उत्तम त्याग : सुपात्र को दें दान, त्यागें बुरी आदत, समय का दान करना भी जरूरी
-डॉ. सुनील जैन,संचय ललितपुर
दसलक्षण महापर्व के आठवें दिन उत्तम त्याग धर्म की आराधना की जाती है। जो मनुष्य सम्पूर्ण पर द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार , देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है उसके उत्तम त्याग धर्म होता है । सच्चा त्याग तब होता है जब मनुष्य पर द्रव्यों के प्रति होने वाले मोह , राग ,द्वेष को छोड़ देता है ।दान हमेशा स्व और पर के उपकार के लिए किया जाता है । श्रावक को स्वयं तो दान देना ही चाहिए अपने बच्चों को भी धर्म स्थल के गुल्लकों में रोज कुछ दान करने का अभ्यास करवाना चाहिए । उनके यह संस्कार उनके धर्म की वृद्धि में सहायक बनेंगे । गृहस्थ के छह आवश्यक कार्यों में दान प्रतिदिन का कर्तव्य कहा गया है । सांसारिक सुख सुविधाओं को भोगने की इच्छा न करना ही त्याग धर्म है।
आवश्कता से अधिक धन संग्रह न करना जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओ के अतिरिक्त अन्य का त्याग करना अच्छे कर्मो को करना ही त्याग धर्म है। ऐसे कर्म करने से उत्तम त्याग की प्राप्ति होती है।
जैन परंपरा में दान चार प्रकार का बताया गया है। उत्तम पात्र को औषधि, शास्त्र, अभय, आहार दान देना चाहिए। धन की तीन गतियाँ हैं— दान, भोग और नाश। बुद्धिमत्ता इसी में है कि नष्ट होने से पहले उसे परोपकार में लगा दिया जाये। उत्तम कार्यों में दिया या लगाया हुआ धन ही सार्थक है, अन्यथा तो उसे अनर्थों की जड़ कहा गया है।आज दान के नए रूपों की भी आवश्यकता है जैसे श्रम दान , समय दान आदि । आज लोग धार्मिक कार्य के लिए पैसा जितना चाहे देने को तैयार हैं किन्तु समय और श्रम देना बहुत मुश्किल हो रहा है । इसलिए भलाई के काम में जो धन नहीं दे पा रहा है किन्तु समय दे रहा है और ईमानदारी से श्रम कर रहा है वह भी उस पुण्य का उतना ही हकदार है जितना धन देने वाला । त्याग और दान, अहंकार और बदले की भावना से नहीं करना चाहिये ।
त्याग के बिना मनुष्य की शोभा नहीं होती। संसार में अधिकतर लोग अपनी ताकत और पैसे का व्यय इंद्रियों के पोषण और शरीर की रक्षा में करते हैं। परंतु बिरले लोग ही त्याग धर्म को अपनाकर आत्मिक निधि प्राप्त करते हैं।
भोग विलास की चीजों और क्रोध, मान, माया, लोभ का त्याग सबसे बड़ा माना गया है और महत्वपूर्ण भी ।त्याग करने से लोभ और मोह कम होता है । राग द्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम त्याग है। त्याग और दान का सही प्रायोजन तभी सिद्ध होता है जब हम जिस चीज का त्याग कर रहे हैं या दान कर रहे हैं उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान सम्मान पाने का लोभ न हो।
दान और त्याग में फर्क यह है की दान अपने लिये थोड़ा रख कर, थोड़ा दिया जाता है, जबकि त्याग में पूरा का पूरा छोड़ा जाता है ।
दान दूसरे की अपेक्षा से दिया जाता है, त्याग किसी की अपेक्षा से नहीं सिर्फ वस्तु को छोड़ा जाता है ।
दान प्रिय चीजों का होता है, जैसे – जीवन दान, ज्ञान दान आदि ।
त्याग अप्रिय चीजों का जैसे – कमजोरियाँ, बुराईयाँ । त्याग और दान, अहंकार और बदले की भावना से नहीं करना चाहिये ।
आचार्यों ने कहा है कि सुपात्र को दिया दान-परम्परा से मुक्ति का कारण है। कुपात्र को दिया दान—कर्मबंध का कारण है, संसार को बढ़ाने वाला है। लेकिन वांछा से रहित दान, कर्मक्षय का कारण है। उत्तम त्याग धर्म-भव बंधन से छुड़ाने वाला, मुक्ति का सोपान है।
कविवर द्यानतराय जी तो यहाँ तक कहते हैं कि बिना दान के श्रावक और साधु दोनों ही बोधि यानि रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करते।
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाहीं बोधि को।।
हम सब भी अपनी-अपनी शक्ति अनुसार दान के भावों में प्रवृत्ति करते हुये उत्तम त्याग धर्म को धारण करे और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों ।