मोह का मायाजाल : आत्मशुद्धि की यात्रा में सबसे बड़ा बंधन

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– डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
9793821108

मनुष्य जीवन एक अवसर है – आत्मा के उत्थान और मोक्ष की ओर अग्रसर होने का। परंतु इस यात्रा में अनेक बंधन हैं जो आत्मा को बाँधते हैं, भ्रमित करते हैं और उसे संसार के चक्रव्यूह में उलझाए रखते हैं। इन बंधनों में सबसे गहन, सबसे सूक्ष्म और सबसे प्रबल बंधन है — “मोह”।
जैन दर्शन में आत्मा को स्वतंत्र, शक्तिशाली और अनंतगुण संपन्न माना गया है। किंतु जब आत्मा अज्ञान, आसक्ति और मोह में उलझ जाती है, तब वह अपने स्वरूप को भूल जाती है और संसार में भटकती है। मोह आत्मा की इस भटकन का मूल कारण है। मोह वह आंतरिक विकार है जो आत्मा को असली शुद्ध स्वरूप से विचलित कर, उसे बाहरी आसक्ति और भ्रम में फँसा देता है;  साधना के मूल लक्ष्य में से एक मोह को पार करके आत्मा को सर्वथा मुक्त करना है।
मोह की परिभाषा: संस्कृत में ‘मोह’ का अर्थ है – अज्ञानवश उत्पन्न आकर्षण, संबंधों या वस्तुओं में आसक्ति, या सत्य का अविद्या रूप से आच्छादन।
मोहो नाम ज्ञानावरणं, यत् आत्मनो विषयासक्तत्वं जनयति।” मोह वह है जो आत्मा के ज्ञान को ढाँक देता है और विषयों में आसक्ति उत्पन्न करता
मोह के प्रकार: द्रव्य मोह  (वस्तुओं का मोह): धन, संपत्ति, शरीर, वस्त्र, वाहन आदि में आसक्ति।
भाव मोह (संबंधों का मोह): परिवार, संबंध, प्रेम, द्वेष, ममता आदि में बंध जाना।
ज्ञान मोह (मिथ्यात्व): सत्य को न पहचानना, सही मार्ग से हट जाना।
मोह के प्रभाव: आत्मा का ज्ञान ढक जाता है। विवेक नष्ट हो जाता है और व्यक्ति निर्णय लेने में असमर्थ होता है। बंधन की श्रृंखला सुदृढ़ होती जाती है, जिससे जन्म-मरण का चक्र अनवरत चलता रहता है। कषायें (क्रोध, मान, माया, लोभ) मोह से ही उत्पन्न होती हैं।
जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है –”मोह एव संसारस्य मूलम् अस्ति” – मोह ही संसार का मूल है।
मोह से मुक्ति : एक आध्यात्मिक साधना :
वैराग्य का अभ्यास करें – “जो मेरा नहीं है, उसमें मेरा क्या?” इस भाव से जीवन जिएँ।
स्वाध्याय और ध्यान के माध्यम से आत्मा का बोध करें।
संबंधों में प्रेम रखें, परंतु आसक्ति न रखें।
जैसा कि एक संत ने कहा —”कर्म करते जाओ, पर बंधन में मत आओ।”
जिनवाणी का आश्रय लें, जिससे मिथ्यात्व नष्ट हो और सम्यकदर्शन की ओर कदम बढ़ें।
🧘 मोह से मुक्ति की साधना:
वैराग्य का अभ्यास: “संसार में रहकर भी संसार में न रमो – यही साधक की कसौटी है।”
आत्मा का चिंतन: आत्मा को द्रव्य, गुण, और पर्याय रूप में जानें। “मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं” – इस भाव का चिंतन करें।
शुद्ध भक्ति और स्वाध्याय: जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करें, जिनवाणी पढ़ें। उत्तम चारित्र और सम्यक्त्व की ओर बढ़ें।
प्रार्थना: “अरहंता दीवा माणंति, मोहंधारे अंधारि।
तेणं समणे भणिए, पवियं धम्मं देसइ।”
अर्थ: अरिहंत भगवान अंधकार को दूर कर देने वाले दीपक हैं। वे मोह को हरते हैं और पवित्र धर्म का उपदेश देते हैं।
तस्स तव मोहमूलं दुक्खं, मोहमूला हवन्ति संसारा।
मोहमूलं तव बंधं, तस्स विओगं सुखं वुत्तं।”
अर्थ: मोह ही दुःख, संसार और बंध का मूल है। मोह का विनाश ही परम सुख की प्राप्ति है।
मोहेण खलु जीवो, सम्यक्बुद्धिं न लभते;
मोहमूलास्तु कषायाः, क्रोधमानमायालोभाः।।
अर्थ: मोह के कारण जीव सम्यक बुद्धि प्राप्त नहीं कर पाता। क्रोध, मान, माया और लोभ – ये सभी मोह से उत्पन्न होते हैं।
मोहं विणा ना होदि, बंधो अप्पाणओ त्ति पज्जायं;
मोहं विणा सुद्धो, मोहो हवदि असुद्धो त्ति।”
मोह के बिना आत्मा का बंधन नहीं होता। मोह से आत्मा अशुद्ध बनती है और मोह के बिना ही आत्मा शुद्ध स्वरूप प्राप्त करती है।
निष्कर्ष :  जैन दर्शन में मोह को कर्मों का राजा माना गया है। जब तक मोह है, तब तक आत्मा को सत्य का बोध नहीं होता। मोह के क्षय के बिना न सम्यक्त्व संभव है, न मोक्ष की यात्रा। अतः आत्मा की स्वाधीनता और शुद्धता के लिए मोह का त्याग ही पहला और आवश्यक चरण है।
मोह की पहचान और उससे मुक्ति का प्रयास ही आत्मिक प्रगति की नींव है। जो मोह से मुक्त है, वही वास्तव में मुक्त पुरुष है। मोह का त्याग ही निर्मल चारित्र की ओर पहला कदम है। मोह एक ऐसा अदृश्य बंधन है जो व्यक्ति को स्वतन्त्रता की अनुभूति होते हुए भी पराधीन बनाए रखता है। मोह की पहचान कर उसे समझना, आत्मिक विकास का प्रथम चरण है। मोह से रहित जीवन ही सच्चे अर्थों में मुक्त जीवन है — जहाँ आत्मा स्वयं को पहचानती है और सत्य की ओर अग्रसर होती है।”जहाँ मोह समाप्त होता है, वहीं से मोक्ष की यात्रा प्रारंभ होती है।”
मोह ने बांध रखी, आत्मा की डोर,
विवेक हुआ बंधक, न मिल सका ठौर।
छूटे जब राग-द्वेष के सारे बंधन,
तभी तो खुलेगा मोक्ष का भोर।।

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