पंच परम पद मैं भी भजता लेखक – मुनिश्री विबोधसागर महाराज

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प्रभु, अगर यह कली धरमकी, खिलती आतम तीरे ।
पंच परम पद मै भी भजता, मन में धीरे धीरे ॥

प्रथम प्रभु अरहंत पूजया, आतम होय अधीरे ।
कर द्वय जोड़ शीश चरनन में, धरता धीरे धीरे ॥
प्रभु अगर यह………..
दर्शन ज्ञान सहित गुण नन्तों, सुख मय विना शरीरे ।
श्रद्धा मन में अटल थामकर, अधर नाम रख पी रे ॥
प्रभु अगर यह………..
नैनन में आचार्य छवि भर, कुम्भकार वह ण्यारें ।
ठोक पीटकर खोट निकारें, तेरी धीरे धीरे ।।
प्रभु अगर यह……….
पाठक वसते श्वास श्वास पर, गुण सिखलाते न्यारे ।
छवि हृदय में श्रृद्धा सर में, मम गुण को उजयारे ॥
प्रभु अगर यह…………
सज्जन चर्या साधु की लख, तप कर करम न जारें ।
रमकर के निज की आतम में, निज आतम उजयारें ॥
प्रभु अगर यह ……….

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