कबीर कह रहे हैं वैररहित होना, निष्काम भाव से ईश्वर से प्रेम और विषयों से विरक्ति- यही संतों के लक्षण हैं। जीवन में संत का एक महत्वपूर्ण स्थान होता हैं। वे हमारे जीवन का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाते हैं। उनके उपदेश से हमें नई दिशा मिलती हैं, हमारी जिंदगी संवर जाती है।
एक समय था जब शास्त्रों में मुनि महाराजों के जिस स्वरुप का अध्ययन करते थे,उसका दर्शन असंभव सा हो गया था । इस असंभव को तीन महान आचार्यों ने संभव बनाया, वे हैं परम पूज्य आचार्य शांतिसागर जी (चारित्र चक्रवर्ती ), परम पूज्य आचार्य शांतिसागर जी छाणी है, परम पूज्य आचार्य आदिसागर जी अंकलीकर। जिनकी परम्परा से आज हम मुनिराजों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं और अपने जन्म को धन्य मानते हैं । इन महान आचार्यों ने भारत भर में मुनि धर्म व मुनि परंपरा को बढ़ाया है । सन 1933 में आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी और आचार्य श्री शांतिसागर जी दक्षिण दोनों आचार्यों का ब्यावर में एक साथ वर्षा योग हुआ जिससे एक नया इतिहास बना। दोनों संतों का वात्सल्य भाव आज सभी के लिए अनुकरणीय है। प्रशांतमूर्ति आचार्य शांति सागर जी छाणी (उत्तर) का जन्म ग्राम छाणी जिला उदयपुर (राजस्थान) में हुआ था । सम्पूर्ण भारत में परिभ्रमण कर भव्य जीवों को उपदेश देते हुए सम्पूर्ण भारतवर्ष में विशेषकर उत्तर भारत में इन्होने अपना भ्रमण क्षेत्र बनाया ।
आचार्यश्री पर घोर उपसर्ग भी हुए जिन्हें उन्होंने समता भाव से सहा। उन्होंने मूलाराधना , आगम दर्पण , शांति शतक , शांति सुधासागर आदि ग्रंथो का संकलन किया जिन्हें समाज ने प्रकाशित कराया।
धार्मिक, सामाजिक मूल्यों और परंपराओं की रक्षा, उनका व्यवस्थापन एवं सम्वर्द्धन में आचार्यश्री का अमूल्य योगदान रहा है। आचार्यश्री का जीवन पवित्रता से ओतप्रोत था। उनके विचार इतने पवित्र एवं स्पष्ट थे कि उनसे जन-जन प्रभावित था।
तन मन ताको दीजिए, जाके विषया नाहिं।
आपा सबहीं डारिकै, राखै साहेब माहिं।।
कवि कबीर कहते हैं कि अपना तन-मन उस गुरु को सौंपना चाहिए जिसमें विषय-वासनाओं के प्रति आकर्षण न हो और जो शिष्य के अहंकार को दूर करके ईश्वर की ओर लगा दे।
आचार्य शांतिसागर जी छाणी महाराज ऐसे मुनिराज थे जिन्होंने उत्तर भारत में नगरों से दूर-दूर तक पदयात्रा करके दिगंबर साधु के विहार का मार्ग प्रशस्त किया। आचार्य शांतिसागर जी छाणी ने यत्र-तत्र विहार कर समाज में कुरीतियों को बंद करवाने में योगदान दिया। शिक्षा का प्रचार और समाज सुधार में उनका अविस्मरणीय योगदान है। समाज में व्याप्त बुराइयों के उन्मूलन के लिए अपने प्रवचनों में ख़ूबचर्चा करते थे। उन्होंने बाल विवाह, मृत्यु के पश्चात महिलाओं द्वारा छाती कूटने की प्रथा, मृत्युभोज जैसे अनेक सामाजिक बुराईयों को जड़मूल से उखाड़ने में बहुत योगदान दिया। उनका जीवन अत्यधिक शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायक है।1982 में उनका ललितपुर में भी बहुत ही सफल चातुर्मास हुआ था।
उनकी आचार्य परंपरा के पट्टाचार्य में राष्ट्र संत सराकोद्धारक आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनिराज ने अभूतपूर्व प्रभावना की। निरंतर समाज और देश के लिए विविध आयोजनों के माध्यम से योगदान दिया। वर्तमान में छाणी परंपरा के पट्टाचार्य आचार्य श्री ज्ञेयसागर जी महाराज हैं।
छाणी महाराज के सदुपदेशों से सैकड़ों लोगों ने हिंसा और बलि करने का त्याग किया था तो वहीं हजारों लोगों ने शराब, मांसाहार तथा हुक्का, तम्बाखू का त्याग किया था।आपने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के दिव्य चारित्र में, उनको अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुंदरी को सर्वप्रथम विद्यावान बनाने की घटना से यह स्पष्ट समझ लिया था कि मानव समाज की दशा तब ही सम्हाल सकती है तब ही धर्म का समुचित पालन हो सकता है, जब स्त्रियों को सच्चे ज्ञान से विभूषित किया जाएगा। शायद इसी निश्चय के अनुसार आपके उपदेश से कई स्थानों पर श्राविकाश्रम और कन्या पाठशालाएं खुलीं। ललितपुर में भी उनकी प्रेरणा से कन्या पाठशाला खोली गई।
शांतिसागर जी महाराज छाणी श्रमण संस्कृति की परंपरा का समर्थ और सशक्त संबल प्रदान करने वाले ऐसे मुनिराज रहे जिन्होंने अपनी साधना, तपस्या एवं ज्ञान की त्रिवेणी में जन-सामान्य को अवगाहन कर जैनधर्म और दर्शन के नवचिंतन को नवाकृति प्रदान की थी, उन्होंने न केवल श्रमण परम्परा के पुनरुत्थान में उल्लेखनीय योगदान दिया, अपितु एक गौरवशाली शिष्य परंपरा की भी अविच्छिन्न श्रृंखला प्रदान की।
1888 को छाणी ग्राम राजस्थान में पिता श्री भागचंद जी, माता श्रीमती माणिक भाई की कोख से बालक केवलदास का जन्म हुआ। केवल दास ने केवलज्ञान की प्राप्ति का लक्ष्य बनाकर संसार, शरीर, भोगों से उदास होकर संसार के राग के बंधन को स्वीकार ना कर प्रभु चरणों की साक्षी मानकर पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ सात प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर जीवन को प्रकाशित किया। सम्मेद शिखरजी की पावन धारा पर सन 1922 को क्षुल्लक दीक्षा लेकर क्षुल्लक श्री शांतिसागर के रूप में विख्यात हुए। सन् 1923 में दिगंबरी दीक्षा लेकर भगवान महावीर के पद चिन्हों का अनुकरण किया। सन 1926 में आचार्य पद पर सुशोभित हुए। जैना-जैन सभी को आपने अपने उपदेशों से सुसंस्कारित किया। कई सामाजिक बुराईयों को दूर किया जो अनुचित थी। उनकी साधना का परिणाम तब देखने को मिला जब विरोधी लोग असफल हुए उनके ऊपर बस चलाने में।
सराकोद्धारक,षष्टमपट्टाचार्य आचार्य श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज की पावन प्रेरणा एवं मंगल आशीर्वाद से आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी महाराज के समाधि हीरक महोत्सव वर्ष को पूरे देश में विविध आयोजनों के साथ मनाया गया था जिसमें मुझे भी अपनी सेवाएं देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।
संयोगवश 2024-25 वर्ष चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर के आचार्य पद प्रतिष्ठापन महोत्सव वर्ष के रूप में मनाने का अवसर हम सभी को मिला और अब वर्ष 2026-27 में आचार्य श्री शांतिसागर छाणी महाराज का भी आचार्य पद प्रतिष्ठापन शताब्दी वर्ष के रूप में जैन समाज को मनाने का सौभाग्य मिलने जा रहा है। परम पूज्य पट्टाचार्य ज्ञेयसागर जी महाराज के आशीर्वाद व गणिनी आर्यिका स्वस्ति भूषण माता जी की प्रेरणा से अनेक आयोजन होंगे।
आज छाणी जी महाराज की परंपरा में अनेक साधक अपनी साधना में रत रहे हैं, महान उपकार है आचार्यों का हम सभी के ऊपर। ऐसे परम तपस्वी साधकों का स्मरण हम सभी के कल्याण में सहायक बने यही भावना है।
तकदीर हजारों की जगाई आपने ।
जिंदगी लाखों की बनाई आपने।।
डूब रहे थे जो भव सागर में।
कश्ती लाखों की पार लगाई आपने ।।