संघर्ष में समता की सीख देता है तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवन
– डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
भारतीय संस्कृति की प्रमुख धारा श्रमण परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक एवं गौरवशाली महत्व रहा है। जैनधर्म के 23वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म बनारस के राजा अश्वसेन और रानी वामादेवी के यहां पौष कृष्ण एकादशी के दिन हुआ था। जैन परंपरा में वर्तमान में तीर्थंकर पार्श्वनाथ बहुत ही लोकप्रिय और श्रद्धालुओं की आस्था के प्रमुख केन्द्रबिन्दु हैं। चिंतामणी, विघ्नहर्ता, संकटमोचक आदि के रूप में भी इनकी खूब प्रसिद्धि है।
तीर्थकर पार्श्वनाथ क्षमा के प्रतीक : तीर्थकर पार्श्वनाथ क्षमा के प्रतीक हैं। हर व्यक्ति उत्कर्ष तो चाहता है पर उपसर्ग, कष्ट, संघर्ष से बचना चाहता है पर बिना उपसर्ग के बिना संघर्ष, बिना चैलेंज के जीवन में उत्कर्ष संभव नहीं। जो उपसर्ग और चुनौतियों को समता से जीवन में सहन करता है वह भगवान भी बन जाता है। ऐसे ही मरुभूति के जीव ने दस भव तक अपने सगे भाई कमठ का उपसर्ग सहन किया, वह मरूभूति आगे जाकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ बन गए। भगवान पार्श्वनाथ का अतीत संघर्षमय रहा है। दस भव तक निरंतर जीवन घात होने पर भी कभी क्षोभ नहीं किया, न अन्य को दोषी ठहराया, धैर्य पूर्वक सहन किया, तभी संसार के बंधनों से मुक्त हुए। पार्श्वनाथ भगवान के पदचिन्हों पर चलकर हम सभी भी अपना जीवन कल्याण कर सकें।
लोकव्यापी चिंतन का जनमानस पर प्रभाव : अपने उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह पर अधिक बल दिया। उनके सिद्धांत व्यावहारिक थे, इसलिए उनके व्यक्तित्व और उपदेशों का प्रभाव जनमानस पर पड़ा। आज भी बंगाल, बिहार, झारखंड और उड़ीसा में फैले हुए लाखों सराकों, बंगाल के मेदिनीपुर जिले के सदगोवा और उड़ीसा के रंगिया जाति के लोग पार्श्वनाथ को अपना कुल देवता मानते हैं। मैने खुद अनेक बार पश्चिम बंगाल के सराक क्षेत्र में जाकर देखा है। पार्श्वनाथ के सिद्धांत और संस्कार इनके जीवन में गहरी जड़ें जमा चुके हैं। इसके अलावा सम्मेदशिखर के निकट रहने वाली भील जाति पार्श्वनाथ की अनन्य भक्त है। भगवान पार्श्वनाथ की जीवन घटनाओं में हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबंधों के निर्धारण के रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथापूर्व है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिंतन ने लम्बे समय तक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया। उनका धर्म व्यवहार की दृष्टि से सहज था, जिसमें जीवन शैली का प्रतिपादन था ।
भारतवर्ष में सर्वाधिक प्रतिमाएं : उनकी ध्यानयोग की साधना वास्तव में आत्मसाधना थी। भय, प्रलोभन, राग-द्वेष से परे। उनका कहना था कि सताने वाले के प्रति भी सहज करूणा और कल्याण की भावना रखें। तीर्थकर पार्श्वनाथ की भारतवर्ष में सर्वाधिक प्रतिमाएं और मंदिर हैं तो वहीं उन पर बड़ी मात्रा में साहित्य का सर्जन भी हुआ है।
लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र मोक्ष स्थली सम्मेदशिखर : साधना करते हुए श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन सम्मेदशिखरजी पर्वत से वे मोक्ष को प्राप्त हुए। वर्तमान में सम्मेदशिखरजी झारखंड प्रांत में स्थित है। यह स्थान जैन समुदाय का सबसे प्रमुख तीर्थस्थान है। जिस पर्वत पर पार्श्वनाथ को निर्वाण प्राप्त हुआ वह पारसनाथ हिल के नाम से जाना जाता है। लाखों श्रद्धालु यहां दर्शनार्थ आते हैं। इस तीर्थ के बारे में कहा जाता है कि ‘एकबार वंदे जो कोई, ताहि नरक- पशु गति नहिं होई ।’ अर्थात् जो भी श्रद्धालु सच्चे भाव से एकबार इस तीर्थ स्थान के दर्शन कर लेता है फिर उसको नरक और पशु गति प्राप्त नहीं होती। उनके जन्म स्थान भेलूपुर वाराणसी में बहुत ही भव्य और विशाल जैन मंदिर बना हुआ है। यह स्थान विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है।
पार्श्वनाथ पर सर्वाधिक भक्ति साहित्य का सृजन : तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भक्ति में अनेक स्तोत्र का आचार्यों ने सृजन किया है, जैसे- श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, इन्द्रनंदि कृत पार्श्वनाथ स्तोत्र, राजसेनकृत पार्श्वनाथाष्टक, पद्मप्रभमलधारीदेव कृत पार्श्वनाथ स्तोत्र, विद्यानंदिकृत पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि स्तोत्र रचना आराध्यदेव के प्रति बहुमान प्रदर्शन एवं आराध्य के अतिशय का प्रतिफल है। अतः इन स्तोत्रों की बहुलता भगवान पार्श्वनाथ के अतिशय प्रभावकता का सूचक है। भगवान पार्श्वनाथ हमारी अविच्छिन्न तीर्थंकर परम्परा के दिव्य आभावान योगी ऐतिहासिक पुरूष हैं। सर्वप्रथम डॉ. हर्मन याकोबी ने ‘स्टडीज इन जैनिज्म के माध्यम से उन्हें ऐतिहासिक पुरूष माना।
नूतन आध्यात्मिक समाजवाद का सूत्रपात : “पार्श्वयुग में अब तक जो जीवन-मूल्य व्यक्ति जीवन से संबद्ध थे, उनका समाजीकरण हुआ और एक नूतन आध्यात्मिक समाजवाद का सूत्रपात हुआ। जो काम महात्मा गांधी ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अहिंसा को लोकजीवन से जोड़ कर किया, वही काम हजारों वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ ने अहिंसा की व्याप्ति को व्यक्ति तक विस्तृत कर सामाजिक जीवन में प्रवेश दे कर दिया। यह एक अभूतपूर्व कान्ति थी, जिसने युग की काया ही पलट दी।”
भगवान पार्श्वनाथ की जीवन घटनाओं में हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति तथा व्यक्ति – और व्यक्ति के बीच के संबंधों के निर्धारण के रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथापूर्व है। हिंसा और अहिंसा का द्वन्द भी हमें इन घटनाओं में अभिगुम्फित दिखाई देता है।
अगाध श्रद्धा से मनायी जाती है मुकुट सप्तमी पर्व (मोक्ष सप्तमी ) : जैनधर्म के लोकप्रिय 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की निर्वाण तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी को मुकुट सप्तमी पर्व (मोक्ष सप्तमी) के रूप में वृहद् स्तर पर मनाए जाने की प्राचीन परंपरा जैनधर्म में है। इस दिन जैन मंदिरों में जहां विशेष अभिषेक, पूजा-अर्चना, शांतिधारा और पार्श्वनाथ भगवान का निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है वहीं विशेषरूप से महिलाएं, युवतियां व्रत-उपवास रखती हैं। अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। व्रतों के उद्यापन भी किये जाते हैं।