इसमें कचरा बीनने वाले बच्चे प्रमुख रूप से शामिल हैं। शहरी क्षेत्र में यह भी देखने में आया है कि अतंत: लघु स्तर पर व्यापार करने वाले कई परिवार ऐसे हैं, जो अपने बच्चों को साथ लेकर ही चलते हैं और उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। इसमें सड़क किनारे मोची का काम करने वाले, निवासी इमारतों में झाडू लगाने वाले, छोटी चाय-नास्ते की दुकान चलाने वाले, पान-बीड़ी की दुकान चलाने वाले, घरों में कुटीर उद्योग (अगरबत्ती, बिंदी, पापड़, नकली मोती के दाने गूंथने वाले, कपड़ों की सिलाई करने वाले आदि) सड़कों-मुहल्लों में घूमकर कचरा बीनने वाले, भीख मांगने वाले तथा रेलों-बसों में घूमकर या फिर रेल व बस अड्डों पर कोई न कोई सामान बेचने वाले बच्चे आदि शामिल हैं।
हर राजनैतिक पार्टी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ छेड़खानी करती हैं जबकि शिक्षा नीति राजनीति से अप्रभावित होना चाहिए .यह क्रम का कब अंत होगा .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

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