पर्युषण पर्व – आत्मसाक्षात्कार का दिव्य पर्व – विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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चातुर्मास के दौरान भाद्रमाह की पंचमी से दस दिवसीय पर्युषण पर्व जैन मान्यताओं के अनुसार मनाया जाता हैं .दस दिवस में प्रत्येक दिवस का अपना अपना महत्व या धर्म होता हैं . वास्तु का जो स्वाभाव होता हैं उसे धर्म कहते हैं .वस्तुस्वभावो धर्मः .जैसे अग्नि का स्वाभाव ताप देना हैं ,वैसे ही आत्मा धर्म मयी हैं .उत्तम क्षमा .मार्दव आर्जव ,सत्य, शौच ,संयम ,तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य.ये चार कषायों क्रोध ,मान माया और लोभ ,पांच पापो जैसे हिंसा ,झूठ ,चोरी ,कुशील और परिग्रह से छूटकर किस प्रकार अपनी आत्मा या ब्रह्म में आचरण कर ,अपनी आत्मा का कल्याण करे .यह अपनी आत्मा में छाई कलुषिता को दूर कर अपनी आत्मा से साक्षातकार करने का यह स्वर्णिम अवसर होता हैं .यदि हम अपने जीवन में एक भी धर्म को उतार ले तो अपना आत्मकल्याण कर सकते हैं .अपूर्व अलौकिक धर्म साधना का समय होता हैं .ये मात्रा दस दिन हमे वर्ष भर के लिए आचरण की याद दिलाने आते हैं .वैसे हमें अपना जीवन प्रत्येक क्षण धर्म मय मनाना चाहिए .
बिना कारण के कोई कार्य उत्पन्न नहीं होता. कोई भी कार्य निर्थक नहीं होता. बहुत पहले समाज विखरित था. उस समय आवागमन के साधन शून्य .कच्चे मार्ग ,बैलगाड़ी ,घोड़ों की सवारी ही मुख्य साधन होते थे .अधिकतर निवास गांव में होते थे. व्यापार शुन्य ,खेती किसानी से निवृत्ति और आवागमन का साधन न होने से जीवन अवरुद्ध सा हो जाता. उस समय समय की उपयोगिता हेतु अधिकतर धार्मिक आयोजन किये जाते थे.जिससे समय के साथ जीवन की यथार्यता का दर्शन होते थे.हमें क्या करना चाहिए और हम क्या कर रहे हैं .इससे जीवन की दशा और दिशा समझ में आती थी और हैं भी.
कच्ची सड़के,हरियाली अधिक ,वर्षा की आधिक्यता से आवागमन सीमित होने से धार्मिक सामाजिक आयोजन किये जाते. जीव हिंसा का डर ,हरी साग सब्जी में रोगों का संक्रमण होने से उसका भी त्याग और उस समय इतनी प्रकार की सब्जियां भी नहीं मिलती थी तो सादा भोजन ,जीवन और उच्च विचार का परिपालन करते थे .
यह चातुर्मास सब समाज में और दर्शन में मनाते हैं और इसका आयोजन कुछ सार्थक उद्देश्य के होते थे और हैं . इसमें मुख्यतः जीव हिंसा का वचाब और धार्मिक भावना का उदघाटन करना ,इसके लिए कही भागवत गीता ,रामायण आदि का परायण होता हैं .आत्म कल्याण की भावना बलबती होती हैं.
जैन समाज में आज से पचास साठ पहले जैन आचार्यों ,मुनियों की इतनी अधिक संख्या नहीं रहती थी और न सब जगह मुनि वर्ग पहुंच पाते थे तथा उस समय आर्थिक संघर्ष भी आज की अपेक्षा अधिक था. उस समय आवागमन के साधन तैयार होने लगे थे. और समाज गांव से शहरों की ओर आने लगी चाहे व्यापार के लिए ,नौकरी के लिए या शिक्षा के लिए. या विकास के लिए.
पचास साठ साल पहले कुछ पंडित जी ,कुछ विद्यवान ही पर्युषण पर्व में बुलाये जाते थे उसी समय धरम का रसास्वादन मिल जाता था. आचार्य श्री के प्रादुर्भाव से और उस समय अन्य आचार्यों के कारण अनेकानेक मुनि आचार्य , आर्यिकायें दीक्षित हुए और अब इस समय चातुर्मास स्थापना ने एक महोत्सव का रूप ले लिया ,इतनी भव्यता होती हैं की भव्यता में भी प्रतिस्पर्धा होने लगी यह शुभ लक्षण हैं !.इससे समाज में मुनि संघों ,आचार्य संघों ,आर्यिका संघो और ऐलक,क्षुल्लक ,ब्रह्मचारी आदि के माध्यम से ज्ञान की अमृत वर्षा होती हैं और प्रभावना का बोध होता हैं .
आजकल उच्च श्रेणी के श्रावक /श्राविका होते जा रहे हैं और वर्तमान में आचार्यों के कारण उनके शिष्य भी बेजोड़ ज्ञानी,ध्यानी ज्ञाता हो गए है .उन्होंने लगातार अध्ययन कर अपने आप में श्रेष्ठता हासिल की हैं .उनकी प्रभावना हमारे ऊपर अधिक क्यों पड़ती हैं ?उसका कारण उनकी त्याग ,तपस्या .साधना ,विवेक, ज्ञान और उनके द्वारा कुछ समाज ,देश के कल्याण के हित की बात करते हैं .और वे मात्र स्व पर कल्याण में रत होते हुए समाज को बहुत देते हैं .संसार की अनित्य दशा से छूटकर आत्मिक कल्याण में लगो . आचार्य /मुनि /श्राविका समाज से आहार लेते हैं ,जिसके कारण आहार दाता अपने को बड़ा भाग्यशाली मानता हैं,बड़े पुण्य से मुनि महाराज आदि आहार लेते हैं जिसके उत्साह का ठिकाना दाता को होता हैं और उसके बदले आचार्य /मुनि /आर्यिकाये स्वकल्याण /आत्मसाधना करती/करते हैं और समाज को ज्ञान दान ,चरित्र निर्माण में सहयोग देती हैं ,प्रेरणा देती हैं ,प्रेरक बनते हैं .
आज कल साधन ,सुविधाएं ,व्यापार, नौकरी के कारण सम्पन्नता आने से समय की कमी होती जा रही हैं ,हम कमवख्त (कम वक़्त) होते जा रहे हैं ,आज वर्तमान में आर्थिक ,भौतिक चकाचौंध के कारण और बहुत सुशिक्षित होने के कारण विदेशों में जाना आजकल सामान्य होता जा रहा हैं और महानगरों में भी /व्यापार /नौकरी के कारण जाने से आहार/भोजन की परमपरा जो रात्रिकालीन त्याग की थी वह पूर्णतयः समाप्त हो गयी ,और अब अंतरजातीय विवाह या प्रेम विवाह होने के कारन वे लोग समाज से जुड़ना नहीं चाहते .और धनवान लोग अपने अपने द्वीप में रहकर पूर्ण स्वच्छंदता से रहकर पर उपदेश देते हैं .
नगर निगम अशुद्ध पानी प्रदाय करती हैं पर हम अपना लोटे का पानी छान कर .साफ़ रखते हैं वैसे धरम व्यक्ति प्रधान होता हैं तथा भाव प्रधान हैं .भावना से ही बढ़ या छोटे होते हैं हम समाज सुधारक नहीं हैं .समाज का सुधारना बहुत कठिन हैं जब वह सम्पन्न ,शिक्षित हो और उसमे समाज का कोई नियंत्रण न हो .कारण समाज इतना फैला हैं की कौन कहाँ क्या कर रहा है किसी को नहीं मालूम . पहले विजातीय शादी या नियम विरुद्ध कृत्य करते थे तो उन्हें समाज से बहिष्कृत किया जाता था ,अब आजकल उन्हें ही श्रेष्ठि जन के रूप में मान्यता मिलती हैं .आजकल अनैतिक ढंग से आय /आमदनी होने के कारण या करने के कारण जैसे शराब का धंधा करना ,स्मगलिंग करना ,सट्टा,जुआ खिलाना तस्करी करना या चमड़े उद्योग लगाना ,कृमिनाशक रसायनों का व्यापार करना आज समाज में सामान्य होता जा रहा हैं . और इन्ही के कारण बड़ी बड़ी योजनाओं में भागीदारी होती हैं . इससे उनके चरित्र का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता क्या ? यह कोई व्यक्तिगत आलोचना नहीं हैं ,
हमारे लिए यह बहुत शुभ घडी हैं की इस समय चातुर्मास स्थापना इतनी जगह हो रहे हैं जिससे बहुसंख्य समाज मुनि ,आचार्य आर्यिकाओं आदि की उपस्थिति से लाभान्वित होंगे और उन्हें भी साधना करने का अनुकूल स्थान मिलेंगे और हम लोग जो अज्ञानी ,अबोध ,धरम से दूर रहने वालों को जुड़ने और ज्ञान से वे भी अपना कल्याण कर सकेंगे.कल्याण न हो तो कोई बात नहीं सदमार्ग पर चलना सीख जाए यही सच्चा चातुर्मास होगा.
वर्तमान में जैन श्रमण संस्कृति संसथान सांगानेर से प्रक्षिक्षित विद्वानों द्वारा पूरे भारत के साथ अन्य देशों में भी जाकर धरम की प्रभावना की जा रही हैं और इसी के साथ श्रावक संस्कार शिविर से भी धरम की जाग्रति के साथ प्राथमिक शिक्षा दी जा रही हैं यह अनुकरणीय प्रयास हैं।
यह पर्व हैं अपने कल्याण का ,
यह अवसर हैं सुधारने और सुधरने का,
बीता हुआ समय नहीं आयेंगा
आगे को तो हम सम्हाल सकेंगे .
जीवन की सार्थकता के लिए
यह हैं प्रथम सीढ़ी आत्मकल्याण की
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

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