मंदिरों का अतिशय क्यों खतम हो रहा है? – विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविंद प्रेमचंद जैन भोपाल

0
92

किसी भी साध्य प्राप्ति में माध्यम भी पवित्र होना चाहिये । पहले जैन मंदिरों के निर्माण में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि मंदिर निर्माण करने वाले मांसभोजी नहीं हों। और तो और, इतिहास में कई इस तरह की घटनाएं हैं जिनमें जिक्र है कि कैसे मंदिर और मूर्ति निर्माण कर्ताओं को उनके निर्माण कार्य में संयम का पालन करना पड़ता था।
आजकल तो मंदिर कमेटियों ने अपने विवेक को खूंटी पर टांग रखा है। मंदिर की वेदियों का मार्बल का काम मुसलिम /मांसाहारी कारीगरों से कराया जा रहा है। जबकि एक तो मांस भक्षण उनका प्रमुख खाद्य पदार्थ है और दूसरा वे लोग मूर्ति पूजन को शैतान और काफिरों का काम मानते हैं। हराम मानते हैं। यहां यह ज्ञातव्य हो कि इस्लाम में बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) अक्षम्य है। अत: इस्लाम माननेवाले कारीगरों के मन में भी मंदिर-मूर्ति में किसी तरह की श्रद्धा का भाव तक नहीं होता है।. पर कई जैन मंदिरों की कमेटियों के मुखिया अपने पद के गरूर में इतने चूर रहते हैं कि मंदिर में वेदी आदि बनवाते समय समाज के
अन्य लोगों की सलाह को दरकिनार कर मांसाहारी कारीगरों से काम कराने में कोई बुराई नही समझते हैं।
मार्बल की खरीद भी उन लोगों से खरीदते हैं, जबकि मार्बल के जैन व्यवसायी उपलब्ध होते हैं। इस तरह की स्वत: आमंत्रित की गयी अशातना एक प्रमुख कारण है कि आजकल बन रहे मंदिरों और नवीन बेदियों में न तो वह श्रद्धा भाव बन पाता है और न ही उन धर्मायतनों में अतिशय रह पाता है। समाज में भी यह सब अशांति की ही भावना को जन्म देता है।  कई बार तो मुखिया लोगों के परिवार में भी इसके कुनिमित्त फलित होते देखे गये हैं।
समय समय पर कई स्थानों पर मंदिर कमेटी के मुखियाओं के आचरण पर भी  उंगलियां उठती रहती हैं कि न उनका नशे-पत्ते का त्याग होता है और न रात्रि भोजन का। कई तो नित्य मंदिर भी नहीं जाते हैं। मंदिर के निमित्त आयी राशि को भी लोग व्यक्तिगत कार्यों में लगा देते हैं।आदि ..
अगर कहीं आपके पास कोई धर्मायतनों का निर्माण हो रहा हो तो उपरोक्त संबंध में अपनी बात अवश्य उठायें कि मांसाहार करने वाले कारीगरों से काम नहीं ही कराया जाये।
अधिकांशतया मंदिर निर्माण के समय ही  बहुत पदाधिकारियों केभवन निर्माण  भी/ ही होते हैं। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं  है? इसके अलावा आजकल नवधनाढ्य जिनकी आजीविका का स्त्रोत शराब
,मांस बिक्री के साथ न्यायोपार्जित धन का न होना जिसके बारे में जन सामान्य को जानकारी भी होती हैं उनके द्वारा बढ़ चढ़कर उच्चतम  बोलियां लेकर समाज के मुखिया बनकर दानवीर बन जाते हैं और उनकी अनुमोदना भी मुनियों के द्वारा की जाती हैं ,उनका तर्क हैं की उनका धन का दुरूपयोग होने की अपेक्षा मंदिर निर्माण के साथ दान में लगरहा हैं यह अच्छी बात हैं .उनके तर्क से असहमति नहीं हैं पर दानदाताओं के धन का मंदिर की शुचिता में प्रभाव अवश्य पड़ता होगा .  जानबूझकर और अज्ञानता में अंतर जरूर हैं .
इसका ज्वलंत उदाहरण कुण्डलपुर के बड़े बाबा की विशालकाय मूर्ति के स्थान्तरण में बाधा आ रही थी .उस समय आचार्य श्री ने क्रेन चालक जो पंजाबी था उससे इशारे से पूछा कि तुम शराब मांस पीते खाते  हो तो उसने इशारे से कहा हाँ .उसी समय आचार्य श्री ने उससे त्याग करने को कहा और उसने स्वीकार किया और बड़े बाबा की मूर्ति यथास्थान पहुँच गयी .
जैन दर्शन के अनुसार धन आदि पाप पुण्य से मिलता हैं और उससे कोई इंकार नहीं कर सकता हैं पर स्त्रोत का प्रभाव अवश्य पड़ता हैं .जिस कारण वर्तमान में जो मंदिरों के निर्माण में अन्याय का धन लगता हैं वहां के मंदिरों में उतने प्रतिशत अतिशय की कमी होना देखा जाता हैं ,वैसे व्यापार आदि में धन बिना पाप कषाय के बिना आना असंभव हैं .
इसका यह आशय नहीं हैं की निर्माण कार्य बंद हो या उनकी सहभागिता न हो .यह संवेदनशील मुद्दा हैं चिंतनीय और विचारणीय हैं .हर सिक्के को दो पहलु होते हैं .मेरा अपना विचार हैं ,प्रत्यक्ष्य और अप्रत्यक्ष्य में क्षमा प्रार्थी  रहूँगा .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन  संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104  पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026  मोबाइल  ०९४२५००६७५३

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here