मुरैना (मनोज जैन नायक) दसलक्षण पर्व में धर्म के दस लक्षणों का स्वाध्याय, पूजा, अर्चना और भक्ति की जाती है । पर्यूषण पर्व के आठवें दिन उत्तम त्याग धर्म पर व्याख्यान हुआ । बड़े जैन मंदिर में विराजमान जैन संत मुनिश्री विलोकसागरजी एवं मुनिश्री विबोधसागरजी महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि जैन दर्शन में त्याग का एक महत्वपूर्ण स्थान हैं। त्याग से जीवन में सुख शांति और संतोष की प्राप्ति होती है । त्याग दे आत्मसंतोष मिलता है और त्याग ही संयम की साधना में सहायक होता है । जैन दर्शन में त्याग को सर्वोपरि माना गया है । जब मन में वैराग्य की भावना उत्पन्न होती है तो सब कुछ छोड़ना होता है । सब कुछ त्यागने पर ही मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। यहां तक कि शरीर के मोह को भी त्यागना होता है ।
आत्मा को शुद्ध करने के लिए क्रोध, मान (अहंकार), माया (छल) और लोभ (लालच) जैसे आंतरिक भावों को त्यागना ही उत्तम त्याग है । हमें लालच, घमंड, घृणा, नफरत, ईर्ष्या और आलस जैसी नकारात्मक भावनाओं और आदतों का त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये मानसिक अशांति और दुख का कारण बनती हैं। इसके अलावा, उन लोगों और रिश्तों से भी दूरी बनानी चाहिए जो प्रेम और स्नेह नहीं रखते। लालच, घमंड, घृणा, नफरत और ईर्ष्या जैसी भावनाएँ मन को दुखी करती हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए । अहंकार और ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ की भावनाएं स्वार्थपूर्ण होती हैं, जिनका त्याग करने से मनुष्य उच्च लोकों को प्राप्त करता है । संसार में सुख देने वाले पदार्थों से आसक्ति दुख देती है, अतः हमें इंद्रिय विषयों से विमुख होना चाहिए।
उत्तम त्याग और उत्तम दान
आमतौर पर दान करने को ही त्याग कहा व समझा जाता है। लेकिन त्याग और दान में बहुत अन्तर है, दान किया जाता है किसी उद्देश्य के लिए, परोपकार के लिए । जबकि त्याग किया जाता है संयम के लिए। दान करने से पुण्य बन्ध होता है, त्याग करना धर्म है। धन का लोभ नहीं छूटता, वह एक लाख दान में देता है तो दो लाख कमाने को आतुर रहता है लेकिन त्यागी जो त्याग देता है फिर उसके चक्कर में नहीं रहता। त्याग होता है कषायों का, मोह-राग-द्वेष का, अहंकार का। त्याग करने से आत्मा को बल मिलता है। मोक्ष मार्ग की वृद्धि होती है।
दान भी त्याग की श्रेणी में आता है
शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए आसक्तियों का त्याग और संयमित जीवन यापन आवश्यक है । अपने धन के प्रति अधिक अशक्ती न रखते हुए देव शास्त्र गुरू की सेवा में धन का दान करना चाहिए । परोपकारी कार्यों में, मंदिरों के निर्माण में, शास्त्र एवं जिनवाणी के प्रकाशन में, साधुओं के आहार विहार में एवं आ अच्छे और नेक कार्यों के लिए हमें अपनी चंचला लक्ष्मी का दान यानि कि त्याग करना चाहिए । दान हमेशा सरलता और भाव पूर्वक देना चाहिए । दान देते समय मन में संकलेश या अहंकार नहीं होना चाहिए । अहंकार अथवा संकलेश के साथ दिया गया दान सार्थक परिणाम नहीं देता है । दान हमेशा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार ही देना चाहिए । उधार लेकर या किसी से मांगकर दान नहीं देना चाहिए ।
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