पंथवाद की भेट चढता जैन समाज

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महावीर दीपचंद ठोले,छत्रपतीसंभाजीनगर,(औरंगाबाद )7588044495
जैन धर्म मूल प्रकृति जन धर्म है। उसकी दिगंबर परंपरा अति समीचीन एवं सनातन है। जो भगवान आदिनाथ के काल से चली आ रही है। पंचम काल से पहले ईसमें कोई मतभेद नहीं था। काल की गति में मतभेद होकर धीरे-धीरे उसमें श्वेतांबर परंपरा का बीजारोपण होना शुरू हुआ। लगभग दसवीं शताब्दी में जैन धर्म पर भीषण आघात आया और उसके आकर्षक और प्रभावक स्थिति को देखकर भयंकर ईर्षा का जन्म हुआ। वैदिक धर्मानुयायो ने उस पर आक्रमण कर अल्पसंख्यक बनाना शुरू कर दिया। जैन ब्राह्मण, जैन क्षत्रिय, जैन वैश्य, जैन शुद्र जैसी जातियों की उत्पत्ति इसी की फलश्रृति है ।
तात्या साहेब चोपडे की जैन आणि हिंदू इस मराठी पुस्तक के अनुसार इसा पूर्व 1000 वर्ष पूर्व जैनियो की आबादी लगभग 40 करोड़ थी ।जो कम होते-होते ई सन 1556 में अकबर के काल में मात्र चार करोड़ शेष रही। और 2011 के जनगणना अनुसार अब मात्र 44 51753 ही रही ।यह वर्तमान में हमारी जनसंख्या की स्थिति है। जनसंख्या कम होने के अनेक कारण है। कठिण धर्म तत्वों के कारण, हमारी कट्टरता के कारण धर्म परिवर्तन हुए। राजाश्रय नहीं मिला। जिससे अनेक जैनियों ने देश पलायन किया। धर्मान्तरन किया। 17 वीं शताब्दी में पंडित बनारसी दास जी ने तेरापंथ को जन्म दिया ।15वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रांताओं के कारण तरण तारण जो मूर्ति पूजक नहीं है ,पंथ का उद्गम हुआ ।और अभी-अभी 19वीं शताब्दी में कानजी स्वामी द्वारा कानजी पंथ की स्थापना हुई। इस प्रकार हम श्वेतांबर, दिगंबर ,तेरह पंथी, बीसपंथी, तरण तारण आदि पंथो में बटते गए ।अब विभाजन सिद्धांतो के नामपर न होकर साधु विशेष के नाम पर हो रहे है ओर भविष्य में ऐसे ना जाने कितने विभाजन होने की संभावना है ।शाकाहारी जैन,मांसाहारी जैन,माडर्न जैन भी हमारी पहचान हो रही है। अनेकांतवाद को भूलकर तेरह बीस के चक्कर में पड़कर अनेक वाल खड़े कर कर हम हमारे ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर जैन समाज का अहित कर रहे हैं।
पुरातन काल से चले आ रही आर्ष परंपरा मे तेरह बीस का कोई कहीं उल्लेख ही नहीं है। वह सिर्फ मुल आम्नाऐ को ही स्वीकार करती है। हमारे बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती शांति सागर जी महाराज के समय तक तेरह बीस परंपराओं में विभिन्नता होते हुए भीआपसी सौहार्दता थी, समरसता थी। दोनों अनेकांत धर्म का निष्ठा पूर्वक निर्वाह करते थे। परंतु विगत कुछ दशकों से तेरह बीस को लेकर समाज में टकराहट की स्थिति का सृजन हुआ, कषाये बढ़ रही है। समाज की पारस्परिक शांति भंग हो गई है। समाज की ऊर्जा व लक्ष्मी आपस में लड़ने झगड़ने में, मुकदमे बाजी में व्यय होने लगी है। जिसका ज्वलंत उदाहरण शिरपुर क्षेत्र का ,सम्मेद शिखरजी का ,केशरियाजी का विवाद हमारे सामने है।अभी पन्द्रह दिन पुर्व ही 40 वर्षो से चल रही शिखर जी के विवाद की सुनवाई दो जजो के बेन्च के सामने नौ दिन चली ।जिसमे साडे आठ दिन कल्याण जी पेढी ने पैरवी की तो हमे मात्र आधा दिन समय दिया गया और केस बिना किसी फैसले के चीफ जस्टिस के सामने ट्रान्सफर हो गयी जो पुन्हः तीन न्यायमूर्ति के बेन्च के सामने पहले से चलेगी।जिसमे समाज का करोडो रूपियो का अपव्यय हो रहा है। हमारे आपसी विवाद का लाभ अन्य समाज उठा रहा है । हमारे अनेक क्षेत्रो पर आक्रमण होकर उसे अन्य समाज अपने कब्जे में कर रहे है। जैसे गिरनारजी, बद्रीनाथ आदी।आज भी हमारी अनेक प्राचीन मुर्तिया, भुगर्भसे उत्खनन मे मिलती है।जो हमारे आपसी विवाद के कारण पुरातत्व विभाग अपने कब्जे मे ले लेती है। इसका मूल कारण पंथवाद ।जिससे हमारी संगठन शक्ति दिन-ब-दिन कम हो रही है । हमें अनेकता में एकता का परिचय देने की आवश्यकता है। कहा भी है दिगंबरा सहोदरा सवे’ अर्थात हम सारे दिगंबर भाई-भाई है। ना कोई जाति का, पंथ का, क्षेत्र का, संत का बंधन हो। तभी हम संगठित होकर आगे बढ़कर हमारे प्राचीन संस्कृति को बनाए रखने में सक्षम रहेगे।

परंतु विडंबना है कि पंथवाद का जन्म शिथिलता,कषाय और प्रतिकूल परिस्थितियों के वातावरण में हुआ। श्रमण और श्रावक अपने अपने मार्ग बना रहे हैं । आत्म मुग्ध और सर्वश्रेष्ठ होने के गौरवबोध ने हमारे ग्राफ का स्तर ऊस पल से नीचे गिराना प्रारंभ कर दिया था जब हमने स्वयं को ऋषभदेव और महावीर के विचारधारा से अलग कर संत , पंथ , कर्मकांड और आडंबर में उलझ कर अपनी-अपनी छोटी छोटी पगडंडिया बना ली। मै कडवे शब्द मे लिखने को विवश हुकि
सह न सकोगे हकीकत, आईना मत देखना। खुद से ही हो जाएगी नफरत आईना मत देखना। क्यो की जिस राह पर हम चल पडे है ऊससे तो लगता है कि स्वयं साक्षात भ महावीर ईस धरातलपर आ जाए तोभी वे हमारी रक्षा नही कर पाएगे। हम वह कर रहे है जो भ महावीर ने कभी कहा ही नही।
वर्तमान की ऐसी स्थिति में उलझाने वाले हमारा श्रेष्ठी वर्ग ही मुख्य है। में दावे के साथ कह सकता हूं कि 90% प्रतिशत हमारे जैन भाई तेरह बीस के विवाद को समझते ही नहीं है। उन्हें उससे कुछ लेना देना भी नहीं है। वे जल अभिषेक भी देखते हैं और पंचामृत भी देखकर अपने आप को धन्य मानते है। उनकी श्रद्धा दिगंबरत्व के प्रति अटूट है परंतु अनेक स्थानोपर श्रेष्टियों की अपनी-अपनी ढफली अपनी-अपनी राग के कारण समाज दिग्भ्रमित हो गया है।
यह लिखने का उद्देश्य पर निंदा या आलोचना नहीं ।क्षमा याचना के साथ कटु सत्य उजागर करने की विवशता है। मैथिलीशरण गुप्त की कुछ पंक्तियां याद आती है हम कौन थे? क्या हो गए? और क्या होंगे अभी? आओ विचारे बैठकर ये समस्याएं सभी।
बंधुओ परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हमारा भूतकाल हाथ से छिद्रहस्ते यथोदकम् सा निकल गया। वर्तमान के ओस बिंदु क्षण भर में अदृश्य हो रहे है,और भविष्य मात्र लोकगीत बनकर रह जाएगा ।
पूर्व में हमारे श्रमण आर्ष मार्गी थे। सच्चे वितरागी निर्गन्थ थे। कथनी करनी एक रूप थी। मुनि आचार संहिता आगमानुसार थी। उनका पावन पवित्र चारित्र्य ,प्रवचन शैली ,अटूट मर्यादा, सादा सरल व्यवहार आज भी हमारे मानस पटल पर अंकित है। परंतु वर्तमान में श्रमण पद की गरिमा में ह्रास हो रहा है। आचार विचार में, मूलगुण पालन में, परिषह सहनन में समयानुकूल छूट को स्वीकार किया जा रहा है। जिन शासन की जगह नीज शासन का जोर है। शीथिलाचार की घटनाएं सुनकर मन खिन्न हो जाता है। साधु वर्ग भूल गए हैं कि साधुत्व आत्म कल्याण की भावना से ग्रहण किया है। और मोक्ष प्राप्ति साधनों से नहीं साधना से मिलती है। मैं विश्वास के साथ लिख सकता हूं कि वर्तमान में भी अतीत जैसे महान तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी ,आगमोक्त चर्या में खरे ,धर्म के मर्मज्ञ प्रभावशाली श्रमणो की, संतों की कमी नहीं है। जो जिन शासन की गरिमा को,मोक्ष मार्ग को यथावत प्रशस्त कर रहे है। जिनका गर्व हम युग युगान्त तक करते रहेंगे।
वर्तमान की स्थिति से भविष्य का अनुमान लगाना कोई कठिन नहीं है। प्रत्येक साधु का अपना-अपना मठ होगा। 28 मूल गुण एवं महाव्रत की नई व्याख्याऐ होगी। मुलाचार तथा श्रमणो की आचार संहिता को नया रूप दिया जाएगा ।सोशल मीडिया के प्रभावक मुनियों की संख्या बढ़ेगी। जैन धर्म का स्वरूप जन मानस को नई राह दिखाएगा। नई पीढ़ी के सामने कोई तर्कसंगत समीक्षा नहीं होने से वे जैनाचार को फिजूल समझेंगे। सामाजिक रचना पर किसी का अंकुश नहीं रहेगा। हर कोई अपना अपना राग अपनाएगा।
दु:खद यह होगा कि जैन धर्म को मानने वाले मतभेद ,पथभेद, संतभेद के कारण जैनत्व छोड़ने लगेंगे और जैनेतर लोग इसकी प्रामाणिकता को देखकर जैन धर्म को स्वीकार करने लगेंगे ।जैन मात्र जन्मना जैन रहेंगे कर्मणा नहीं ।जैनो की भीड़ में ही हमें जैन ढूंढना मुश्किल हो जाएगा ।जब दो जैन भाई आपस में एक दूसरे का परिचय पूछते हैं तो मैं श्वेतांबरी हूं ,मैं मूर्ति पूजक हूं, मैं स्थानक वासी हूं ,मैं उस महाराज का भक्त हूं ,पर कोई नहीं कहता कि मैं जैन हूं ।,तेरा बीस के कारण बेटी व्यवहार नही हो रहे, धर्म परिवर्तन करकर अन्तर्जातीय विवाह के सम्बध बढ रहे है। कितने अफसोस की बात है?
वर्तमान में सांप्रदायिकता ने मात्र धार्मिकता का चोला पहन कर रखा है । आध्यात्मिकता उनके जीवन से दूर होती जा रही है। जब हम सारे ही महावीर के अनुयाई है ।सारे ही णमोकार के उपासक है ।और जिनागम के प्रचारक है ।जब सिद्धांतो में , उपदेशों में कोई अंतर नहीं है ।तो संत- संत, पंथ -पंथ के नाम पर समाज में अलगाव क्यों है? हम मण्डीत होने की बजाय खण्डित हो रहे है। पंथवाद,संतवाद यह कोई मोक्ष मार्ग नही है,यह तो गुमराह करने के मार्ग है।और कडवे शब्द मे लिखु तो पंथवाद कोई आगम नही यह तो आतंकवाद है।
प्रत्येक संप्रदाय अपने मनोनुकुल भगवान महावीर की मूर्ति बनाने में प्रयत्नशील है। इससे भले ही उनकी ऊंचाई कुछ बढ़ रही होगी परंतु महावीर की ही मूर्ति खंड-खंड होकर उसकी ऊंचाई कम हो रही। यह सब देखकर हमारा युवा वर्ग भ्रमित और दिशाहीन है। आपसी विवाद के कारण, दैनिक जीवन के आचरण के कारण, उनके मन में प्रश्न उठता है ऐसे धर्म में क्या रखा है ?युवा पीढ़ी विज्ञान युग की पीढी है। उन्हें ऐसे भेदभाव वाली बातों में कोई रुचि नहीं है। उन्हें तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार पर जैन धर्म की समीक्षा नहीं होने के कारण और पाश्चिमात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण वे जैनाचार को फिजूल समझकर धर्म से दुर भाग रहे है।अब समय बदल गया है। पंथवाद,संतवाद , समाजवाद के अभिशाप से ऊभर कर नई पीढ़ी को सही रास्ता दिखाने का, वरना सभी पंथ आम्नाऐ अमान्य हो जाएगी और एक नई हवा बहकर नया पंथ निर्माण होगा।
हम आत्मवत् भुतेषु कहते है।पर समानता का अभाव है। हमारा जैन धर्म कहता है कि ठुकराओ, मत गले लगाओ । सुई बनो कैची नही।पर हम उल्टा कर रहे है। हमारी धार्मिक संकीर्णता ने हमारे जैन समाज को बहुत पीछे कर दिया है। हमने इस्लाम से समानता की ,एकता की भावना सीखनी चाहिए। सेवा सुश्रुषा, बीमारियों की खिदमत में ईसाई समाज का कोई मुकाबला नहीं है। तो सिक्खों ने वीरता और पराक्रम के साथ भक्ति को जोड़ा है। हम जैनी सभी क्षेत्रों में अग्रसर होने के बावजूद एकता के अभाव में किसी भी गिनती में नहीं आते। बड़ा दुख होता है ।सारे विश्व में प्रकाश फैलाने वाले जैन धर्म के दिया तले ही अंधेरा वाली स्थिति है। अतः
हे प्रभो ईस जैन समाजको सत्पथ दिखाओ ।लगी जो आग पंथवाद की उसे बुझाओ। रखे प्रज्वलित यह धर्म की ज्योत जो तुमने सुलगाई। न कुम्हलाए कभी ये हरी-भरी बाग जो तुमने लगाई

भ महावीर ने कहा है धर्म तोडता नही बल्की तुटे हुए ह्रदयो को जोडकर आपस मे तादात्म्य स्थापीत करता है।
इकबाल साहब ने लिखा है
मजहब नही सिखाता आपस मे बैर करना।
परंतु हमने धर्म को अलग अलग खेमो बाटकर ऊसकी शक्ति को क्षीण कर दिया है। जैनत्व की एकता बिखर बिखर गयी है। यदि हमारी संस्कृति ऐसे ही तुटते गई तो ऊसके बेश किमती धागे फिर जुडना मुश्किल हो जाएगे।ईसपर चिंतन करने की आवश्यकता है की हम संधटितजैन के रूप मे कब पहचाने जाएगे?
अभी-अभी महाराष्ट्र मे विधान सभा के चुनाव हुए उसमें हम एक है तो सेफ है ,बटेगे तो कटेंगे का नारा बहुत प्रचारित हुआ। यह नारा हमारे लिए भी बड़ा कारगर साबित हो सकता है ।जिससे निश्चित ही हमारा भविष्य सुरक्षित रहेगा नहीं तो जैसे बड़ी मछली छोटे मछली को निगलती है वैसी स्थिति हमारी होगी ।जैनीयोकी घटती आबादी पर चिंतन करने की आवश्यकता है। अन्यथा भविष्य में हम जैन कहानियों में भी सुरक्षित रह पाएंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है। ईसके लिए सबका साथ जैन धर्म का विकास,और जैसा महावीर ने कहा था जीयो और जीने दो वैसे ही अब
*जुडो
और जुडने दो,मिलो और मिलने दो* का सुत्र हमे अमल मे लाना होगा।
बंधुओ हम चाहे परंपरा, धार्मिकता, दर्शनिकता, सांस्कृतिकता, जातियता के आधार पर मतभेद रख ले। किंतु मनभेद कभी ना रखें। हम किसी भी पंथ के हो वह मात्र मंदिर या पूजा घर के भीतर हो बाहर तो हम एक जैन बन कर रहे ।एकता का परिचय दें तो जैन शासन युगों युगों तक सुरक्षित रहेगा।ईसलिए आवश्यकता है सभी श्रेष्ठियो को,संतोको एक मंच पर आनेकी ।पंथ व्यामोह मे न भटक कर पथ पर चलनेकी । यह सोच यदि विकसित होती है तो जैन धर्म की ध्वजा पूरे विश्व में फहरा सकती है और हम पुन्हः 40 करोड़ हो सकते है।
अतः हम सब मिलकर समाज में आई हुई विसंगतियों पर विहंगावलोकन करें और उसके निराकरण में अपने अहम्, स्वार्थ ,मान, लोभ और ऐषणाओ को त्याग कर इस पंथवाद,संतवाद निर्मूलन में अपनी आहुति दे ।और जिस प्रकार विभिन्न पुष्प एक बनकर एक सुंदर गुलदस्ता, या गले का हार बनता है, वैसे हम सभी मिलकर एक सुंदर शक्तिशाली समाज बनकर सिर मोर बने। और कहलाए हम नहीं दिगंबर, श्वेतांबर तेरापंथी ,बीस पंथी, स्थानकवासी ।हम एक धर्म की अनुयायी,हम एक देव के विश्वासी,हम जैनी , अपना धर्म जैन, इतना ही परिचय केवल हो।
जहा आवश्यक है वहा नवनिर्माण भी होना ही चाहिए परंतु ऊसके पहले ऊसको पुजनेवाली,ऊसका संवर्धन, संरक्षण करने वाली जीवंत मुर्तिया ,चैतन्य तीर्थ तैयार करने की आवश्यकता है। जिससे जैन बढगे तो हमारे जैन तीर्थ बचेगे, तभी जिन शासन सुरक्षित रहेगा।
श्री संपादक महोदय जयजिनेद्र।
कृपया यह आलेख प्रकाशित कर प्रकाशित कर उपकृत करे।धन्यवाद।
महावीर दी ठोले,छत्रपतीसंभाजीनगर, औरंगाबाद, (महा) 7588044495

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