मैं और मेरा ये दो भाव ही आपकी उन्नति में बाधक हैं। भावलिंगी संत आचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज

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उत्तम आकिंचन्य धर्म – सांसारिक वस्तुओं के साथ ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ का संबंध भी विसर्जित कर देना, और निज शुद्धात्मा ही एकमात्र मेरा है, ऐसी गहन आत्मानुभूति का नाम ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ का भाव संसार भ्रमण का कारण है। उत्तम आकिंचन्य धर्म – त्याग करना सरल है लेकिन आकिंचन्य भाव को प्राप्त कर पाना सरल नहीं है। जब तक आकिंचन्य धर्म नहीं आता तब तक ब्रह्म अर्थात् आत्मा में चर्य अर्थात् रमण नहीं होता। आकिंचन्य धर्म ब्रह्मचर्य तक पहुँचने की पूर्व भूमिका है। संसारी प्राणी दो में ही उलझा है ‘मैं’ और ‘मेरा’ ये दो ही परिणाम संसार के कारण है। एक अभिमान पैदा करता है और एक मोह पैदा करता है। ‘मैं’ का भाव अभिमान पैदा करता है। मैंलखपति, मैं करोड़पति, मैं खरबपति, ये जितने भी उपमान हैं वो सब कागज के टुकड़ों से मिले हैं। तू तो जैसा था वैसा ही है। अज्ञानी परपदार्थ से अपनी पहिचान बनाना चाहता है। “मैं इनका हूँ” ये मात्र व्यवहार के शब्द हैं, लेकिन इन शब्दों को सुनकर आत्मा में ये भाव आ जाये कि “मैं इनका हूँ” तो आकिंचन्य धर्म खो जाता है। इस संसार में अणु मात्र भी तेरा नहीं है, एक अणु भी तेरे साथ नहीं जाने वाला, अज्ञानता के कारण “मैं और मेरे” की कल्पना कर करके दुखी क्यों होता है। अज्ञानी जीव अहंकार की भाषा बोलता है, वो कहता है कि तुम अभी जानते नहीं कि मैं कौन हूँ? अरे भैया! तू खुद नहीं जानता कि तू कौन है तू शुद्ध भगवान आत्मा के अलावा कुछ भी नहीं है। यही आकिंचन्य स्वभाव मात्र तेरा है, जिससे तू अनजाना है। अपने इस आकिंचन्य स्वभाव को पहिचानो, न मैं किसी का हूँ और न कोई मेरा है।

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