साधुता के लक्षण
डॉ नरेन्द्र जैन भारती सनावद
श्रमण संस्कृति त्याग प्रधान संस्कृति है। जैन धर्म के तीर्थंकरों ने आत्मा के कल्याण के लिए उपदेश दिए हैं। उनमें भी तप एवं त्याग की प्रमुखता है। चारों गतियों में परिभ्रमण करने वाला जीव अनंत दुख उठाता है। संसार का सबसे बड़ा दुख जन्म और मृत्यु का बंधन है। जन्म और मृत्यु के बीच बुढ़ापा भी दुःख का कारण है। इसलिए आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने लिखा है – “पडिवज्जहु सामण्णं यदि इच्छदि दुक्ख परिमोक्ख” अर्थात यदि दुख से छुटकारा चाहते हो तो मुनि पद को प्राप्त होओ। यहाँ मुनि से तात्पर्य दिगंबर मुनि मुद्रा। मुनि को ही दिगंबर साधु कहा गया है। साधु को श्रमण शब्द से भी जाना जाता है। श्रमण का अर्थ है- मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रम अर्थात् पुरुषार्थ करने वाला ऐसा व्यक्ति जो परिग्रह का त्याग कर मुनि पद धारण कर लेता है तथा तपस्या में लीन हो जाता है। तपस्वी के संबंध में कहा गया है –
विषयाशावसातीतो निरारंभो परिग्रहः।
ज्ञान ध्यान तपो रक्तः तपस्वी स प्रशस्यते।।
अर्थात् विषयों की आशा से रहित, आरंभ परिग्रह का त्याग करने वाला ज्ञान, ध्यान और तपस्या में जो अनुरक्त रहता है वह तपस्वी है। तपस्वी का संपूर्ण पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति या आत्मा के कल्याण के लिए होता है। इसलिए उसे बाह्य में शरीर के प्रति निर्ममत्व भाव रखना पड़ता है तथा अंतरंग में क्रोध, मान, माया और लोभदि कषायों को शमन करने के लिए धर्म पुरुषार्थ के लिए सजग रहना होता है। मल्लिषेणाचार्य ने साधु के सम्बन्ध में लिखा है –
देहे निर्ममता गुरो विनयता नित्यं श्रुताभ्यासता,
चरित्रोज्जवल मोहोपशमता संसार निर्वेगता।
अन्तः बाह्य परिग्रहत्यजनतां धर्मज्ञता साधुता,
साधो साधुजनस्य लक्षणमिदं संसार विक्षेपणं।।
अर्थात ये साधु शरीर के प्रति ममता नहीं रखते, गुरु के प्रति विनय, निरंतर शास्त्रों के प्रति अभ्यास करने वाले, उज्ज्वल चरित्र पालन, मोह का शमन, संसार से डरना, अन्तरंग और बाह्य 24 प्रकार के परिग्रह का त्याग तथा उत्तम क्षमादि दसधर्मों के वस्तु स्वभाव को जानना साधुपना है।
सीट गय वसह मिय पशु मारुद सुरुवहि।
मदरिंदुमणी खिंदि उरगंवर सरिसापरमपथ विभग्गया साहु।।
अर्थात् सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र प्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, पवन के समान निःसंग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर अकम्प, चन्द्रमा के समान सहनशील, मणि के समान प्रभापूँजयुक्त, पृथ्वी के समान सहनशील, उरग के समान दूसरों के बनाए मकान में निवास करने वाले,अंबर के समान निराबलंबी सदा मोक्ष की इच्छा करने वाले साधु होते हैं।
कुंदकुंद स्वामी ने साधुता के लिए जो व्यवस्था दी है वह इस प्रकार है –
णिग्गंथमोहमुक्का बाबीसपरीसहा जियकसाया।
पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ।। मोक्ष पाहुड 80
परिग्रह विहीन, स्वजन परिजन की मोह ममता से रहित, 22 परीषहों को सहने वाले, क्रोधादि कषायों के विजेता, सब प्रकार के पाप और आरंभ से रहित साधु ही मोक्षमार्ग के अधिकारी हैं। इन लक्षणों को हम साधुओं की आचार संहिता भी कह सकते हैं। यदि साधु की चर्या इस प्रकार की नहीं है तो नग्न वेश धारण करने के बाद भी साधु दुःख से छुटकारा नहीं पा सकता न मोक्ष की प्राप्ति संभव है। श्रावक भी साधुओं को ज्ञान, ध्यान और तपस्या में लीन देखना चाहता हैं, साथ ही उनमें अकषाय भाव भी दिखाई दे, इसलिए साधु की साधुता के लिए साधुओं में विनम्रता, सरलता और निरहंकारिता के गुण स्वाभाविक रूप से दिखना चाहिए तभी श्रावकों की श्रद्धा और भक्ति साधु के प्रति रहेगी।
विनम्रता – मानव जीवन में कषाय भाव देखा जाता है। ऊंच नीच की भावना भी देखने को मिलती है। धनी व्यक्ति जिस तरह मान से वशीभूत होता है उसी तरह कई मुनिगण भी मुनिमार्ग पर चलते हुए मान कषाय से वशीभूत हुए दिखाई देते हैं अतः आत्माभिमुखी होने के लिए साधु को कषाय का त्याग कर विनम्र रहकर अपने को नम्र बनाये रखना चाहिए। मृदुता के भाव से विनम्रता आती है। विनम्रता का धारक मुनि पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं रहता है अतः उसके भावों में हमेशा नम्रता रहती है। आत्मा की निर्मलता के लिए विनम्र भाव संजीवनी का कार्य करती है।
सरलता – साधु का जीवन सरल, स्वाभिमानी होना चाहिए। जहाँ मन, वचन और काय की एकाग्रता होती है वहाँ रत्नत्रय की प्राप्ति होती है और साधु का तप रूपी पुरुषार्थ रत्नत्रय को धारण कर मोक्ष रूपी लक्ष्य की प्राप्ति करता है अतः साधु में सरलता होना जरूरी है। सरल स्वाभिमानी साधु को सभी आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। सरल स्वभाव आत्मोत्थान में सहायक बनता है।
सहजता – ‘सहजता’ साधु जीवन का महत्वपूर्ण लक्षण है।आत्मा का जैसा स्वरुप है उसी के अनुसार जीवन व्यतीत करना सहजता है। अर्थात् आत्मा का उपयोग आत्म हित में ही लगाना सहज स्वभाव में जीना है। बीते हुए समय की परवाह न कर भविष्य की चिंता न कर संकल्प रहित होकर ज्ञानमय निजभावों में रहना सहज जीवन व्यतीत करना है। साधु इसी तरह निज हित में लगा रहे यही सहज कार्य है। साधु जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति ऐसा ही करता है।
निरहंकारिता – साधु को अहंकार से रहित होना चाहिए। ज्ञान, ध्यान, तपादि का अहंकार नहीं करना चाहिए। निरहंकारी व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं आता, न विपरीत परिस्थितियों में अपने को अपमानित महसूस करता है। इसी बल पर व्यक्ति सभी प्रकार की विपत्ति रूपी उपसर्गों को सहन करता है। इन उपसर्गों को सहन करता देखकर साधुओं के प्रति हमारा श्रद्धा भाव उमड़ता है।
साधुओं की दैनिक चर्या में इन बाह्य गुणों का अत्यंत महत्व है। सामान्य जन इन गुणों को देखकर अत्यंत प्रभावित होता है तथा उन्हें निर्दोष साधु मानता है। अतः बाह्यगुणों का भी साधु के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। बाह्य लक्षणों से भी आंतरिक गुणों का पता चलता है।