वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तीर्थंकर महावीर की अहिंसक क्रांति की जरुरत
-डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
जैन परम्परा के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर हैं भगवान महावीर स्वामी, उनका जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी (सोमवार ईस्वी पूर्व 598) के दिन कुण्डग्राम में हुआ। कुण्डग्राम प्राचीन भारत के व्रात्य क्षत्रियों के प्रसिद्ध वज्जि संघ के वैशाली गणतन्त्र के अन्तर्गत हुआ था। वर्तमान में उस स्थान की पहचान बिहार के वैशाली (कुण्डलपुर) से की गई है। वहाँ भगवान् महावीर का स्मारक भी बना हुआ है।
उनके पिता सिद्धार्थ वहाँ के प्रधान थे। वे ज्ञातृवंशी काश्यप् गोत्रीय क्षत्रिय थे तथा माता त्रिशला उक्त संघ के अध्यक्ष लिच्छवि नरेश चेटक की पुत्री थीं। उन्हें प्रियकारिणी देवी के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था। नाथवंशी होने के कारण महावीर को बौद्ध ग्रंथों में नात पुत्र (नाथ पुत्र) भी कहा गया है। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था, किन्तु समय-समय पर घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं के कारण वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर आदि नाम भी उनके साथ जुड़ गए।
भगवान महावीर के समय देश की स्थिति अत्यन्त अराजक थी। चारों ओर हिंसा का बोलबाला था। धर्म के नाम पर प्रतिदिन निरपराध पशुओं की बलि दी जाती थी। समाज का अभिजात वर्ग अपनी तथाकथित उच्चता के अभिमान में निम्नवर्ग का हर प्रकार से शोषण कर रहा था। वे मनुष्य होकर भी मानवोचित अधिकारों से वंचित थे। कुमार वर्धमान का मन इस हिंसा और विषमता से होने वाली मानवता के उत्पीड़न से बेचैन था। इस विषम परिस्थिति में उन्हें आत्मानुसंधान की ओर प्रवृत्त किया। अतः उन्होंने तीस वर्ष की भरी जवानी में विवाह के प्रस्ताव को ठुकराकर मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी ( ई.पू. 569) के दिन समस्त राज-पाट का त्याग कर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। वे बारह वर्ष तक कठिन मौन साधना में रत रहे। परिणामस्वरूप वैशाख शुक्ल दशमी ई. पूर्व 557) के दिन बिहार के जृम्भक गांव के ऋजुकूला नदी के किनारे उन्हें केवल ज्ञान की उपलब्धि हुई। वे पूर्ण वीतरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा बन गए। वहाँ से चलकर वे राजगृह के बाहर स्थित विपुलांचल पर्वत पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया।
उनकी शिक्षाएं, सिद्धांत आज अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
शुद्ध भावों का अनुभव अहिंसा : महावीर स्वामी की मूल शिक्षा अहिंसा है। आचार्य अमृतचंद्र जी ने हिंसा-अहिंसा के विवेक को सूत्ररूप में पहले रखा है, फिर उसकी व्याख्या की है। वे कहते हैं कि रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है और शुद्ध भावों का अनुभव अहिंसा है-
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।तेषामेवोत्पत्तिर्
जैनसिद्धांत में ‘प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा’ अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों का नष्ट करना हिंसा कहा गया है। प्राणों के नष्ट करने के पूर्व प्रमत्तयोग विशेषण दिया गया है। इस प्रमादयोगरूप पद से सिद्ध होता है कि जहां पर प्रमादयोग नहीं है किंतु जीव के प्राणों का घात है वहां पर हिंसा नहीं कहलाती और जहां पर प्राणों का घात नहीं भी है, किंतु, प्रमादयोग है, वहां पर हिंसा कहलाती है।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है हत्या न करना या दंड ना देना ऐसा बिल्कुल नहीं होता । इसका व्यापक अर्थ है – किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हत्या न करना, यह अहिंसा है।
जियो और जीने दो : आज विश्व हिंसा की ज्वाला में झुलस रहा है। ताजा उदाहरण यूक्रेन और रूस के मध्य चल रहा युद्ध है, दोनों देश लड़ रहे हैं जिसमें अपार जन- धन की हानि भी हो रही है। भगवान महावीर का प्रमुख सूत्र था -जियो और जीने दो। किसी भी रूप में हिंसा अशांति ही फैलाएगी। शांति के लिए अहिंसक जीवन शैली अत्यंत आवश्यक है। हिंसा की ज्वाला से जूझ रहे विश्व को भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के शीतल जल से ही उसे राहत मिल सकती है।
महावीर के प्रत्येक उपदेश में अहिंसा निहित :
भगवान महावीर स्वामी ने अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन किया है। वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। महात्मा गांधी ने अहिंसा के बल पर ही अपने देश को स्वतंत्रता दिलायी। अहिंसा केवल निषेधात्मक ही नहीं होती, अपितु विधेयात्मक भी होती है। तीर्थंकर महावीर के प्रत्येक उपदेश में अहिंसा निहित है। उन्होंने अहिंसक क्रांति के बल पर विश्वबंधुत्व और विश्वशांति का मार्ग प्रशस्त किया। बाह्य हिंसा की अपेक्षा यदि मानसिक हिंसा दूर हो जाय तो अहिंसक क्रांति का मार्ग आसानी से प्रशस्त हो सकता है। सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना ही आधुनिक युग की सच्ची अहिंसा है। अहिंसा सभी धर्मों का मूलाधार है। कोई भी धर्म हिंसा की आज्ञा नहीं देता। अहिंसा की रक्षा के लिए हमारी प्रत्येक क्रिया निर्मल होनी चाहिए।
महावीर की अहिंसा शूरवीरों की : भगवान महावीर की अहिंसा शूरवीरों की अहिंसा है, कायरों की नहीं। पलायनवादी और भीरु व्यक्ति कभी अहिंसक नहीं हो सकता। अहिंसा की आराधना के लिए आवश्यक है -अभय का अभ्यास। सिंह जंगल का राजा होता है, वन्य प्राणियों पर प्रशासन व नियंत्रण करता है। इसी तरह महावीर की अहिंसा है अपनी इंद्रियों और मन पर नियंत्रण करना। भगवान महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार किया, वह निर्बलता और कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट् निर्माण और संगठन करके उसे सब प्रकार से सशक्त और विकसित बनाने वाली थी। उसका उद्देश्य मनुष्य मात्र के बीच शांति और प्रेम व्यवहार स्थापित करना था, जिसके बिना समाज कल्याण और प्रगति की कोई आशा नहीं रखी जा सकती।
प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना :
महावीर के अनुसार परम अहिंसक वह होता है , जो संसार के सब जीवों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है , जो सब जीवों को अपने समान समझता है। ऐसा आचरण करने वाला ही महावीर की परिभाषा में अहिंसक है। उनकी अहिंसा की परिभाषा में सिर्फ जीव हत्या ही हिंसा नहीं है , किसी के प्रति बुरा सोचना भी हिंसा है।
अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दु:ख न दें। ‘आत्मान: प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्’ इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जन्तुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें।
अहिंसा के महान साधक एवं प्रयोक्ता महावीर :
सचमुच महावीर अहिंसा के महान साधक एवं प्रयोक्ता थे। भगवान महावीर अहिंसा की अत्यंत सूक्ष्मता में गए हैं। आज तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति सजीव है , पर महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि वनस्पति भी सचेतन है , वह भी मनुष्य की भांति सुख – दुख का अनुभव करती है। उसे भी पीड़ा होती है। महावीर ने कहा , पूर्ण अहिंसा व्रतधारी व्यक्ति अकारण सजीव वनस्पति का भी स्पर्श नहीं करता।
अहिंसा के महानायक महावीर स्वामी ने जल, वृक्ष अग्नि, वायु और मिट्टी तक में जीवत्व स्वीकार किया है। उन्होंने अहिंसा की विशुद्ध व्याख्या करते हुए जल और वनस्पति के संरक्षण का भी उदघोष किया। उनके सिद्धान्तों पर चलकर हमें वृक्ष बचाओ संसार बचाओ उक्ति को अमल में लाना होगा। प्रकृति और पर्यावरण के विरुद्ध चलने से भूकंप, सुनामी, बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोपों का हमें सामना करना पड़ रहा है। परमाणु खतरों और आतंकवाद से जूझ रही दुनिया को भगवान महावीर के अहिंसा और शांति के दर्शन से ही बचाया जा सकता है।
अहिंसा के रक्षासूत्र हैं व्रत : तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूल शिक्षा अहिंसा है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ में अहिंसा को बहुत अधिक व्यापक बनाया गया है। उन्होंने कहा है कि प्रमादयोग से ही व्यक्ति अनेक प्रकार से झूठ बोलता है, कषाययुक्त भावों से ही व्यक्ति दूसरे के धन को हड़पने की चेष्टाएं करता है, रागयुक्त भावनाओं से मैथुन आदि में लिप्त होता है, मूर्च्छाभाव से परिग्रह एकत्र किया जाता है, ये सभी प्रमाद और कषाय भाव हिंसा के ही कारण हैं। अतः झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहवृत्ति आदि में हिंसा सम्मिलित है। इस प्रकार की हिंसा से बचने के लिए ही अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का पालन किया जाता है। अतः ये व्रत अहिंसा के रक्षासूत्र हैं। इन्हीं रक्षासूत्रों में रात्रि भोजनत्याग व्रत भी है। सात शीलव्रत-तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी अहिंसा की साधना में सहायक हैं। अनर्थदंडव्रत का विधान जैन दर्शन का विशेष अवदान कहा जा सकता है। समाज में अधिकांश कार्य निष्प्रयोजन होते हैं, जिनको करने से आत्मा के विकास, या शुद्ध भावों की वृद्धि में कोई सहयोग नहीं मिलता, अपितु राग-द्वेष की प्रवृत्ति बढ़ती है, जो हिंसा को बढ़ाने वाली है। महावीर की अहिंसा जीवों को न मारने तक सीमित नहीं थी। उसकी सीमा सत्य-शोध के महाद्वार का स्पर्श कर रही थी। इसीलिए महावीर स्वामी की मूल शिक्षा अहिंसा है।
आज कठिनाई यह हो रही है कि महावीर का भक्त उनकी पूजा करना चाहता है, पर उनके विचारों का अनुगमन करना नहीं चाहता। उन विचारों के अनुसार तपना और खपना नहीं चाहता। महावीर के विचारों का यदि अनुगमन किया जाता तो समाज, देश और विश्व की स्थिति ऐसी नहीं होती।
अहिंसा से मानसिक आतंकवाद का खात्मा :
भगवान महावीर के समय सबसे बड़ी बुराई वैचारिक मतभेद की पनपी थी और आज भी दुनिया इसी कारण से संघर्ष कर रही है। इसके लिए महावीर ने स्याद्वाद और अनेकान्त का अमोघ सूत्र दिया, जिससे यह बुराई समाप्त हो सकती है। मानसिक आतंकवाद आज की बड़ी समस्या है, इसका समाधान भगवान महावीर की अहिंसा में निहित है। अहिंसा केवल उपदेशात्मक और शब्दात्मक नहीं है। उन्होंने उस अहिंसा को जीया और फिर अनुभव की वाणी में दुनिया को उपदेश दिया।
कोई पांच बातों का करें संकल्प : भगवान महावीर के उपदेशों को आज नए संदर्भों में देखने की आवश्यता है। हम जहां-तहां खनिजों की खोज में पृथ्वी को खोद रहे हैं, जल और वायु को प्रदूषित कर रहे हैं, पर्यावरणविद् स्थावरों की इस हिंसा से चितिंत हैं। विकास के नाम पर विलासता बढ़ रही है और साथ ही अमीर और गरीब के बीच की खाई भी बढ़ रही है। और क्या कहें, हम तो अहंकार पर छोटी-सी चोट पडऩे पर संसार को सिर पर उठा लेते हैं। पचासों बाते हैं, महावीर जन्म कल्याणक पर उनमें से कोई पांच बातें ही तो ग्रहण करें। ऐसा करके हम अपना आत्मकल्याण कर सकेंगे।
भगवान महावीर के विचार रोशनी देते हैं :
आज देश , विश्व बड़े बुरे दौर से गुजर रहा है, हम बड़े-बड़े बमों, आणविक शक्ति से देश में शांति की स्थापना का सपना पाल बैठे हैं। मैं दृढ़ निश्चय से कह सकता हूं विश्व को आतंकवाद जैसी भयंकर बुराई पर काबू पाने के लिए तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं अनेकांत-स्याद्वाद के सिद्धांत को अपनाये तो सार्थक हल निकल सकता है। आज समाज आधुनिक तो हुआ है, पर इस सफर में मानवता झुलसी है. नहीं तो क्या वजह है कि परिवार हो या समाज या फिर राष्ट्र, हर जगह राग-द्वेष व हिंसा के भाव ने विभिन्न रूपों में विस्तार लिया है. न वाणी पर संयम और न स्वयं पर नियंत्रण. ऊहापोह भरे इस वक्त में भगवान महावीर के विचार रोशनी देते हैं। भगवान महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है, वह क्रांति का भी दर्शन है। उन्होंने अपने समग्र परिवेश को सक्रिय किया। उन्होंने जन-जन को तीर्थंकर बनने का रहस्य समझाया।
अहिंसा के मसीहा तीर्थंकर महावीर स्वामी ने उन सूत्रों को ओढ़ा नहीं था, साधना की गहराइयों में उतरकर आत्मचेतना के तल पर पाया था। आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं बल्कि उनके द्वारा जीये गए आदर्श जीवन के अवतरण/पुनर्जन्म की अपेक्षा है। जरूरत है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें तभी महावीर जन्म कल्याणक मनाना सार्थक होगा।