समाज में जितना योगदान एक पुरुष का होता है उससे कहीं ज्यादा एक स्त्री की सहभागिता होती है भले ही वह अप्रत्यक्ष रूप से हो।
हमारे समाज में लड़कियों और लड़कों में अंतर को लेकर बहुत भेदभाव होते हैं हालांकि अगर केवल लैंगिक भिन्नता छोड़ दी जाए तो ईश्वर ने महिला और पुरुष दोनों को समान बनाया है।
लेकिन समाज में लड़कियों को लेकर व्याप्त निम्न स्तरीय भावनाएं लड़कियों के विकास के लिए सदैव बाधक बन जाती हैं जिससे समाज में ना ही उन्हें उनका अधिकार और स्थान मिल पाता है और ना ही उनका सामाजिक विकास हो पाता है।
भले ही समय के साथ सोच में लड़कियों को लेकर आधुनिक परिवर्तन ने जन्म लिया है लेकिन आज भी बहुधा समाज में उन्हें उनका सम्मानित दर्जा नहीं मिल पाता जहां वह अपने लिए निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहे और सामाजिक गतिविधियों में समान रूप से भागीदारी कर सकें।
बालिकाओं के सामाजिक विकास के उत्थान के लिए आज देश-विदेश में लड़कियों को प्रोत्साहित कर समाज में उन्हें उनका वास्तविक दर्जा दिलाने के लिए विभिन्न प्रकार के अभियान और कार्यक्रम चलाए जाते हैं जिनके माध्यम से समाज के भीतर संचालित प्रत्येक गतिविधि में उनकी समान सहभागिता सुनिश्चित की जाती है।
इतिहास एवं महत्व
राष्ट्रीय बालिका दिवस की शुरुआत २००८ में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा इसकी शुरुआत की गई। यह हर वर्ष २४ जनवरी को मनाया जाता है। यह दिन राष्ट्र शिशु दिवस के नाम से भी जाना जाता है। समाज में बालिकाओं के विकास एवं अधिकारों के प्रति फैली असमानता को दूर करने और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा करने लिये जागरुकता अभियान चलाया जाता है।
इसका प्रमुख है इसी दिन भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपना पदभार संभाला था। इस दिन को नारी सशक्तिकरण के दिवस के रुप में भी जाना जाता है। भारत सरकार के महिला व बाल विकाल मंत्रालय द्वारा इसकी शुरुआत की गई थी।
उद्देश्य –
बालिका दिवस मनाने का उद्देश्य महिलाओं का सशक्तिकरण करना है ताकि उन्हें अपनी आवश्यकताओं और आत्मरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर ना होना पड़े।
समाज में लड़कियों के साथ होने वाली लैंगिक असमानताओं को खत्म करने के लिए पुरुष वर्ग और संपूर्ण समाज को जागरूक करना ताकि बालिकाओं को समाज में उनका उचित अधिकार मिल सके।
बालिकाओ की उच्च शिक्षा, पोषण और कानूनी अधिकार के लिए प्रयास करना।
बालिकाओ के हो रहे शोषण, हिंसा, एवं भ्रूण हत्या, दहेज उत्पीड़न और बाल विवाह जैसे चीजों के खिलाफ आवाज उठाना और महिलाओं के बारे में मानी जाने वाली रूढ़िवादी परंपराओको खत्म करना।
अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस ११ अक्टूबर को पूरे विश्व में मनाया जाता है अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की शुरुआत सन २०१२ से हुई प्रथम अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस ११ अक्टूबर २०१२ को मनाया गया जिसकी आधिकारिक घोषणा संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा की गई थी।
अंतरराष्ट्रीय दिवस पर यह दिन प्रतिवर्ष विश्व भर में मनाया जाता है जिसके अंतर्गत महिला सशक्तिकरण और उनके उत्थान से जुड़े विषयों पर अभियान चलाए जाते हैं ताकि उनका उचित सामाजिक विकास हो सके और पुरुषों की भांति वे भी समान रूप से समाज में और उसकी प्रत्येक गतिविधि में अपनी भूमिका निभा सके।
शुरुआत का इतिहास
पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालिका दिवस मनाने की शुरुआत कनाडा के एक गैर- सरकारी संगठन “ग्लोबल चिल्ड्रेन चैरिटी” द्वारा की गई।
इस संगठन ने लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा, बेहतर चिकित्सक सुविधा और कानूनी अधिकार जैसी जरूरतों के लिए “क्योंकि मैं लड़की हूं” नामक अभियान चलाया इस संगठन ने इस अभियान को इंटरनेशनल रूप में चलाने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाई तथा कनाडा के फेडरल सरकार से आग्रह किया। कनाडा की सरकार ने इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सभा में उठाया जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र सभा ने इस आग्रह को स्वीकार करते हुए अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया।
इसी बीच कनाडा की महिलाओं और लड़कियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने ५५ वें संयुक्त राष्ट्र आयोग में समाज में महिलाओं की स्थिति पर इस पहल के बारे में अपनी प्रतिक्रियाएं दी उन्होंने इसका समर्थन किया, और इसे कनाडा की महिला विकास मंत्री रोना एम्ब्रोस द्वारा प्रायोजित किया गया।
उनके इस प्रयास से सन २०११ में दिसंबर महीने की १९ तारीख को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने औपचारिक रूप से ११ अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की घोषणा कर दी के बाद साल २०१२ से अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस प्रतिवर्ष मनाया जाता है। मुझे संसार में आने दो ना।
सुविचार –
स्त्री सबसे शक्तिशाली होती है, स्त्री साक्षात दुर्गा का अवतार होती है जिसे ऊर्जा का सृजन और स्वरूप माना जाता है।
जो स्त्री संसार की सबसे अधिक पीड़ादायक प्रसव पीड़ा सहन कर सकती है उसे संसार की कोई भी विपत्ति कमजोर नहीं बना सकती।
अगर किसी परिवार में एक लड़की को शिक्षित किया जाए तो आने वाली सभी पीढ़ियां शिक्षित होंगे।
एक लड़की के उज्जवल भविष्य का अस्तित्व उसकी लैंगिक विषमता से कभी प्रभावित नहीं हो सकता। बल्कि यह लैंगिक विषमता तो उसकी एक अलग विशेष पहचान का प्रतिनिधित्व करती है।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद्
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