( द्वारा – अशोक जैन )
इस समय संसार में मानव समाज आपसी कलह से त्रस्त है। जहां परस्पर स्नेह और सम्मान का अभाव हो वहाँ ऐसा होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति राग और द्वेष से उपजी जीवन शैली के कारण निर्मित हुई है। राग और द्वेष असल में मोह के दो पुत्र है, जिनसे घृणा और निंदा नामक दो विषाक्त पुत्री उत्पन्न होती है। जिनके विषवमन से प्रेम, दया, और करुणा आदि तमाम मानवीय मूल्य नष्ट होने लगते है।
संसार के नश्वर पदार्थों में आसक्ति होना ही राग है और सत्य को जानते-समझते हुए भी उसकी उपेक्षा कर देना ही द्वेष है। राग- द्वेष के कारण ही मनुष्य सांसारिक प्रपंच में उलझकर परमार्थिक ज्ञान से वंचित हो जाता है। जिस वस्तु अथवा व्यक्ति आदि से अगर आपको राग हो जाये तो उसमे अवगुण होते भी उसके कोई द्वेष नजर नहीं आते और अगर किसी भी व्यक्ति से घृणा हो जाये तो फिर उसमें अपार सदगुण होने पर भी उसे उपेक्षित ही रखने लगते है।ये मनुष्य योनि में बहुत बड़ा अवयव है जिसके कारण आपसी प्रेम भाव और एक दूसरे के प्रति वैमनस्यता आज इतनी बढ़ गई है कि अणु और परमाणुओं जैसे अस्त्र निकलने को तैयार हैं।
कबीर दास जी ने कहा है कि यदि किसी के चित्त में राग- द्वेष, काम क्रोध, अहंकार और लालच जैसी भावनायें पनपती रही तो वह इंसान विद्वान होकर भी मूर्ख की श्रेणी में आयेगा
उन्होंने लिखा है कि:-
“ काम क्रोध, मद, लोभ की, जब लग घट में जान ।
कबीरा मूरख- पंडिता, दोनों एक समान।।”
इस पर तुलसी दास जी लिखते है किः-
“ सोई ज्ञानी, सोई गुणीजन, सोई साधक, सोई ध्यानि।
तुलसी जाके चित्त भई , राग – द्वेष की हानि ।।”
अर्थात् ‘ वही ज्ञानी, वही गुणी है, उसी का ध्यान सार्थक है और उसी की साधना सफल है जिस साधक के राग और द्वेष मंद हो गये, जो राग- द्वेष जैसे जहर से विरक्त हो गया हो।
वर्तमान में जरूरत है तो इस बात की राग- द्वेष के इस जहर के कहर से कैसे छुटकारा पाया जाये। इसके लिए हमे सबसे पहले इसकी जड़ अर्थात् मोह पर विजय पाने के लिए संकल्पित होना पड़ेगा और मोह का जनक “ अपरिग्रहवाद” को समझना होगा ।
संसार में सब फसादों की जड़ अपरिग्रह है। जैन दर्शन में इसकी विस्तार से व्याख्या की गई है। अतः यहां अपने मूल विषय पर आते हुये इतना कहना पर्याप्त होगा कि जिसने भी परिग्रह का त्याग कर लिया वह मोह, लोभ तथा ईर्ष्या रागादी से विरक्त हो गया समझो वह जीवन पर्यंत बहुत से दुखों से मुक्त हो गया। अपरिग्रह जैन आचार्यों का मूल गुण है। जितने भी तीर्थंकर हुए वह सभी सम्पन्न और धनधान्य तथा विलासिता की सब सुख सुविधाओं को त्याग कर वैराग्य को प्राप्त हुए। मात्र परिग्रह के त्याग से तीर्थंकर पदवी तक को प्राप्त हुए अर्थात् उनका पृथ्वी पर से जीवन – मरण का चक्कर ही छूट गया।
परंतु यहाँ विषय समाज में रह रहे आम जन के राग-द्वेष के अवगुण के बारे में है। यहाँ हम उन महान आत्मयोगियों का स्मरण कर सकते है जिन्होंने शीर्ष पद पर रहते हुये भी परिग्रह को त्याग कर मानव समाज को बहुत कुछ दिया जैसे लालबहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, डॉ.एपीजे. अब्दुल कलाम।
सांसारिक प्राणी को जब राग-द्वेष, मोह, लोभ और मायाचार से विरक्ति हो जाती है तो वह मनुष्य ग्रहस्थ जीवन में रहते हुए भी वैरागी बन जाता है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण यहां प्रस्तुत है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान, आलोचक, समीक्षक एवं नाटककार “ मि. जॉर्ज बर्नाड शा “एक बार सख्त बीमार हुए, डॉक्टरों ने उनकी प्राण रक्षा के लिए उनसे पशु मांस खाने का अनुरोध किया और कहा कि आपको अगर ठीक होना है तो आपको मांस का सेवन करना पड़ेगा क्योंकि पके मांस में वो पोषक तत्व है जो आपके शरीर की कोशिकाओं को जीवित रख रख सकते हैं अन्यथा आपका शरीर बिलकुल शिथिल हो जाएगा और आपका बच पाना भी मुश्किल होगा। तो उन्होंने जो कहा वह जीवन के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है; उसके अंश यहाँ प्रस्तुत हैः-
उन्होंने कहा कि “जब से मैंने परमात्मा में विश्वास करना शुरू किया तब से मेरा असली जीवन शुरू हुआ। जब तक मेरे अंदर परमात्मा में विश्वास नहीं था उस समय मेंै वास्तव में मुर्दा था।”
मेरी हालत अजीव है मेरे जीवन को उसी दशा में बच सकने का भरोसा दिलाया जा रहा है कि मैं पशु मांस का सेवन करूँ, परंतु दूसरे के रक्त और मांस के भक्षण से तो मैं अपनी मौत बेहतर समझता हूँ । क्योंकि जब से मुझे अपने अंदर के राग- द्वेष, मोह- माया और परिग्रह से विरक्ति हुई तब से मैंने अपने आप में अभूतपूर्व शांति महसूस की है।
मैंने अपनी अंत्येष्टि के लिए वसीयत कर दी है। वह यह कि मैं चाहता हूँ कि:- “मेरी शव यात्रा में शोक प्रकट करने वाली गाड़ियों की टोली, पत्रकारों के कैमरों और लाइटों की चमक की जगह सिर्फ मेरे उन चाहने वालों के भीड़ हो जिन मजलूमों को मैंने अपने अपरिग्रह की बजह से अपनी अपार संपत्ति बाँट दी है। तथा उन गाय, भेड़ों, बकरियों के समूह और मुर्गियों की टोली हों और उनके गले में सफेद गुल्लू बंद हों जो उस व्यक्ति के लिए सत्कार का
प्रदर्शन कर रहे हों जिसने अपने उन निरीह और अबोल साथी प्राणियों को मार कर खाने के बदले खुद मर जाना बेहतर समझा हो।”
“अंत मैं अपने जीवन के उन क्षणों से ‘अनंत ऊर्जा, अनत शांति, सुकून और अपार खुशी का एहसास कर रहा हूँ‘ जब से मैंने राग-द्वेष और सांसारिक मोह माया को तिलांजलि देकर इस दुनिया में जीना शुरू किया था।”
संसार का यही सबसे बड़ा और सर्वमान्य सत्य है कि जीवन में अगर शांति चाहते हो तो उन तमाम निर्मूल चींजो से दूर रहे जो तुम्हारे अंदर पैदा करती हो, वो सारी वस्तुएँ जिनको एकत्र करने की लालच मनुष्य के अंदर लोभ,मोह, क्रोध उत्पन्न कर राग- द्वेष के लिए प्रेरित करती हों।
अशोक जैन
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