विगत दिनों जैन समाज मे घटी दो घटनाओं ने बड़ा ही विचलित तो किया, साथ ही जैन धर्म की मर्यादा को भी धूमिल किया। एक ओर ब्रह्मचारिणी रेखा दीदी का पुतला बनाकर, उसके मुख पर कालिख पोत कर प्रदर्शन किया जा रहा है। दूसरी ओर एक बुजुर्ग संतोष जैन पटना के खिलाफ रैली निकाल कर उसका भी पुतला दहन किया जा रहा है। जैन समाज किस मोड़ पर पहुंच रहा है और इस के क्या घातक परिणाम होंगे इनका चिंतन कोई नहीं कर रहा है। सबको केवल और केवल अपने वैभव को सुदृढ करने एवं आपसी वैमनष्यता को बढ़ावा देने से फुर्सत ही नहीं है। व्यक्तिगत अहम,दंभ का जैन समाज शिकार हो रहा है।
भाद्र मास का पवित्र माह और जैन अनुयायियों द्वारा इस प्रकार का कृत्य करना, यह कौन सी हिंसा में आता है। यदि किसी ने गलती की है तो इस पवित्र माह में उन्हें इस प्रकार की सजा देना उचित या अनुचित इस पर में कोई भी टिप्पणी नहीं करना चाहता हूँ।
लेकिन हाथों में सूअर के बच्चे, मुंह पर कालिख, छोटे-छोटे बच्चे और महिलाओं से चप्पल पड़वाना, क्या हिंसा का अंग नहीं है?
अहिंसा की यदि परिभाषा को समझे तो मन वचन काय से रंच मात्र भी किसी को दुख पहुंचाना हिंसा की श्रेणी में आता है। द्रव्य हिंसा के साथ भाव हिंसा भी होती है।फिर इस पवित्र माह में यह कैसी क्रिया है जो हिंसा की श्रेणी में नहीं आती है? कोई क्या कर रहा है कोई क्या नहीं कर रहा है लेकिन हम क्या कर रहे हैं इस बात का भी मंथन चिंतन और मनन होना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं अनजाने में हम अपने कर्मों का बन्ध कर रहे हो और हिंसा का पाप अपने सिर पर चढ़ाने के लिए तैयार बैठे हों।
दोनो ही पक्ष जैन समाज के हितकर नही हो सकते जो खुलेआम इस तरह की हरकतें कर रहे हैं।जहां धर्म की हानि हो रही हो,जैनत्व का ह्रास हो रहा हो वहां हमे जाना ही नही चाहिए अपितु यहां तो उसके बिल्कुल विपरीत कार्य हो रहा है कि हम ही उसके भागीदार बन रहे हैं। सोशल मीडिया के प्रत्येक प्लेटफॉर्म को इस प्रकार की घटनाओं से भर दिया गया जिसे जैन ही नही जैनेत्तर समाज भी देख,सुन रहा है। सोशल मीडिया की न्यूज़ को सभी जैन -अजैन के साथ प्रशासन भी पढता है, जिससे अनादिनिधन जैन धर्म व समाज बदनाम हो रहा है जिससे आने वाले समय में घातक परिणाम भुगतने पड़ेंगे राह चलते हुए एक व्यक्ति ने पूछा कि यह जैन समाज में एक माताजी का फोटो क्यों जलाया जा रहा था। उसके इस प्रश्न को सुनकर मन बड़ा ही उदास हो गया और शब्दों के पास तो उत्तर ही नहीं था। कि आखिरकार इन व्यक्ति को मैं कैसे समझाऊं कि ना तो यह माताजी है और ना ही जलाने वाले जैन धर्म के सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। क्षमा और अहिंसा प्रधान धर्म मे इन सबकी कोई जगह नही है।
इन घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए विचार करे तो जैन समाज वास्तविक रूप से नेतृत्व विहीन है। किसी भी प्रकार की राष्ट्रीय संस्थानों की जैन समाज को दिशा देने में भूमिका नगण्य नजर आती है। सब मौन लगाए बैठे हैं। लेकिन कब तक ऐसा होते देखते रहेंगे,आखिरकार मौन साधना से उठना तो होगा। लेकिन कहीं देर ना हो जाए, ऐसी स्थितियां उत्पन्न ना हो जाए कि समाज खंड-खंड विखंडित हो जाए जागो और जगाओ समाज को सही दिशा में ले जाने का प्रयास करो। गलत को गलत और सही को सही कहने की हिम्मत रखना ही समाज के नेतृत्व कर्ताओं का कार्य होता है यदि वह ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें अपने पदों पर भी रहने का कोई अधिकार नहीं है।
श्रावक साधु दोनों मौन
समाज को संभाले कौन
सन्तों और आर्यिका माताओं से भी करबद्ध निवेदन है कि इस ज्वाला को और धधकाने की बजाय शांत और शमित करे। आप ही समाज के मार्गदर्शक, पथ प्रदर्शक और दिशा देने वाले हैं। आपसे ही समाज की आन,बान, शान और पहचान है। आप अपनी वाणी के माध्यम से समाज को सटीक दिशा में ले जाने का कार्य करें।
अंत में इतना ही कहना चाहूंगा की बहुत हुआ अब बंद करो इस प्रकार की घटनाओं से समाज को कोई फायदा होने वाला नहीं है। अतः निवेदन को स्वीकार करते हुए इन सब घटनाओं पर अब विराम लग जाना चाहिए और जो भी सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया है उसे तुरंत डिलीट कर जैन धर्म के उत्थान हेतु एकत्रित भाव से कार्य करे। क्षमा के साथ सादर।
संजय जैन बड़जात्या कामां