लेखक: प्रा. मयंक जैन
मंगलयातन विश्वविद्यालय, अलीगढ़
“नाम मिटाने की कोशिशें और विचार की अमरता: गांधी, राजचंद्र और शाश्वत जैन धर्म”
“सियासत के हाशिये पर गांधी और रूह में बसा जैन दर्शन”
प्रस्तावना: इतिहास के झरोखे और वर्तमान की धुंध
वर्तमान समय के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में एक अजीब सी हलचल व्याप्त है। इतिहास के महानायकों को वर्तमान के चश्मे से पुनर्मूल्यांकित करने के नाम पर कभी-कभी उनके अस्तित्व और योगदान को ही विस्मृत करने का प्रयास किया जाता है। महात्मा गांधी भी इससे अछूते नहीं हैं। किंतु, क्या किसी विचार को मिटाना इतना सहज है? विशेषकर उस विचार को, जिसकी जड़ें हज़ारों वर्षों की श्रमण संस्कृति और जैन धर्म के ‘अहिंसा परमो धर्म:’ के मूल मंत्र में गहराई तक धंसी हों।
गांधी मात्र एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक चेतना हैं। इस चेतना का निर्माण मरुधरा की उस आध्यात्मिक सुगंध से हुआ है, जिसे श्रीमद राजचंद्र जैसे संतों ने सींचा था। आज जब सत्य और अहिंसा को ‘कमजोरी’ के रूप में देखा जाने लगा है, तब यह अनिवार्य हो जाता है कि हम गांधी के उन मूल आधारों की ओर लौटें, जिन्होंने उन्हें ‘मोहन’ से ‘महात्मा’ बनाया।
श्रीमद राजचंद्र: गांधी के आध्यात्मिक सारथी
गांधीजी के जीवन पर कई पाश्चात्य और भारतीय विचारकों का प्रभाव पड़ा, जिनमें टॉल्स्टॉय, रस्किन और थोरो प्रमुख थे। परंतु, उनके आध्यात्मिक संकट के समय जिस व्यक्तित्व ने उन्हें संबल प्रदान किया, वे थे—श्रीमद राजचंद्र (जिन्हें गांधीजी आदर से ‘रायचंद भाई’ कहते थे)।
दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान जब गांधीजी अपने धार्मिक विश्वासों को लेकर द्वंद्व में थे, तब श्रीमद जी ने ही उन्हें जैन धर्म के गूढ़ रहस्यों, स्याद्वाद और अनेकांतवाद के माध्यम से सत्य के दर्शन कराए। गांधीजी ने स्वयं स्वीकार किया था:”मैंने बहुतों के जीवन से बहुत कुछ सीखा है, लेकिन जो प्रभाव मुझ पर रायचंद भाई का पड़ा, वह किसी और का नहीं। उनकी वाणी सीधे हृदय में उतर जाती थी।”
श्रीमद राजचंद्र ने गांधी को सिखाया कि अहिंसा केवल जीव हत्या न करना नहीं है, बल्कि मन में किसी के प्रति दुर्भावना न रखना भी अहिंसा है। यह जैन धर्म का वह ‘अपरिग्रह’ और ‘क्षमा’ भाव था, जिसे गांधी ने स्वाधीनता संग्राम का सबसे बड़ा हथियार बनाया।
जैन धर्म के सिद्धांतों का गांधीवादी रूपांतरण
गांधीजी का पूरा दर्शन जैन धर्म के ‘पंच महाव्रतों’ (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) का आधुनिक संस्करण प्रतीत होता है।
अहिंसा (Non-violence): जैन धर्म में अहिंसा सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति भी दया का भाव है। गांधी ने इसे सामाजिक और राजनीतिक प्रतिरोध (सत्याग्रह) का रूप दिया। उन्होंने सिद्ध किया कि अहिंसा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं।
सत्य (Truth): गांधी के लिए सत्य ही ईश्वर था। जैन दर्शन का ‘स्याद्वाद’ (Theory of Relativity of Reality) उन्हें यह समझने में मदद करता था कि सत्य के कई पहलू हो सकते हैं और हमें दूसरों के दृष्टिकोण का भी सम्मान करना चाहिए।
अपरिग्रह (Non-possessiveness): आज के उपभोक्तावादी युग में गांधी का अपरिग्रह सबसे अधिक प्रासंगिक है। जैन धर्म की यह शिक्षा कि अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखा जाए, गांधी के ‘स्वदेशी’ और ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत का आधार बनी।
“महावीर की करुणा बसी, राजचंद्र का ज्ञान,
गांधी बनकर गूँजता, मानवता का गान।”
वर्तमान शासन और गांधी: विस्मृति के प्रयास बनाम वैचारिक अमरता
वर्तमान समय में हम देख रहे हैं कि प्रतीकों की राजनीति हावी है। सड़कों, योजनाओं और संस्थानों से नाम बदलना एक चलन बन गया है। गांधी के नाम को भी गौण करने के प्रयास परिलक्षित होते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या गांधी को केवल एक फोटो या नोट से हटाया जा सकता है?
जब तक संसार में हिंसा रहेगी, अहिंसा की खोज जारी रहेगी। जब तक झूठ का बोलबाला रहेगा, सत्य की मशाल जलती रहेगी। गांधी का विरोध करना सरल है, लेकिन गांधी को खारिज करना असंभव है। वर्तमान शासन यदि भौतिक रूप से गांधी को ओझल करना भी चाहे, तो भी उन्हें उन मूल्यों से लड़ना होगा जो भारतीयता की आत्मा हैं। और भारतीयता की वह आत्मा जैन धर्म के करुणा भाव और गांधी के सेवा भाव से ही निर्मित है।
साहित्यिक परिप्रेक्ष्य: गांधी—एक जीवंत महाकाव्य
साहित्यिक दृष्टि से विचार करें तो महात्मा गांधी कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवंत महाकाव्यात्मक रचना हैं, जिसका नायक स्वयं अपने कथानक का सृजन करता है। यदि साहित्य सत्य की अभिव्यक्ति है, तो गांधी उस सत्य का साक्षात स्वरूप हैं। जैन कवियों और आचार्यों ने सदियों से जिस ‘वीतराग’ भाव (राग-द्वेष से मुक्ति) की कल्पना अपने काव्यों में की है, गांधी ने उसे बीसवीं सदी की ऊबड़-खाबड़ राजनीति के धरातल पर जीकर दिखाया।
राजनीति का आध्यात्मिकरण और ‘वीतराग’ की सक्रियता
साधारणतः राजनीति को ‘छल-कपट’ का पर्याय माना जाता है, किंतु गांधी ने जैन धर्म के ‘अनेकांतवाद’ और ‘स्याद्वाद’ को राजनीति में उतारकर उसे एक पवित्र अनुष्ठान बना दिया। उन्होंने सिखाया कि विरोधी के प्रति भी मन में द्वेष न रखना ही वास्तविक विजय है। यह वही ‘जितेन्द्रिय’ भाव है जो जैन साहित्य का मूल स्वर है। जहाँ जैन मुनि एकांत में आत्म-साधना करते हैं, वहीं गांधी ने कोलाहल भरी राजनीति के बीच ‘अनासक्ति’ का मार्ग चुना। उनका ‘सत्याग्रह’ वास्तव में जैन धर्म के ‘तप’ का ही एक सामाजिक विस्तार था।
आधुनिक युग के ‘सांकेतिक दिगंबर’
गांधी का व्यक्तित्व जैन धर्म की ‘अपरिग्रह’ (Non-possession) की पराकाष्ठा था। जिस प्रकार जैन धर्म में ‘दिगंबर’ अवस्था पूर्ण त्याग और प्रकृति से एकाकार होने का प्रतीक है, गांधी ने भी अपनी वेशभूषा को न्यूनतम कर स्वयं को भारत की दरिद्र जनता के साथ एकाकार कर लिया। एक लाठी, एक घड़ी और एक धोती—यह सादगी किसी सम्राट के मुकुट से कहीं अधिक प्रभावशाली थी। यह एक ‘सांकेतिक दिगंबरत्व’ ही था, जिसने दुनिया को दिखाया कि आत्मशक्ति (Soul Force) के सामने भौतिक संसाधन और शस्त्रों का भंडार तुच्छ है।
साम्राज्यवाद बनाम आत्मबल का आख्यान
साहित्य में अक्सर ‘अहंकार’ और ‘विनम्रता’ के युद्ध का वर्णन मिलता है। गांधी का जीवन इस संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है। एक ओर विश्व की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति (ब्रिटिश हुकूमत) थी, जिसके पास सैन्य बल और वैभव था; दूसरी ओर एक ‘हड्डी का ढांचा’ मात्र दिखने वाला व्यक्ति था, जिसके पास केवल आत्मबल था। यह आत्मबल उन्हें श्रीमद राजचंद्र द्वारा सिखाए गए ‘आत्मसिद्धि’ के पाठ से मिला था। उन्होंने सिद्ध किया कि जो व्यक्ति स्वयं को जीत लेता है, उसे पराजित करना किसी भी सत्ता के लिए असंभव है।
एक अमर कविता की भांति गांधी
जैसे एक उत्तम कविता समय की सीमाओं को लांघकर अमर हो जाती है, वैसे ही गांधी के विचार किसी भी कालखंड की राजनीति से ऊपर हैं। आज यदि सत्ता प्रतिष्ठान उनके नाम को शिलापट्टों या इतिहास की पुस्तकों से धूमिल करने का प्रयास करते भी हैं, तो वे सफल नहीं हो सकते। क्योंकि गांधी का व्यक्तित्व शब्दों में नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं के व्याकरण में रचा गया है। वे एक ऐसी ‘कविता’ हैं जिसे मानवता तब तक गुनगुनाती रहेगी, जब तक दुनिया में अन्याय और हिंसा का अस्तित्व रहेगा।
“तन पर धोती, हाथ में लाठी, मन में सत्य की ज्योति,
राजचंद्र की राह पर चलकर, बन गए भारत की मोती।”
उपसंहार: क्या है भविष्य का मार्ग? (वर्तमान का निचोड़ और समाधान)
यदि हम आज के खंडित समाज में एक न्यायपूर्ण, समतामूलक और मानवीय व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं, तो हमें अनिवार्य रूप से गांधी के उन मौलिक सूत्रों की ओर वापस लौटना ही होगा, जो श्रीमद राजचंद्र के सान्निध्य में जैन दर्शन की कोख से उपजे थे। वर्तमान समय में इतिहास को ‘पुनर्लेखन’ के नाम पर विकृत करने और गांधी जैसे महामानव के नाम को विस्मृत करने की चेष्टाएँ जोरों पर हैं। कभी उनके व्यक्तित्व पर प्रश्न उठाए जाते हैं, तो कभी उनकी प्रासंगिकता को ‘पुराना’ कहकर नकारा जाता है। किंतु, क्या सत्य की कोई समाप्ति तिथि (Expiry Date) होती है?
1. सत्ता के प्रतीकों बनाम विचार की अमरता: नाम मिटाने की कोशिशें इतिहास में नई नहीं हैं। सत्ताओं का स्वभाव रहा है कि वे अपनी लकीर बड़ी करने के लिए महापुरुषों की लकीर मिटाने का प्रयास करती हैं। परंतु वर्तमान शासन को यह समझना होगा कि गांधी कोई सरकारी ‘ब्रांड’ नहीं हैं जिसे एक आदेश से बदला जा सके। गांधी वह ‘विचार’ हैं जो जैन धर्म के अनेकांतवाद (विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मान) से उपजा है। जब तक समाज में असहमति का स्वर जीवित है, गांधी जीवित हैं। नाम शिलापट्टों से मिट सकते हैं, पर जनमानस की चेतना में बसे उस गांधी को कैसे मिटाया जाएगा, जिसने सत्य को ही अपना ईश्वर माना?
2. वर्तमान संकट का समाधान: गांधी और जैन दृष्टि: आज विश्व ‘ध्रुवीकरण’ (Polarization) और ‘असहिष्णुता’ के दौर से गुजर रहा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब धर्म को राजनीति का हथियार बनाया जा रहा है, तब गांधी का वह स्वरूप और अधिक निखर कर आता है जो उन्होंने श्रीमद राजचंद्र से सीखा था—”धर्म वही है जो आत्मा को शुद्ध करे, न कि वह जो नफरत फैलाए।” जैन दर्शन का ‘स्याद्वाद’ आज की ‘कट्टरता’ का सबसे बड़ा उपचार है। यदि हम दूसरों के सत्य को भी स्वीकार करना सीख लें, तो आधी हिंसा स्वतः समाप्त हो जाएगी।
3. नई पीढ़ी के लिए गांधी की प्रासंगिकता: आज की युवा पीढ़ी, जो सूचनाओं के अंबार और सोशल मीडिया के दुष्प्रचार के बीच भ्रमित है, उसे यह समझना होगा कि गांधी किसी एक दल या विशेष विचारधारा के ‘कॉपीराइट’ नहीं हैं। वे उस सनातन सत्य के संवाहक हैं, जिसका प्रवाह भगवान महावीर की करुणा से शुरू होकर आज के मानवाधिकार संघर्षों तक विस्तृत है। गांधी को केवल मूर्तियों और फोटो तक सीमित कर देना उन्हें ‘जड़’ बना देना है। उन्हें प्रतिमाओं के पत्थर से निकालकर अपने आचरण के रक्त में प्रवाहित करना होगा।
4. निष्कर्ष: नाम नहीं, काम की चुनौती: गांधी के नाम को मिटाने का प्रयास करने वालों को यह समझना चाहिए कि वे वास्तव में गांधी को नहीं, बल्कि उस नैतिक दर्पण को तोड़ना चाहते हैं जिसमें उनका अपना चेहरा धूमिल दिखता है। अहिंसा का मार्ग कायरता का नहीं, बल्कि अदम्य साहस का मार्ग है। वर्तमान सत्ता यदि वास्तव में महान बनना चाहती है, तो उसे गांधी के ‘अंतिम जन’ (Antyodaya) के सिद्धांत को स्वीकार करना होगा।
“सत्य को पराजित किया जा सकता है, पर मिटाया नहीं जा सकता।”
यही उस महामानव और श्रीमद राजचंद्र की आध्यात्मिक विरासत के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। गांधी को मिटाने की हर कोशिश उन्हें और अधिक प्रासंगिक बना देगी, क्योंकि अंधकार चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, वह प्रकाश के अस्तित्व को कभी मिटा नहीं सकता। भविष्य का मार्ग केवल और केवल ‘सत्य, संयम और सह-अस्तित्व’ से होकर गुजरता है—और यही गांधी हैं।”सत्य को पराजित किया जा सकता है, पर मिटाया नहीं जा सकता।”
“नाम मिटाने से कभी, मिटे न आत्म-प्रकाश,
गांधी वह विश्वास है, जिसका नहीं विनाश।”












