पैदा होते ही बच्चों पर शुरू हो पढ़ाई का बोझ- नीलम
यमुनानगर, 17 मई (डा. आर. के. जैन):
बच्चों के ऊपर पढ़ाई का बोझ जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है, स्कूल जाने की तो बात बहुत ही दूर है पहला खिलौना आते ही मां-बाप उसको ऐसे बताते हैं जैसे कि उसने आज ही खिलौने का आविष्कार कर देना हो। खिलौने का नाम उसका काम क्या है उस खिलौने का रंग क्या है। वह क्या खाता है क्या पीता है कैसी आवाज करता है यह सब कुछ बच्चे को 1 दिन में पता लग जाना चाहिए और तो और एक साल के बच्चे को माता-पिता घूमाने के लिए ले गए जू में ले जाए तो जू के जितने जानवर है उसको उन सबके नाम उन सब की आवाज उन सब का रंग बच्चों को बताते जाते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती घर में आकर पूरा इम्तिहान देना होता है बच्चे को। जू में गए थे क्या देखा शेर कैसे गरजता है, हाथी कैसे चलता है, ऑस्ट्रिच कितना बड़ा है मोर कैसे नाचता है। सब कुछ बच्चे को एक ही दिन में सिखा देना चाहते हैं। समाजसेवी नीलम शर्मा ने बताया कि बच्चों को छोटी सी उम्र में बड़े इम्तिहान देने पड़ते है, घर में कोई नया खिलौना आए उसका सारी जानकारी बच्चा एक ही दिन में सीख जाएगा इस तरह बताया जाता है और तो और ई-बुक्स आने लग पड़ी है उसमें बटन दबाते ही जानवर का नाम जानवर का रंग जानवर का खाना पीना और जानवर कैसी आवाज करता है यह सब बच्चे को 1 या 2 साल की उम्र में ही पढ़ाई शुरू हो जाती है। अब प्ले स्कूल आ गया अब बच्चा जैसे ही प्ले स्कूल से घर में आता है आते ही सवालों की बौछार शुरू हो जाती है। मैडम ने आज क्या सिखाया, घर में जैसी कोई आ जाता है बच्चे का इम्तिहान शुरू हो जाता है आंटी को पोयम सुनाओ। स्कूल में आज कौन सा नया फ्रेन्ड्स आया हैं उनके नाम बताओ। उन्होंने बताया कि आज के समय में बच्चा इतना भारी बोझ अपने दिमाग पर लेकर चल रहा है जबकि इस समय उसकी मिट्टी में खेलने की उम्र होती है। आगे आगे चलकर हर मां बाप में यह कांप्टीशन शुरु हो जाता है कि मैं अपने बच्चों को शहर के कौन से बढिय़ा स्कूल में एडमिशन करवाना है उसके लिए लगातार तैयारी चल रही है। जैसे किस पब्लिक सर्विस कमीशन का पेपर देना हो। चलो अच्छे स्कूल में एडमिशन भी हो गया, कुछ तो हासिल हुआ और अब बच्चों के वजन से भारी उसका बैग है। उसके पास स्कूल के काम का स्कूल की पढ़ाई का इतना बोझ हो जाता है की खेलने कूदने के लिए समय ही नहीं और क्लास में कितने नंबर आए हैं उसके नंबर तुमसे कैसे ज्यादा। हर मां-बाप यही चाहता है कि उसका बच्चा टॉप होना चाहिए, और बच्चों के मन में हमेशा यही बोझ रहता है अगर मेरे एक नंबर कम आए तो मम्मी पापा इतनी बातें सुनाने लगेंगे कि हमने तुम्हें इतने बढय़िा स्कूल में डाला है इतनी ज्यादा फीस देते हैं सारी सुविधाएं दे रखी हैं फिर भी तुमने हमारी नाक कटवा दी। उन्होंने आगे बताया कि आजकल एक तो मां-बाप की नाक बड़ी जल्दी कट जाती है पर मां-बाप को यह नहीं पता कि बच्चा कितने बोझ में जी रहा है पहले लोअर केजी क्लास से ही चलो जी उसके मन में पढ़ाई का बोझ शुरू हो जाता है कभी मां-बाप ने गौर से देखा हो बच्चे के चेहरे को कि वह कितने तनाव में रहता है। उसका दिमाग कभी भी फ्री नहीं होता मैंने तो ऐसे बच्चों को भी देखा है जो सोते वक्त भी चैन से सो नहीं सकते हमेशा छोटी सी उम्र में स्कूल की मैडम की पढ़ाई की बातें सोते सोते करते रहते हैं नौकरी करने वाले मां-बाप के पास तो बच्चों के लिए बिल्कुल समय नहीं होता कभी बच्चों ने अपने मन की बात मां बाप से कह दी तो मैंने उन माता-पिता को यह जवाब देते हुए भी सुना है क्या तुम्हारे लिए नौकरी छोड़ दूं अगर नौकरी नहीं करेंगे तो तुम्हारी पढ़ाई का खर्चा कैसे उठाएंगे क्या पहले मां-बाप बच्चों को पढ़ते नहीं थे या बच्चे पढ़ते नहीं थे और मां-बाप कमाते भी नहीं थे, लेकिन आय भी इतनी अधिक नहीं होती थी फिर भी क्या बच्चे डॉक्टर नहीं बनते थे, आईपीएस ऑफिसर नहीं बनते थे या इंजीनियर नहीं बनते थे सब कुछ होता था। आय कम होने पर भी बच्चों के जरूरी खर्च में कोई कटौती नहीं होती थी। कम से कम आय में भी बड़े-बड़े खर्च करने पड़ते थे। उसमें क्या करते थे मां-बाप अपनी इच्छा का त्याग करते थे। आज के मां-बाप खुद त्याग तो करना चाहते नहीं बच्चों से बड़ी-बड़ी उम्मीद करते हैं कि हमारा बेटा बहुत बड़ा डॉक्टर बने इंजीनियर बने बहुत बड़ी नौकरी करें। बच्चों से ज्यादा मां-बाप अपने बच्चों के बारे में बताने में शर्म महसूस करने लग जाते हैं अगर उनके बच्चे के नंबर कम आ जाते हैं यहां उनका बच्चा किसी कंपटीशन में फर्स्ट नहीं आता ऐसी स्थिति में माता-पिता अपने आप को ही नहीं बच्चों को भी टेंशन में रखते हैं कभी उन माता-पिता ने यह सोचा होगा कि उनकी कामयाबी में उनके माता-पिता का योगदान कैसा रहा पहले मां-बाप के अंदर बड़ी सहनशीलता होती है बड़ी सादगी होती थी दिखावा बिल्कुल नहीं होता था और अगर उनका बच्चा बड़ा कामयाब हो जाता तो उन्हें बहुत खुशी मिलती थी। बच्चे की कामयाबी का कभी वह ढिंढोरा नहीं पीटते, और बच्चे अगर किसी वजह से सफल नहीं हुए या बच्चे के नंबर कम भी आ गए हैं तो बच्चे को हौसला देते थे, और यही कहा जाता था मेहनत में तो कोई कमी नहीं, कोई बात नहीं, आगे नंबर अच्छे आएंगे लेकिन आज के माता-पिता तो अपना आपा ही खो बैठते हैं। माता-पिता को यह बात समझ आनी चाहिए की हर बच्चा फर्स्ट नहीं आ सकता किसी एक को ही फर्स्ट आना है। माता-पिता को मेरा यह सुझाव है कि अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें। कुछ विधाता के ऊपर भी छोड़ देना चाहिए बच्चों को तनाव से मुक्त रखें ताकि बच्चे अपना भविष्य स्वयं देख सके। इसके साथ-साथ मां-बाप को अपने बच्चों के ऊपर निगरानी जरूर रखें, ताकि बच्चे अपने लक्ष्य से भटक ना जाए। जैसे-जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे उसको समय स्थिति का ज्ञान करवाना मां-बाप का कर्तव्य रहता है बच्चे उन्हें मानते भी है। समझने का तरीका थोड़ा सा सरल एवं प्यार भरा होना चाहिए।
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जानकारी देती समाजसेवी नीलम शर्मा……………….(डा. आर. के. जैन)
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